कविता

तजुर्बा

मेरी कविता नही करती
सामाजिक सरोकार की बात
ये नही ढूँढती
आर्थिक समस्याएँ
बढ़ रहे चोर
काले सफेद या और

मेरी कविता ने नही देखा
ढ़ाबे पर
बर्तन धोता
नन्हा बच्चा

ना तजुर्बेकार है
मेरी कविता
वो अभी भी
करती है
उस निगाह की बात
जो मनचली
तितली के पीछे
उडती फिरती है ..!!

— रितु शर्मा

रितु शर्मा

नाम _रितु शर्मा सम्प्रति _शिक्षिका पता _हरिद्वार मन के भावो को उकेरना अच्छा लगता हैं

One thought on “तजुर्बा

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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