कविता

नैनों के पिटारे में

नैनो के पिटारे में****

नैनों के पिटारे में
कैद कर रखे है
कितने ही अरमान
कितने ही अहसास
कितनी ही आजमाइशे
कितनी ही ख्वाहिशें
चाहती है बहार भी अब
खोल दूँ किवाड़ को
फैंक दूँ उजाड़ को
बोल दूँ खामोशियों को
छोड़ दूँ उदासियों को
कितनी सस्ती लगती है न….
ये बहती पवन
ये घुमड़ता गगन
ये बलखाता समन्दर
सहमाता सा अंदर
वो कतार पंछियो की
वो चमकार रश्मियों की
हो सके तो समझा देना मुझे भी
क्यों थी अब तक कैद की वजह
क्यों है अब परवाज की वजह
काश समझा सको
मेरे अनंत विस्तार को
जो खोजता है पूर्णता
जानते हुए भी के
कुछ भी नहीं पूर्ण
कुछ भी सम्पूर्ण…
लेकिन फिर भी
एक अधूरी चाह में
भटक रही है
ख्वाहिशों की बारिशें
जाने कब बरसेंगी अपनी ही
चाह में…
कब बदलियों के साथ मिलकर
मुझे भिगाएंगी…
जाने कब..
जाने कब..??
हाँ मगर अभी
कुछ नया सा करना है
अपने बंद किवाड़ो को
हल्की सी छुअन से खोलना है…
हा अभी तो जरा सा
खोलना है मन को
के हाँ …जरा सा बिखेरना है हवाओं में
उड़ा देना है …
के हाँ जरा सा जी लेना है
उन हवाओ में…
उन हवाओं में….

निर्मला 'मुस्कान'

निर्मला बरवड़"मुस्कान" D/O श्री सुभाष चंद्र ,पिपराली रोड,सीकर (राजस्थान)