कहानी

डुप्लीकेट साड़ी

किसी कपड़े की क्या कीमत हो सकती है इसका अंदाज़ा लगाना नामुमकिन है। विशेषकर हमारे यहाँ; जहाँ हर तबके के लोगों के लिए कपड़े की दुकान मौजूद है। आश्चर्य न होगा अगर शोरूम में बिकनेवाली 1500 की शर्ट सड़क छाप ठेले पर 150 की मिल जाए। यह जानते हुए भी कि किसी भी कपड़े की कोई भी कीमत हो सकती है, हम दुकानदार से मोल-भाव ऐसे करते हैं जैसे उस कपड़े की सही लागत दुकानदार को नहीं बल्कि हमें ही पता हो।

ऐसा करने के पीछे प्राय: हमारी एक ही मंशा रहती है कि हम कम से कम दाम में किफायती सामान खरीद सकें। अपनी दादी-नानियों की भाषा में कहें तो “ठगा न जाएं”।

मैंने बड़ी मशक्कत से एक बड़ी ही खूबसूरत नीली साड़ी खरीदी थी। उस साड़ी को खरीदने के लिए मैंने अपने घर का बजट डाँवाडोल कर दिया। अपनी सहेली श्रेया से उधार लिया। तूफानी बारिश में भीगती हुई कीचड़ से लथपथ मैं टूटी चप्पल के साथ उस दुकान पर उस साड़ी के सेल के आखिरी दिन पहुँची थी। मैंने दुकानदार से बहुत मोल-भाव किया था ताकि मुझे वह साड़ी सबसे कम दाम में मिले। इतने कष्टों से पार पाकर ही मुझे वह साड़ी नसीब हुई थी।

मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की हो रही थी कि यह साड़ी मुझे केवल साढ़े तीन हज़ार में मिली। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी मार्केट सर्वे बेकार नहीं गई है और इससे कम दाम में इस साड़ी का मिलना नामुमकिन है। इसी तसल्ली ने उस साड़ी की खुशी मेरे लिए दुगनी कर दी।

साड़ी तो मैंने खरीद ली। यों तो मैंने यह साड़ी देवर की बारात में पहने के लिए सोचकर ली थी। मगर उसकी तो अभी शादी की बात केवल पक्की हुई है। जाने कब सगाई की तारीख निकलेगी। फिर कब शादी की तारीख निकलेगी और फिर कब बारात निकलेगी? इस साड़ी को पहनने के लिए इतनी प्रतीक्षा मेरे बस के बाहर थी। तो…अब सांस रोके इसकी प्रदर्शनी का अवसर ताकने लगी। जल्दी ही वह अवसर भी आया और मैंने आड़े हाथों लिया।

***

हमारी कॉलोनी का गार्डन बहुत खूबसूरती से सजाया जा रहा था। सुबह से ही हम सब अपनी-अपनी बालकनियों और खिड़कियों से झाँक-झाँकर गार्डन को दुल्हन की तरह सजते हुए देख रहे थे। हम सब; मतलब कॉलोनी की सभी औरतें। नहीं मैंने किसी को झाँकते नहीं देखा मगर जब मैं बार-बार देख रही हूँ तो बाकी भी अपनी उत्सुकुता थोड़े ही रोक पाई होंगी। आखिर हम सब हैं तो एक ही थाली की चट्टी-बट्टी। मेरा मतलब एक ही कॉलोनी की सहेलियां।

वाह क्या खूबसूरत गुब्बारों की लड़ी तैयार की गई है। उससे भी खूबसूरत तो वह गेट है जो इन लड़ियों से बनाया गया है।  वाह-वाह। बढियां डेकोरेटर चुना है शानू ने। इतनी शानदार पार्टी में मैं मामूली तो नहीं दिख सकती और खास दिखने के लिए खास कपड़े, गहने और मेकअप….। वाह-वाह, आज निकलेगी मेरी नीली साड़ी और वह सब चीज़ें जो मैंने शहर के कोने-कोने से चुन-चुन कर खरीदी हैं और अब तक सीप में मोती की तरह संभाल कर रखी थीं। देखना पार्टी में सबको चकाचौंध न कर दिया तो कहना।

लेकिन मुझे इसे गंभीरता से लेना चाहिए। पार्टी के लिए अकेली मैं ही तो तैयार नहीं होने वाली। उसमें तो शानू, विनीता, शिखा, ईप्शा, बरनाली, हेमा, सुष्मिता और तो और श्रेया भी आनेवाली है। और सबकी सब चंट औरतें दिन-रात शॉपिंग करती हैं। बाज़ नहीं आती हैं। फिर इन सबको भी तो सबसे अच्छा दिखना होगा। मुझे सबसे अच्छा दिखने के लिए कुछ बढ़ियां पहनना होगा और मेरी नीली साड़ी से बढ़ियां तो कुछ हो ही नहीं सकता। किसी की भी पार्टी ड्रेस मेरी नीली साड़ी का मुकाबला नहीं कर पाएगी। देख लेना। सबको ऐसे चित करूँगी जैसे टेन-पिन-बॉउलिंग के खेल में मैंने एक साथ दसों पिन उड़ा दिए हों।

लेकिन न तो बॉउलिंग का खेल आसान होता है और न हि साड़ी पहनना। साड़ी पहनने के लिए, मेरा मतलब जिस सलीके से शाम की पार्टी में पहनना है उसी सलीके से साड़ी पहनने के लिए सबसे पहले तो साड़ी पहनने वाली को खूबसूरत दिखना होगा। मतलब पार्लर जाना होगा।

बगल वाले पार्लर में तो कॉलोनी की आधी औरतें मिल जाएंगी। मनोविज्ञान तो यही बताता है। मॉल जाऊँ? मॉल के पार्लर की तो विनीता ने मेंमबरशिप ली है, तो वो ज़रूर वहां मिलेगी। कहाँ जाऊँ? शानू ने तो पार्लर वाली को घर बुलाया होगा, वह पार्टी की तैयारियों में व्यस्त ठहरी। लेकिन मैं क्या करूँ?

चाणक्य की इस नीति पर मेरा अटल विश्वास है कि किसी भी कार्य की सफलता तक उसे गुप्त रखा जाना चाहिए। फिर मैं इन पार्लरों में जाकर अपना स्टाइल पहले ही कैसे सबको दिखा दूँ? इसलिए अंत में मैंने शानू की पार्लरवाली को फोन कर दिया कि वह शानू के पास जाने से आधे घंटे पहले मेरे पास आ जाए।

एक काम हुआ। अब मैचिंग पर्स, मैचिंग ज्यूलरी, मैचिंग सैंडल, मैचिंग बिंदी, मैचिंग रुमाल और फिर कॉन्ट्रास्ट चूड़ियां, कॉन्ट्रास्ट मेकअप और कॉन्ट्रास्ट नेलपेंट। उफ्फ्फ शाम हो गई।

अब तो गार्डन में बुफे के टेबल भी सजने शुरू हो गए। कहीं देर न हो जाए। मुझे इस पार्लरवाली को कहना पड़ेगा कि जूड़ा न बनाए नहीं तो हेयर पिन खोंसते-खोंसते आधी रात कर देगी। खुले ही छोड़ दे।

उसको भी क्या दिक्कत थी। फटाफट मेकअप कर निकल ली। उसके जाते ही मैंने खिड़की से झाँका। इक्के-दुक्के लोग आ रहे थे। फिर अपने आप को आइने में निहार रही थी। क्या मैं अच्छी लगूंगीं। साड़ी की प्लेट्स खिल के सामने बिखर रही थीं। वाह-वाह। मन खुश हो गया। आखिर पार्लरवाली भी तो मन भरकर तारीफ कर के गई है इस साड़ी की। और फिर उस दुकानदार ने भी तो कहा था कि यह इतनी अच्छी साड़ी है कि गर्म केक की तरह बिक गई। यह सब याद कर मुझमें आत्मविश्वास का संचार हुआ जैसे एसी की ठंडी हवा का हो रहा था।

इसी आत्मविश्वास के साथ मैं नीचे गार्डन में चल रही पार्टी में गई। कुछ सखियां मौजूद थीं, कुछ आनेवाले थीं। उन्हें हाथ हिलाकर और उनकी आश्चर्य से ऊँची होती भौहों की तारीफ बटोर मैं शानू के पास पहुँची। उसे बेटे की सगाई की बहुत सारी बधाईयां देकर, अपनी ग्लॉस वाली लिप्स्टिक से ढेरों मुस्कान बिखेरकर और चमचमाते नेल पेंट वाले हाथ उससे मिलाकर; खाट-खाट-खाट-खाट सैंडल बजाती हुई मैं स्टेज पर ऐसे चढ़ी कि लोगों को लगे मेरी सैंडल सीढियों से कोई पुरानी दुश्मनी निकाल रही हो। और इसी बहाने मेरी हाई हील सब देख सकें।

लडके-लड़की को गिफ्ट पकड़ाकर और ढेरों आशीर्वाद देकर मैं उसी अदा से नीचे भी उतरी ताकि जो छूट गया हो इस बार मेरी सैंडल देख ही ले।

अब तो मैं सीधे तीर की तरह निशाने पर पहुँची याने सखियों के झुंड में ताकि अपनी तारीफ सुन सकूँ। कहीं विनीता के ईयर रिंग की तारीफ हो रही थी तो कहीं मार्केट में आए नए आईशेडो के रंग की जो शिखा ने लगाए थे। बरनाली के बैंककॉक वाले पर्स की भी तारीफ हो रही थी और ईप्शा के हेयर स्टाइल की भी। लेकिन अब तो मेरी नीली साड़ी की वाह-वाह हो रही थी। होनी भी थी इतनी बढियां जो थी। उस पर दाम सुनकर तो सबके होश उड़ गए। किसी ने नहीं माना कि यह पंद्रह हज़ार से कम की भी हो सकती है। मेरी खरीदारी की कुश्लता की सब दिवानी हो गईं।

अब मेरी निगाहें हेमा, सुष्मिता, शिवानी, श्रेया और संघमित्रा को ढूँढने लगीं ताकि कुछ और प्रशंसा बटोर सकूँ। इतने में काली सफेद पोशाक पहने हुए एक वेटर ट्रे में ढेर सारी कोल्ड्रिंक्स की बोतलें ले आया। हम सबने अपनी-अपनी पसंद की कोल्ड्रिंक्स उठाई और जैसे ही बातें जारी रखने के लिए मुस्कुराती हुई एक-दूसरे की ओर मुड़ी कि वेटर के पीछे से एक वेट्रेस ट्रे में भुने हुए बेबी कॉर्न और चटनी लेकर प्रकट हुई। उसकी ट्रे और बेबी कॉर्न या चटनी तो मैं क्या देखती, उसकी साड़ी देखते ही मेरे होश फाक्ता हो गए; चेहरे से मुस्कान रफू चक्कर हो गई और मेरी हालत भुने हुए बेबी कॉर्न से भी बदतर हो गई। मैंने कोल्ड्रिंक को कस कर थाम लिया कि कहीं गिर न पड़े। मेरी सहेलियों में से भी एक-दो ने मेरे कंधे पर सांत्वना से हाथ रखा, इस आशा से कि कहीं मैं गिर न पडूँ। मेरी आँखें छलाछलाने को हो उठीं क्योंकि उसने…उसने…उसने….भी वैसी ही नीली साड़ी पहनी थी, जिसमें चमक नहीं थी और कपड़ा कहीं खुरदरा था, मगर केवल पास से; दूर से तो मेरी जैसी ही थी।

उफ्फ। उस झुंड की हर औरत मेरी हालत समझ सकती थी। दरअसल दुनिया में शायद ही कोई ऐसी औरत होगी जो यह न समझ सके कि इस वक्त मुझपर क्या गुज़र रही थी। सबने समझाया भी कि वह तो डुप्लीकेट है, तीन सौ-चार सौ से अधिक की नहीं है।

मैंने उससे नज़र फेरनी चाही तो देखा पार्टी में वैसी ही आठ-दस वेट्रेस नीली साड़ी पहने और ट्रे लिए घूम रही थीं। उफ्फ…उफ्फ। सखियों ने सांत्वना से मुझे देखा। उनकी सहानुभूति और बर्दाश्त न करते हुए मैं घर को चल दी। सीढियों से जल्दी-जल्दी ऐसे पैर पटकती हुई ऊपर गई जैसे मेरी सैंडल मेरा गुस्सा सीढियों पर उतार रही हो।

मैं आइने के सामने पीली साड़ी में खड़ी थी। अब मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि मैं कैसी लग रही हूँ या मेरी ज्यूलरी, सैंडल, पर्स मैचिंग हैं या नहीं। और वह नीली साड़ी…..वह नीली साड़ी बिस्तर पर फेंकी हुई थी जिसे मैं अब जीवन में दुबारा कभी नहीं पहने वाली।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com

One thought on “डुप्लीकेट साड़ी

  • हा हा हा .

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