हास्य व्यंग्य

चारागाह तो पूरा देश है

दिल्ली के किसी पार्कमें एक गधा गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए मुलायम घास चर रहा था। गधे के घास चरने की स्टाइल बता रही थी कि वह दिल्ली का रहने वाला है। तभी रखवाले की निगाह बचाकर गांव से आया एक दूसरा गधा पार्क में घुस आया। आते ही उसने न इधर देखा, न उधर। मुलामय घास को किसी भुक्खड़ की तरह भकोसने लगा। यह देखकर पार्क के बीचोबीच में बड़ी शान से चर रहा दिल्लीवासी गधा ‘ढेंचू-ढेंचू’ की आवाज करता हुआ दूसरे गधे की ओर दौड़ा। एक बार तो लगा कि वह दुलत्ती झाड़ ही देगा, लेकिन पास जाकर वह गुर्राया, ‘अबे बेवकूफ! तू कहां से घुस आया। जल्दी से दो-चार गफ्फे मार ले और चलता बन। अगर गेटकीपर ने देख लिया, तो तेरी वजह से मुझे भी बाहर जाना पड़ेगा।’
बाद में आया गधा दीन स्वर में बोला, ‘भइया! बड़ी मुश्किल से कई दिनों बाद हरी और मुलायम घास दिखी है। आज तो पेट भर खा लेने दो।’
‘आज तो पेटभर खा लेने दो….बाप का माल है क्या?..’ दिल्लीवाले गधे ने हिकारतभरी नजरों से उसे देखते हुए कहा, ‘ठीक है, जल्दी से थोड़ी घास चरो और चलते-फिरते नजर आओ।’
कुछ देर दोनों चरने के बाद पार्क से बाहर आ गए। पार्क के साइड में बने फुटपाथ पर दोनों खड़े पगुराते रहे। थोड़ी देर बाद दिल्ली वाला गधा पंचम सुर में दुलत्तियां झाड़कर गाने लगा। गांव से आए गधे को पार्क की मुलायम घास अब भी लुभा रही थी। वह एक बार फिर थोड़ी घास खाने की फिराक में था। उसने दिल्लीवाले गधे के गाने में व्यवधान डालते हुए कहा, ‘घास कितनी मुलायम है। काश कि पूरे देश में ऐसे ही चारागाह होते, तो हमें चारा के लिए गली-गली भटकना नहीं पड़ता।’
गाने में व्यवधान पडऩे से झल्लाया गधा बोला, ‘अबे गधे! चारागाह तो पूरा देश है। देखते नहीं, इनसानों को। वे चरते तो अपने क्षेत्र में हैं, लेकिन पगुराने आते हैं दिल्ली। इनसानों के पगुराने के अड्डे हैं दिल्ली और राज्यों की राजधानियां। मजे की बात यह है कि ये लोग पगुराने के पैसे भी लेते हैं। इनमें होड़ इस बात की होती है कि कौन पक्ष में बैठकर पगुराएगा, कौन विपक्ष में। ये लोग जब चरकर अघा जाते हैं, तो ये देशी-विदेशी कंपनियों को चारागाह सौंप देते हैं चरने के लिए। ये कंपनियां गांव के गली-कूंचे से लेकर शहर के पॉश इलाकों में अपनी दुकान सजाकर बैठ जाती हैं। इन कंपनियों के भी कई गुट हैं, कई पार्टियां हैं, कई झंडे हैं। कुछ नेता नामधारी इंसान कभी इनको समर्थन देते हैं, तो कभी उनको।’
‘तब तो सभी इंसानों की मौज होगी। सभी चरते होंगे।’ देहाती गधे ने उत्सुकता जताई।
‘नहीं जी…गरीब कहे जाने वाले इंसान बेचारे मारे-मारे फिरते हैं। सुना है कि एफडीआई आ चुकी है। यह क्या बला है, मुझे नहीं मालूम। अपने देश के चारागाह को चरने के लिए अब विदेशी कंपनियां भी आ चुकी हैं। अब ये देसी-विदेशी कंपनियां मिलकर चरेंगी।’ इतना कहकर लयात्मक ढंग से दुलत्तियां झाड़कर दिल्लीवाला गधा फिर से गाने लगा। और देहाती गधा पार्क में घुसकर चरने लगा।

*अशोक मिश्र

अशोक मिश्र समाचार संपादक हिंदी दैनिक न्यूज फॉक्स 65 ए, नारायण जी भवन, सिविल लाइंस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

One thought on “चारागाह तो पूरा देश है

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा बहुत खूब ,एक दफा एक दफा ईस्ट इंडिया नाम की बिदेसी कम्पनी अपने गधे ले कर इंडिया को ऍफ़ डी आई लाइ थी और जब देखा कि घास अब है ही नहीं और खामखाह देसी गधे दुलत्ती मारने लगे हैं तो भाग खड़े हुए .अब तो भाई हज़ारों बिदेसी गधे इंडिया की हरी हरी घास चरने आ रहे हैं .बिदेसी गधे तो एक दिन चले जायेंगे जब इन का पेट भर गिया लेकिन देसी गधों के पास किया रहेगा .

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