लघुकथा

ध्यान- पूजा

साँझ के धुंधलके में..
“ध्यान-पूजा”

माँ को मुझसे ज्यादा भैया से लगाव था। किन्तु भाभी ने माँ से कभी ताल-मेल नहीं बिठाया। यह बात भैया भी जानते थे। लेकिन भाभी के जिद्दी व कर्कश स्वभाव के कारण उनसे कभी कुछ नहीं कह पाते। भाभी अपने को आधुनिक ख्यालात का मानती। कुछ समय के अंतराल से घर में दो बच्चे भी आ गए। घर हरा- भरा हो गया।
बड़ा ढाई वर्ष का रोहन और छोटी रम्या अभी छः महीने की ही थी। माँ ने बहुत मेहनत की दोनों बच्चों को सँभालने में, पर भाभी के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आया। रोज भाभी की जली-कटी, माँ को लेकर कहा-सुनी सुनने को टालने के लिए भैया ने पापा के सामने अपने अलग होने का फैसला रखा। पापा के बहुत समझाने पर माँ ने भी स्वीकृति दे दी। घर के आधे हिस्से में भैया-भाभी रहने लगे। पर भाभी इतने से भी न मानी।
उनका कहना था बच्चों को गँवार नहीं बनाना, गँवारों में रखकर। उन्होंने आँगन के बीच दीवार चुनवा कर अपना हिस्सा अलग कर लिया। राहुल और रम्या के लिए माँ का मन टूटता, पर भाभी उनको इधर नहीं भेजती। शाम को दिया बाती के बाद माँ रोज माला का जाप करती थी। राहुल जब साथ था, उनके ध्यान में व्यवधान करने पहुँच जाता था। इसलिए माँ रोज छत पर जाकर ध्यान करती थी।अभी भी माँ छत पर जी माला जाप के लिए जाती थी। हमारे पूछने पर कहती मुझे यही आदत हो गई है।
एक दिन माँ को बहुत देर हो गई छत पर, मेरा ध्यान गया तो मैं ऊपर देखने जाने लगी। पर मेरे क़दम यकायक आहिस्ता हो गए जब मैंने देखा माँ छत से झाँककर साँझ के धुंधलके में अपने पोते-पोती को निहार रही थी। मैं दबे पाँव वापस आ गई। उनके ध्यान-पूजा में व्यवधान का साहस नहीं था मुझमें।

अनिता