कविता

कविता

वो हर पूर्णिमा को तोड़
घर का चुल्हा
गूँथ मिट्टी
बना देती
फिर से नया
लीप चौके को
बना देती
मोर चिड़ियाँ
छिपा लेती
नैनो से सिम रहे
अश्रुओं को
करती पुत्र पति के
सुख की कामना
पुकार लेती
काँपते होंठों से
एक छुपा सा नाम
वो चाहत ना पा सकती
ना भुला सकती
आने के बाद
ससुराल की दहलीज़ मे
महबूब की निशानियाँ
गले की गानियाँ
पायल के बोल
कितना कुछ और
चुल्हे के नीचे
दिया दबा
लीप कर फिर
दिया नया बना
अब उठती
जब भी हूक
चुल्हे को गिरा
मन बहला लेती है
ये औरत ही कर सकती है
चाहे वो ससी या सोहनी हो
सास या बहू हो
क्या है उसके
अन्तर्मन मे
ये एक रहस्य …!!

— रितु शर्मा

रितु शर्मा

नाम _रितु शर्मा सम्प्रति _शिक्षिका पता _हरिद्वार मन के भावो को उकेरना अच्छा लगता हैं

One thought on “कविता

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

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