राजनीति

राष्ट्रवाद सिर्फ तिरंगाई दर्शन नहीं

207 फीट के तिरंगे को ही राष्ट्रवाद बताना संकीर्णता ही है. या फिर मुंह पर तिरंगा का लेप करके कहना कि यही राष्ट्रवाद है! नहीं ये सत्तावाद हो सकता है! रवींद्रनाथ टैगोर ने मुसोलिनी और हिटलर के समय राष्ट्रवाद की जितनी भंयकर आलोचना की उससे भी सहमत हुआ जा सकता है. लेकिन कहीं ना कहीं एक बड़ा सवाल तो है ही कि जब जमीन का भूखंड एक सीमा में बंध गया है और जिसके नागरिक (बांशिदे) भारतीय कहलाते हैं. तो फिर उन्हें एक साथ क्यों नहीं रहना चाहिए. तिरंगे को क्यों ना ऐसा कैनवास बनाया जाए जिसके नीचे मुसीबत के वक्त पूरा देश आ सके और किसी भी परिस्थित में चीजों का सामना एक साथ मिलकर कर सके.

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आलोचना होनी चाहिए होती भी रही है. हिंदू राष्ट्रवाद की भी होनी चाहिए और होती रही है. होती रहनी चाहिए. लेकिन भारत जैसे कमाल के वैविध्य वाले देश (आपके अनुसार) में क्यों ना तिरंगे को सबके लिए समान (इतिहास) की तरह बनाया जाए. पूरी दुनिया के राष्ट्रवाद से भारत का राष्ट्रवाद अलग है. सहमत हूं! अ्मेरिका की तरह नूडल्स से लेकर व्हाइट हाउस तक हमारे राष्ट्रीय झंडे का उपयोग भी नहीं होता. जर्मनी की तरह हर वाक्य में भारतीय भी नहीं बोला जाता. राष्ट्रवाद की अवधारणा पहले चाहे जो भी रही हो जितनी भी आलोचना की गई हो लेकिन वर्तमान के आतंकवादी और वैश्विक युद्ध के संकटों के समय राष्ट्रवाद पूरी दुनिया में खुद के देश को या फिर राष्ट्र को सुरक्षित रखनेे की एक कोशिश भर है.

जहां तक भगत सिंह की बात है तो विश्व बंधुत्व की बात तब कर सकोगे जब भारतीयत होने की बात कह सको. बकौल अरूंधति राय ‘मुझे भारतीय कहलाने पर शर्म आती है’. बकौल जेएनयू छात्र- ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह.’ यही अगर होता रहा फिर हम खालिस्तान की मांग को, कश्मीर की मांग को, केरल की मांग को, वोडोलेंड की मांग को, महाराष्ट्र की मांग को कैसे रोकेंगे. हमारे पास कोई आधार नहीं है. संविधान ने भले ही कहा हो कि राष्ट्रवाद कोई पवित्र अवधारणा नहीं है लेकिन संंवैधानिक निर्माताओं ने भारत में तमाम राष्ट्रों की मांग को रोकने के उद्देशय से एक तिरंगे की कल्पना को जन्म दिया था.

तो सरल शब्दों में कहना ये है कि राष्ट्रवाद की अवधारणा को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या फिर हिंदू राष्ट्रवाद की ओट में खारिज करना ठीक नहीं है. देश के लोगों के पास कोई और चारा नहीं है. रामलीला मैदान में अन्ना टाइप आंदोलन करने का. बाकी, सोवियत संघ में राष्ट्रवाद की अवधारणा का कमजोर पड़ जाना भी एक वजह थी जिससे सोवियत संघ के टुकड़े हो गए।

— चमन कुमार मिश्रा
नोएडा (उत्तर-प्रदेश)

2 thoughts on “राष्ट्रवाद सिर्फ तिरंगाई दर्शन नहीं

  • जवाहर लाल सिंह

    बहुत सलीके से सम्खाने की कोशिश की है आपने राष्ट्रवाद को समझाने की … सादर!

  • विजय कुमार सिंघल

    विचारणीय लेख !

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