गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

 

हमारे मुल्क की दिखती हैं कुछ बेकार तस्वीरें
बदन दिखला रही खुलकर सरे-बाजार तस्वीरें

कलेजा हो गया छलनी मिरे आँसू निकल आये
जहाँ में घूम कर देखा बहुत लाचार तस्वीरें

कभी हासिल नहीं होती फ़क़त दो जून की रोटी
पहन लेती हैं मरने पर गले में हार तस्वीरें

जरा सी सोच को अपनी बदलना आदमी को है
बदल सकती नहीं है मुल्क की सरकार तस्वीरें

हमारी सादगी को कैमरा कब कैद कर पाया
सभी कहते हैं आती ‘धर्म’ की बेकार तस्वीरें

— धर्म पाण्डेय

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बेहतर ग़ज़ल !

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