कहानी

हिरनी

एक दिन एक हिरनी जंगल में अपने झुंड से अचानक बिछड़ जाती है। घबराई हुई, डरी हुई, बेतहासा दौड़ते-दौड़ते वह नन्हीं हिरनी जंगल के उस छोर पर आ खड़ी होती है जहां से मनुष्यों की बस्ती यानि की फ़सली मैदानी भाग शुरू होता है। नया दृश्य देखकर वह और भी बदहवास हों जाती है और अपनो से मिलन को आतुर हों इधर उधर कुलांचे मारने लगती है। वह व्याकुल हिरनी हांफती हुई थकी सी, अपने जंगलों से सरककर खेतों में पहुँच जाती है। फसलों से लहलहाते हुए हरे-भरे खेतों को आठवें आश्चर्य की तरह देखती है।

चिंहुक-चिहुंक कर जंगलों मेँ वापसी के लिए पैरों को आगे बढ़ाती है और पहली बार खेतों की मुलायम पत्तियों का स्वाद चखती है। उसका जंगल उससे ओझल हो जाता है। कुछ दिन तो उसका अकेलापन इधर-उधर फसलों के साथ गुजर जाता है पर एक दिन गायों और बछड़ों को देखकर उन्हें ही अपना झुण्ड समझकर, उनके करीब पहुँच जाती है। अपनों जैसा न पाकर डर कर फिर से खेतों में भाग जाती है। इसी दौरान चरवाहों की नजर उसपर पड़ जाती है और गाँव में हल्ला हो जाता है कि एक खूबसूरत हिरनी बहककर खेतों में आ गयी है। यह खबर सुनकर शिकारियों के मन में लालच तो बच्चों में खुशी दौड़ जाती है।

गाँव की हरएक नजर उसे अपने-अपने अनुसार ढुढ़ने लगती है। किसी की नजर में प्रकृति की सुंदरता, किसी में उसे पालने का वात्सल्य तो किसी की नज़रों में उसे दबोच लेने की मादकता झलक जाती है। साख से अलग हुआ पत्ता फिर डाली से कब जुड़ पाता है, कुछ ऐसा ही हुआ उस भटकी हुई हिरनी के साथ। शिकार हो जाती है मानव की हवस और भूख में। वह मादक शिकारी उसे अपने आलीशान बैठक में सजा देता है, जिसमे मै भी अपने एक मित्र के साथ मित्रता निभाने के लिए पहुँच गया था। जहाँ वासना जीत गयी थी और वात्सल्य हार गया था।

बिछडना ही था उसके भाग्य में और नहीं मिल पाई वह हिरनी अपने झुण्ड से। जंगल की प्यास खेतों में आकर दम तोड़ गई। जहाँ जंगली जानवर नहीं अपितु अतिशय खतरनाक इंशान अपना घर बनाकर रहता है। टंगी हुई है आज भी अपने मृगछाले के साथ उस दयाहीन इंशान के घर/दीवार पर मानों मरणोपरांत उसे सम्मानित किया गया है। जहाँ उसके मृगछाले के नीचे शिकार की तारीख और शिकारी का नाम भी लिखा हुआ है। जिसे देख मैंने यूँ ही पूछ लिया आप शिकार भी करते हैं क्या?, उसकी भौंहें तन जाती हैं मानों मैंने उसके सम्मान पर प्रश्नचिन्ह लगाने का दुष्कृत्य कर दिया है। उसके तेवर से लगा कि वह मेरा भी शिकार करके उसी दीवार पर टांग देगा।

खैर, एक कुटिल मुस्कान उभरी उसके खरबचड़ें चेहरे पर और उसने बड़े शान से हमें बताया कि जंगली जानवरों का शिकार करने में मजा आता है जनाब। बहुत नुकशान भी तो करते हैं हमारे फसलों का और जंगलों का राजा बाघ तो हमारे मवेसीयों को जीने नहीं देते। हर साल कइयों मवेसी मारे जाते हैं जंगली शेरों द्वारा। मैं भी कहाँ चुप रहने वाला था! शिकारी पर शब्दों का एक बाण मैंने भी चलाया, “ महोदय, आप के बैठक में एक भी शेर का मृगछाला तो दिखता नहीं, आप शेरों का शिकार क्यों नहीं करते, बेचारी हिरानी का?!”

वह खीझकर बोला एक बार करने गया था पर मेरी बंदूक का निशाना चूक गया और मै खुद उसका शिकार होते होते बच गया था। गंभीर रूप से जख्मी हो गया था। गाँव वालों की मदत से जान बची थी। तभी से छोटे-मोटे शिकार ही करता हूँ जिसका मांस खाने में मजा आता है और चमड़ा सजाने में। मैंने कहाँ जंगली जानवरों का शिकार करना गुनाह है, जंगल की संपदा हमारे जीवन के लिए जरुरी है। उपदेश सुनकर वह और भी चिढ़ गया और हम उसकी बैठक से हिरनी को देखते हुए रुकसत हो गए।

— महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

2 thoughts on “हिरनी

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कहानी !

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद आदरणीय विजय सर

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