संस्मरण

मेरी कहानी 82

पहला दिन हमारा कामयाब रहा था. बस को चलाने का कुछ आइडिया हो गिया था. दुसरे दिन मैंने डिपो से बस निकालने से पहले बस में तीनों तरफ़ DRIVER UNDER INSTRUCTIONS के बोर्ड खुद ही लगाए और बस की कैब में जा बैठा. viki dunton मुझे बोला, “are you sure you can take it out of depot yourself mister bhamra?”. o yes मैं बोला और धीरे धीरे बस को बाहर ले आया. विक्की ने मुझे फिर वैस्ट पार्क जाने को बोला और मैं बस को वैस्ट पार्क रोड पर ले आया. एक दो चक्कर मैंने पार्क के गिर्द लगाए और फिर विक्की मुझे बोला, ” आज मैं तुम्हें बस रिवर्स करनी सिखाऊंगा ” और वोह मुझ को उस जगह ले आया यहाँ devon road है जो पार्क रोड में से ही निकलती है. यह रोड मुश्किल से चालिस फीट लम्बी होगी. जैसा विक्की ने कहा मैं ने वेस्ट पार्क पर खड़ी बस को रिवर्स गेअर में डाला और बस के दायें शीशे की ओर देख देख कर पीछे की ओर ले जाने लगा. . कुछ दूर आ कर विक्की बोला “STOP!”. मैंने बस खड़ी कर दी. विक्की ने मुझे एक घर की एक तीन चार फीट ऊंची इंटों की दीवार पर खुदे हुए एक क्रॉस की तरफ इशारा किया और कहा कि जब भी मैं इस क्रॉस के सामने आऊँ तो बस के स्टीयरिंग वील को मोड़ना शुरू कर दूँ और devon road में आते ही बस को सीधी कर दूं और धीरे धीरे पीछे की ओर चलता रहूँ. जैसे विक्की ने मुझे समझाया वैसे ही मैंने किया और बार बार रिवर्स करता रहा. इस क्रॉस और devon road का ज़िकर मैंने इस लिए किया है, किओंकि इस जगह से मेरी यादें जुडी हैं. इस जगह ही सभी रीवर्सिंग करना सीखते थे और इसी जगह सभी का ड्राइविंग टैस्ट हुआ करता था. इसी जगह हमारे ट्यूटर अक्सर हम को बहुत शाउट किया करते थे किओंकि यहाँ ही गल्तिआं होती थीं. यहां ही मैंने दो हफ्ते बाद पहला और उस के दो हफ्ते बाद दूसरा टैस्ट पास किया था और मुझे पब्लिक सर्विस वैहिकल (PSV) लाइलेंस मिला था । कुछ महीने हुए बेटे के साथ मैं हस्पताल से आ रहा था तो मैंने बेटे को devon रोड की तरफ जाने को बोला। जब हम वहां पुहंचे तो मैंने देखा कि वोह खुदा हुआ क्रॉस अब भी वहां ही मौजूद है। देख कर मुझे मेरी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। पुराने मकानों की जगह नए मकान बन चुक्के हैं लेकिन पता नहीं क्यों, किसी ने उस दीवार को नहीं तोडा। मकान नए हैं लेकिन वोह दीवार अभी तक ओरिजनल है। अभी चार दिन ही हुए मैंने बेटे को कहा था कि वोह मेरे लिए उस क्रॉस की फोटो खिंच कर लाये। दिसंबर 1966 में मैंने ड्राइविंग टेस्ट यहां ही पास किया था, इस दसंबर को ड्राविंग टेस्ट पास किये हुए मुझे 49 साल हो जाएंगे।

यह ड्राइविंग सीखने के दिन हम सभी के लिए एक हॉलिडे से कम नहीं थे। हर ट्यूटर अपने अपने शागिर्द को शहर से दूर ले जाता और प्रैक्टिस होती रहती थी । कभी कभी सब इकठे हो जाते और बैठ कर हंसी मज़ाक चलता रहता। हम चारों शागिर्द अपनी बातें करते रहते। भट्टी सिगरेट बहुत पिया करता था, इतनी कि बुझने नहीं देता था। एक खत्म होती तो दुसरी लगा लेता था । उन दिनों सिगरेट के नुक्सान की बातें नहीं होती थीं बल्कि जो पीते थे, फखर से पीते थे। कुछ गोरे  हम पर जोक करते रहते थे कि इंडियन लोग कोई स्मोक नहीं करते और इतना ड्रिंक भी नहीं करते थे और पैसे बचाते थे। मेरा यकींन है कि भट्टी सिगरेट पीने की वजह से ही इस दुनिआ से गिया होगा। निहाल की मुझे कभी समझ नहीं आई क्योंकि न तो वोह शराब पीता था ना मीट और अंडा खाता था और शरीर का भी बहुत सलिम था, फिर भी वोह इतनी जल्दी दुनिआ छोड़ गिया था । निहाल की यादें तो बहुत हैं लेकिन मुझे उस की एक बात भूलती नहीं। उस वक्त आदमी 65 की उम्र हो जाने पर रिटायर होते थे। जब निहाल के रिटायर होने को चार महीने रह गए थे तो वोह बहुत खुश था। अपनी उम्र के हिसाब से वोह बहुत जवान लगता था। अक्सर वोह कहता रहता था, “अब तो मेरे साहे के दिन हैं” यानी रिटायरमेंट मिलने में अब ज़्यादा वक्त नहीं था। रिटायर हो कर अभी एक साल ही हुआ था कि एक सुबह जब वोह पोते को स्कूल छोड़ने के लिए तैयार हो रहा था तो बूटों के तस्मे बांधते वक्त ही वोह एक तरफ लुढ़क गिया था । निहाल की लड़की मेरे रामगढ़िया स्कूल के ही एक साथी अवतार सिंह महेड़ू गाँव वाले के लड़के से विवाही हुई थी। यह ज़िंदगी भी किया अजीब है !. निहाल की एक बात और याद है। ड्राइविंग के दौरान गल्तीआं तो होती ही रहती थीं और हमारे इंस्ट्रक्टर हम पर बहुत शाऊट किया करते थे। निहाल अक्सर भोला सा मुंह बना कर कहता ” every body is alright, me fukin no good “. इस पर सभी खिल खिला कर हंस पड़ते थे।

काम पर जाने से पहले एक सुबह मुझे इंडिया से आया पिता जी का खत मिला, जिस में उन्होंने लिखा था कि मेरे ससुर जी राणी पर आये थे और जोर दे रहे थे कि अब हमारी शादी हो जानी चाहिए। पिता जी ने लिखा था कि काम से छुटी ले कर मैं आ जाऊं और शादी करके अपनी पत्नी को भी साथ लेता चलूँ। खत पड़ कर मैंने सोचा कि पहले ड्राइविंग का टैसट पास कर लूँ, फिर ही कुछ सोचूंगा। जब काम पर मैं आया तो रोज़ाना की तरह प्रैक्टिस शुरू हो गई। दो अढ़ाई घंटे बस की प्रैक्टिस करके जैसा हमारे गुरुओं ने बोला हम ब्रिजनौरथ रोड की तरफ चल दिए। ब्रिजनौरथ रोड बहुत लम्बी रोड है। तकरीबन आधा मील चल कर एक पब्ब जो अभी भी है में हमें जाने को बोला गिया। इस पब्ब का नाम था मरमेड इन (MERMAID) मरमेड इंग्लैण्ड का एक मिथिहासक नाम है। मरमेड ऊपर से एक खूबसूरत लड़की होती है और नीचे से एक मछली होती है। यह वैसे ही है जैसे परिओं की कहानीआं होती हैं। इस पब्ब के बाहर ऐसी ही एक मरमेड की पेंटिंग का बोर्ड लगा हुआ है। हम सभी ने अपनी अपनी बसें खड़ी कीं और मरमेड इन के भीतर चले गए। माइल्ड बीअर के ग्लास ले कर हम बाहर आ गए और गार्डन में सजे हुए लकड़ी के बैंचों पर बिराजमान हो गए जिन के सामने लकड़ी के ही मेज थे। बीयर लस्सी की तरह गाहड़ी और स्वादिष्ट थी। ग्लासों के ऊपर तक लस्सी की तरह झाग थी और एक घूँट पी कर ही मज़ा आ गिया। अब बीयर पीने लगे तो मैंने निहाल को पिता जी के खत की बात बताई। निहाल और भट्टी दोनों ही हंसने लगे और मुझे वधाई दी। निहाल को मैंने पंजाबी में बोला कि वोह गोरों को न बताये क्योंकि मेरी ड्राइविंग ट्रेनिंग में गड़बड़ हो सकती थी। निहाल एक साल पहले ही इंडिया में शादी करा कर अपनी पत्नी को साथ ले आया था और भट्टी ने भी कुछ देर बाद पाकिस्तान को शादी के लिए जाना था। भट्टी आज़ाद कश्मीर के मीर पुर जिले का रहने वाला था। भट्टी हमेशा हँसता ही रहता था।

मैं पहले बता चुक्का हूँ कि जो लोग हम से पहले आये थे वोह अपने परिवार पीछे छोड़ कर आये थे और कुछ साल काम करके वापस इंडिया चले जाते थे लेकिन अब जो लड़के स्कूलों कॉलजों से पड़ कर आये थे उन में बहुत से तो ऐसे थे जिन की सगाई मेरी तरह पहले ही हो चुक्की थी और बहुत से अब इंडिया को शादी कराने जा रहे थे। बहुत लड़के इंडिया जाते और शादी करा कर वापस आ जाते और बाद में घर ले कर अपनी बीविओं को इंगलैंड बुला लेते थे । कुछ किस्से ऐसे भी सुने थे कि लड़का इंगलैंड में होता था और उस की शादी इंडिया में लड़के की फोटो से ही कर दी जाती थी और बाद में लड़का अपनी बीवी को बुला लेता था। बीवीओं को इंगलैंड में लाने का एक इन्कलाब ही आ गिया था। नए लड़कों को देख कर अब जो पुराने लोग आये हुए थे वोह भी अपने अपने परिवारों को बुलाने लगे थे। नई नई दुल्हनें अक्सर अपने पतिओं के साथ खूबसूरत कपडे पहने शौपिंग करती दिखाई देने लगी थीं।

ड्राइविंग पे प्रैक्टिस करके जब मैं घर आया तो मैं सोचने लगा कि मेरी सगाई तो बचपन में ही हो चुक्की थी जिस को इतने वर्ष बीत गए थे कि यह जानना ही मुश्किल था कि मेरी बीवी कैसी होगी, उस के विचार कैसे होंगे, किया वोह मुझे पसंद करेगी भी या नहीं। सोच सोच कर मैंने अपने पिता जी को ख़त लिखा कि मैं अपने जीवन साथी को ख़त लिखना चाहता था, इस लिए वोह मेरे ससुर साहब से पूछ कर बताएं कि किया मैं अपनी बीवी को ख़त लिख सकता हूँ या नहीं। वोह समय ही ऐसा था कि गाँवों में ऐसी बातें सोचना भी मुश्किल था। कुछ हफ़्तों बाद मुझे जवाब मिल गिया। मुझे इजाजत मिल गई थी। इस का कारण शाएद यह ही था कि मेरे और मेरी पत्नी के पिता जी दोनों कुछ आज़ाद विचारों के थे। 1966 में मैंने अपनी पत्नी को पहला पत्र लिखा और जवाब का इंतज़ार करने लगा। दुसरी तरफ मेरा सारा धियान ड्राइविंग टैस्ट पास करने पर लगा हुआ था। दो हफ्ते प्रैक्टिस करके मेरा और दुसरे दोस्तों का टैस्ट वेस्ट पार्क रोड और devon road पर हुआ। यह टैस्ट हमारे गैरेज के ही सीनिअर इंस्पैक्टर ने लिया था। हम तीनों एशियन पास हो गए थे लेकिन गोरा फेल हो गिया था। इस पहले टैस्ट से ही हम खुश हो गए थे और फाइनल टैस्ट की तयारी में मसरूफ हो गए। कुछ दिन बाद मुझे मेरी अर्धांग्नी का ख़त मिला। ख़त में कोई ख़ास बात तो नहीं थी लेकिन जितना भी था मैं बार बार उसे पड़ता, पता नहीं उस में मेरी इतनी दिलचस्पी कियों हो गई थी कि यह ख़त मुझे बहुत ही अच्छा लगता था । दुसरे ख़त में मैंने अपनी बीवी को अपनी फोटो भेजने के लिए कहा और जवाब का इंतज़ार करने लगा।

ड्राइविंग में अब हमें नई नई बस्सों पर प्रैक्टिस कराई जाने लगी थी । जो ट्रिपर वाली बस्सें थीं वोह ओपन बैक होती थी जिस के पीछे कंडक्टर खड़ा होता था लेकिन यह नई बस्सों के दरवाज़े इंजिन के नज़दीक होते थे और एअर प्रैशर से खुलते और बंद होते थे और यह चलाने में भी बहुत आसान थीं। यह सैमी ऑटोमैटिक थीं और चलाने के लिए बहुत ही आसान थीं, स्टीरिंग वील के बिलकुल नज़दीक गेअर लीवर जो सिर्फ दो इंच ऊंचा होता था, उस को एक दो तीन और चार गेअरों में डाला जा सकता था और रिवर्स करने के लिए भी ऐसा ही गेअर लीवर था। ट्रिपर वाली बस्सें भी कुछ ही सालों में ख़तम कर दी गई थीं और अब तो नई नई फुली ऑटोमैटिक आ गई थीं। फिर दो हफ्ते बाद हमारा फाइनल टैस्ट जो मिनिस्टरी ऑफ ट्रांसपोर्ट के इंस्पेक्टर ने लेना था, वोह दिन भी आ गिया। विक्की ने मुझे बहुत कुछ समझाया और कहा कि मैं कोई गलती न करूँ, नहीं तो वोह बहुत निराश होगा। टेस्ट उसी जगह पार्क रोड devon road पर होना था और पहला टैस्ट मेरा ही था। रोड ड्राइविंग का टैस्ट तो इतना मुश्किल नहीं होता था लेकिन रीवर्सिंग का एक चैलेन्ज ही होता था किओंकि बस बहुत बड़ी होती थी और उन दिनों पावर स्टीयरिंग नहीं होते थे और स्टीयरिंग वील को मोड़ना बहुत मुश्किल होता था क्योंकि यह बहुत भारी होता था । थोह्ड़ी सी भी बस कर्व को लग जाती तो फेल कर देते थे। यह मेरा भाग्य ही था कि उस दिन मेरी रीवर्सिंग इतनी अच्छी हुईं जो पहले प्रैक्टिस के दौरान भी कभी नहीं हुई थी। तीन दफा मेरी रीवर्सिंग करवाई गई और तीनों दफा परफैक्ट थीं। इंस्पेक्टर ने उसी वक्त पास कह दिया और मेरे मन का बोझ उतर गिया। VIKKI DUNTON ने मुझे वधाई दी और बस ले कर हम गैरेज की तरफ चल दिए। गैरेज में बस खड़ी कर के मैं घर आ गिया। घर आ कर चिठिआं देखीं तो मेरी पत्नी कुलवंत का लफाफा मिला जिस में उस की फोटो थी। फोटो मुझे इतनी अच्छी लगी कि देखता ही रह गिया। आज का दिन मेरे लिए बहुत अच्छा था। पता नहीं कितनी दफा मैंने फोटो देखी। फोटो के पीछे जनम तिथि भी लिखी हुई थी जैसा कि मैंने अपनी चिठ्ठी में लिखा था। दूसरे ही दिन मैंने स्पॉन्सरशिप फ़ार्म भरा और सॉलिस्टर के दफ्तर में चले गिया। सॉलिस्टर से स्पॉन्सरशिप फ़ार्म अटैस्ट करवाया और उसी वक्त पोस्ट ऑफिस चले गिया। पोस्ट ऑफिस में बैठ कर ही मैंने बीवी को खत लिखा कि वोह इस स्पॉन्सरशिप फ़ार्म से पासपोर्ट के लिए एप्लाई कर दें। पासपोर्ट बन जाने पर मैं इंडिया आ जाऊँगा।

हमारी सगाई बचपन में ही मेरे और कुलवंत के दादाओं ने एक कुएं पर बैठे बैठे ही कर दी थी, यह साल 1955 था। मैं सिर्फ बारह वर्ष का था और कुलवंत 9 वर्ष की थी। हुआ यूं कि मेरे दादा जी किसी काम के सिलसिले में जालंधर को जाय करते थे और रास्ते में जी टी रोड पर कुलवंत के दादा जी के कूंएं पर अक्सर पानी पीने के लिए ठहर जाते थे। एक दिन दोनों बज़ुर्ग अपने अपने पोतों पोतिओं की बातें करने लगे। बातें करते करते वहां बैठे ही उन्होंने हमारा रिश्ता पक्का कर दिया। घर आ कर जब दादा जी ने मेरे पिता जी को बताया तो वोह गुस्से में आ गए और झगड़ा शुरू हो गिया कि इतनी छोटी उम्र में उन्होंने किया कर दिया था। दादा जी ने भी गुस्से में आ कर घर छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया। आखिर पिता जी को भी हार माननी पडी और हमारी सगाई हो गई जो बारह साल तक चली क्योंकि 1967 में जा कर ही हमारी शादी हुई थी और इस बात का हमें फखर है कि बज़ुर्गों के किये इस रिश्ते से हमारा जीवन बहुत अच्छा गुज़रा और अभी तक गुज़र रहा है।

मैं निहाल और भट्टी तीनो पास हो गए थे और अब दो हफ्ते हम ने नए नए रुट ही देखने थे। यह दो हफ्ते हमारे मज़े के थे क्योंकि दिमागी टैंशन दूर हो चुक्की थी। हम दूर दूर फार्मों में चले जाते और वहां से ताज़ी सब्जिआं और आलू प्याज के बड़े बड़े बैग खरीद लाते। ऐसे ऐसे फ़ार्म हम ने देखे जिन पर जाने का ज़िंदगी में दुबारा कभी इतफ़ाक नहीं हुआ। मैं अब बहुत खुश रहने लगा था। हर वक्त पत्नी के खत का इंतज़ार लगा रहता। पता नहीं मुझे किया हो गिया था। यह दो हफ्ते पता ही नहीं लगा, कैसे बीत गए और मैं खुद ड्राइविंग करने लगा था । ड्राइविंग मुझे बहुत अच्छी लगती थी क्योंकि लोगों से अब कोई ख़ास वास्ता ही नहीं था। कंडक्टर घंटी बजाता और मैं चल देता। घर आता तो खत का इंतज़ार रहता। कुलवंत के डैडी ने पासपोर्ट के लिए एप्लाई कर दिया था। कुछ ही हफ़्तों में अर्धांगिनी का पासपोर्ट बन भी गिया था। हमारे खत धीरे धीरे बड़े होते जा रहे थे और कभी कभी मैं हफ्ते में दो खत भी लिख देता था। कुलवंत के खत भी पहले से बड़े होने लगे थे लेकिन मेरे खत तो ऐसे हो रहे थे जैसे मैं एक लेखक बन गिया था। उन दिनों एक नया पैन बाजार में आया था जिस में आठ रंगों की स्याही होती थी और मैंने एक खत को आठ रंगों और आठ पेजज़ में लिखा था। शादी के बाद जब एक दफा हम ने वोह खत देखे थे तो यह एक बहुत बड़ा बंडल बन गिया था और बहुत से हम ने फाड़ दिए थे। जवानी के वोह दिन।

चलता. . . . . . . .

4 thoughts on “मेरी कहानी 82

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह ही। आपने ड्राइविंग की परीक्षा पाक कर ली, यह आपके जीवन की बहुत सुखद घटनाओं में एक है, ऐसा मुझे लगता है। विवाह का समय भी पास आ रहा है। जैसा आपको अनुभव हुआ, ऐसा ही कुछ कम या अधिक सबके साथ होता है। सादर।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , धन्यवाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, आपके और भाभी जी के बीच हुए पत्र व्यवहार का हाल पढ़कर मजा आ गया. पहले प्रियतमा के पत्रों के इंतज़ार में जो मजा होता था, वह आज की मोबाइल बातचीत में कभी नहीं आ सकता.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      सही कहा विजय भाई . पत्र को इंडिया पहुँचने में एक हफ्ता लग जाता था और एक हफ्ता आने में .इस के बीच का समय इंतज़ार में बीतता था और यह बातें मोबाइल से कभी नहीं हो सकतीं .

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