गीतिका/ग़ज़ल

अक्सर मार देते हैं

लड़कपन को भी, जो दिल में है अक्सर मार देते हैं
मेरे ख़्वाबों को सच्चाई के मंज़र मार देते हैं

वफायें अपनी राह-ए-इश्क़ पे जब भी रखी हमने
हिक़ारत से ज़माने वाले ठोकर मार देते हैं

नहीं गैरों की कोई फ़िक्र, मैं अपनों से सहमा हूँ
बचाकर आँख जो पीछे से खंज़र मार देते हैं

कभी जब सांस लेती है मेरे एहसास की तितली
यहाँ के लोग तो फूलों को पत्थर मार देते हैं

ये लहरों के कबीले जुस्तज़ू में किसकी पागल हैं
पलट कर बारहा साहिल पे जो सर मार देते हैं

कभी तो खोदकर देखो ‘नदीश’ ज़िस्म की तुरबत
मिलेंगी ख़्वाहिशें हम जिनको अंदर मार देते हैं

— ©® लोकेश नदीश

One thought on “अक्सर मार देते हैं

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल !

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