ग़ज़ल
वो मुझसे पूछता है कि ठिकाना है कहां मेरा,
कहा मैंने कि रहता था पहले दिल जहां मेरा
सरहदों में नहीं तुम बांट सकते सल्तनत मेरी,
जहां तक भी नज़र जाए है उतना आसमां मेरा
सज़ाएदार हो तजवीज़ अब मेरे लिए शायद,
खफा लगता है मुझसे आज मीर-ए-कारवां मेरा
जिसे मैंने बचाया था दुनिया भर की गर्दिश से,
मिटाने पर आमादा है वही नाम-ओ-निशां मेरा
और ज्यादा निखर जाता है सोना आग में जलके,
ऐ मुश्किल वक्त तू भी शौक से ले इम्तिहां मेरा
सुखनवर तेरी महफिल में यूँ तो हैं बहुत लेकिन,
मुख्तलिफ है ज़माने में अंदाज़-ए-बयां मेरा
— भरत मल्होत्रा