कहानी

कहानी : गीली रज़ाई

सर्दी का मौसम ! कानो को सन्न करती सर्द हवाएं !! अति शीतल जल ! एक दुसरे का दामन छोड़ने को डरती पलकें ! पेड़ों कि जड़ों की भाँती ऊष्मा धुंडने को मचलती हाथों की उंगलियाँ ! रह रह कर भूकंप सी कांपती टाँगे जमीं पर टिकने से बार बार मना कर दे रही थी की विभा ने कुर्सी ला दी ! फिर भी मुझे बुत सा खड़ा देख उसने कहाँ ” निचे शिगड़ी में आग जला रक्खी है फिर खड़े क्यूँ हो ? जरा सेक लो फिर जाना रजाई लेने ! अब उसके पास पैसे आ गए हैं तो रजाई भी बना ही ली होगी उसने ! उधार लिए पैसे भी वापस दे देगा तो इस मुसीबत में अच्छा ही होगा ! क्यूँ चिंता कर रहे हो ? ” जाड़ों में सुहानी लगती गर्मी की तरह कुछ हलकी डांट की गर्मी से भरी विभा की बातों से मैं कुछ होश में आया ! ऐसे भी मैं आज भी इस देश के पार्टी रोग से बचे हुवे बहुसंख्यक बेहद आम आदमी की तरह मितभाषी ही हूँ ! और पत्नी विभा भी बस्ती की अन्य आम पत्नियों की तरह जुझारू मिडिया कर्मी ही है !! इसीलिए इस संवाद का न मेरे लिए कोई महत्व था न उसके लिए ! लेकिन बच्चे जरुर कभी कभी गर्दन उठाकर हम दोनों की तरफ देख लेते ,जब भी हम दोनों के रिश्ते में कभी ऐसी गर्माहट आ जाती !!  ,बच्चे जरुर अपनी कद्रदानी का नमूना दिखाते फिर अपनी अपनी चिंताओं में मशगुल हम उनके इस कद्रदानी की कद्र करें या न करें !

आज ,बात कुछ और थी ! ऐसी की अगर मैं न गया तो शायद आज की रात बच्चों के लिए दिन की ही तरह किसी कहर ढाते जे. सी. बी.  के विकराल दांतों के बिच ही गुजरेगी  ! तो आज विभा की इस डांट पर मैं आग सकने बैठा की नहीं केवल इतना देखकर बच्चों की गर्दन यथावत नहीं हो पाई ! बल्कि आँखों की भौंवे कान्टोपी से बगावत कर उसे बिना हाथ से ऊपर उठाये मेरी और टुकुर टुकुर ताकने लगी ! और हमेशा की तरह मैं इन सब हरकतों से बेखबर किसी तरह अपने हाथों की उँगलियों से बिना कुर्सी पर बैठे आग की आंच लेने की चेष्टा में लगा रहा ! क्यूँ की अगर इस अंगीठी के बहकावे में आ गया तो फिर रजाई लाने के लिए इतनी रात गए इस ठण्ड में निकल पाना असंभव हो जाएगा यह मैं अच्छी तरह जानता था !
खैर किसी तरह उठा ! और उधर उन बड़ी बड़ी मुझे ताकती आँखों में मैंने निचे जलती आग की ठिठुरती लपटों की छवि देखि ! सहसा मेरी नजरे बच्चों की और होती हुई उनके पीछे ही दीवार के कोने में अपनी एक टांग पर खड़ी साईकिल नजर आने से पहले अचानक बच्चों की आँखों से गुजर गई होंगी ! उधर उनकी आँखों में हलकी मुस्कान से मेरे भी ओठों पर कुछ हलचल जरुर महसूस हुई थी ! लेकिन वक्त पर पहुंचना जरुरी होने के ख्याल ने मुझ में विभा को बताकर निकलने का तक सब्र नहीं रहा ,और मेरी हर चक्कर पूरा होने पर नपे हुवे रास्ते का मीटर आलार्म बजाने वाले पेडल करर्र्र्र………. तक्काक करर्र्र्र………. तक्काक  करर्र्र्र………. तक्काक के संगीत की वारंवारता को बढाते रहे ! क्यूँ की मुझे पता था कि रज़ाई साईकिल पर लादकर मुझे यही सफ़र पैदल तय कर के घर पहुंचना है ! और बड़ी सावधानी से पहुंचना है ! क्यूँ की रास्ते में जगह जगह छोटे छोटे मलबे के ढेरों में नालियों के पानी ने बसेरा कर रखा था और जो साइकिल पर भी मेरे अधनंगे पांवों को अपने दिनभर का हालचाल सुना रहे ही थे ! जिससे नयी रजाई को तनिक भी भीगने नहीं दूंगा ! ऐसे संभाल कर लाऊंगा  ! यह मेरा इरादा और भी पक्का होता जा रहा था !
“आओ ! आओ !! भैरूभाई  ! तुम्हारी रजाई तैयार है !”
मेरे साइकिल को खडी करने से पहले ही रुस्तम भाई बोल पड़ा ! और हाँ भाई ,तेरे बाकी के पैसे भी साथ ले जाना !
जैसे आज पूरी तरह से मेरे और मुझसे लिए कर्ज से वह हमेशा के लिए पिंड छुडाना चाहता हो ! मैं देख रहा था की वह मुझसे नजरें मिलाने से भी कतरा रहा था ! रहता तो वह मेरे ही बस्ती में था इतने सालों से , लेकिन मेरी मेहनत जरा जल्दी रंग ले आई थी ! दिल्ली के चुनावों में थोड़ी सी होशियारी ने मेरे झुग्गी के न सही लेकिन मेरे और मेरे साथ साथ रुस्तम गादिवाले की दूकान के भी अच्छे दिन ला ही दिए थे ! अरे जिगरी यार जो था अपना ! जो मुझे मिला वो उसे कैसे न देता ? उसके भी नमक का ना सही लेकिन कई गद्दों ,रजाइयों का कर्ज तो कभी था मुझपर ! वरना मेरे दो दो मासूमों को यमुना किनारे के आशीर्वाद की ठंडक से कैसे बचा पाता ?
मैं रुस्तम के साथ के अपने बीते दिनों को याद कर मेरे आठों की वो मुस्कान जो कुछ देर पहले मेरे बच्चे की आँखों से पैदा होने के बाद हत्या हुवे भ्रूण में बदल गई थी वह पुनर्जीवित हो एक किशोरी की तरह खिल गई थी की  अरे …..अरे अरे अरे ,,, रुस्तम के चिलाने की आवाज आई ….
यार भैरू , भैरू जरा गड़बड़ हो गई यार !
क्यों ? क्या हुवा बे रुस्तम ? अब देख यार, इस बार तेरी दूकान बच गई है तो ज्यादा अकड़ मत दिखा बे ! कुछ परेशानी है तो पैसे रहने दे लेकिन रजाई दे दे भाई ! बच्चों के ऊपर छत नहीं तो कम से कम रजाई ही सही ! चल ला  , रस्सी ला , और रजाई ले आ मैं साइकिल पर बाँध लूँ !
मैंने बिना उसे कुछ कहने का मौका दिए उस ठण्ड में ठिठुरती आवाज में भी सारा कुछ एक सांस में बोल देने के बाद आँख उठाकर उसको देखा तो रुस्तम आधी ख़ुशी आधा गम की तरह भाव लिए मफलर के पीछे छिपे चहरे से सिर्फ इतना ही कह पाया ” यार भैरू , ये …ये पैसे ले जा यार ! वो वो रजाई ,रजाई पता नहीं कैसे पूरी की पूरी गीली हो गई है यार ! पर तू फिकर न कर ,फिकर न कर !! अभी तो मेरे पास नहीं है लेकिन मैं जल्द ही तुझे दूसरी बना दूंगा ! और तब तक ….तब तक , ये ,ये ले ! ये तेरे दिए रजाई के पैसे भी तेरे उधार के साथ लौटा रहा हूँ !
मेरे हाथों की छोटी सी मुट्ठी में वो दो तीन रजाइयां आ जाए इतने पैसे ठूंस चूका था ! और मैं उस तीन तीन रजाइयों के पैसों से आज आसमान के निचे ठिठुरते मेरे बच्चों को ,विभा को कैसे ढक पाऊंगा ? यही सोचता हुवा बिना रजाई के भी साईकिल लिए पैदल ही चल रहा था !
कहानी -सचिन परदेशी ‘सचसाज

सचिन परदेशी

संगीत शिक्षक के रूप में कार्यरत. संगीत रचनाओं के साथ में कविताएं एवं गीत लिखता हूं. बच्चों की छुपी प्रतिभा को पहचान कर उसे बाहर लाने में माहिर हूं.बच्चों की मासूमियत से जुड़ा हूं इसीलिए ... समाज के लोगों की विचारधारा की पार्श्वभूमि को जानकार उससे हमारे आनेवाली पीढ़ी के लिए वे क्या परोसने जा रहे हैं यही जानने की कोशिश में हूं.

One thought on “कहानी : गीली रज़ाई

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम कहानी !

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