हास्य व्यंग्य

भारत धार्मिक हो गया!!

प्राथमिक कक्षाओं से अब तक यही पढ़ता-पढ़ाया आया हूँ और जैसे कि सारा संसार जानता है-‘भारत अनेक धर्मों का एक धर्मनिरपेक्ष देश है।’ यह वाक्य पूरे विद्यार्थी जीवन में मेरे कानों में अमृत घोलता रहा है। आजतक यह शरद जो अपने जीवन के पचास वे शरद’ की सीमा रेखा को छू रहा है इस वाक्य को सुन-सुन कर बड़ा भाग्यशाली समझता रहा। कई बार तो मैंने यह भी महसूस किया है कि राम-कृष्ण-शिव जी ईसा मोहम्मद बुद्ध और महावीर एक साथ मेरे सिर पर सवार हो जाते थे। जब भी इन महापुरुषों से संबंधित कोई तिथि या तारीख कैलेंडर पर आती मैं अपने को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने के लिए उनके धर्म से जुड़ी पोशाके पहन कर आनंद मनाता था। बस महावीर जी इसके अपवाद रहे। प्रबुद्ध पाठकों को कारण बताने की आवश्कता नहीं। वे समझ सकते हैं-क्योंA इन धर्मों के संबंधित मित्रों को विशेष अवसरों पर शुभकामना संदेश आदि भेजने पर कुछ समय के बाद एक विचित्र से नशे की अनुभूति में डूबा रहता था कि इस वर्ष का नोबल पुरस्कार मुझे ही मिलने वाला है। शाम को जब समाचार देखता और सुनता तो मेरा भ्रम टूटता कि मेरे जैसे देश के करोड़ों लोग इस लाईन में सुबह से खड़े हैं। जिनमें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति महोदय का नाम भी शामिल है तो मैं आँखों में आँसू भर मन मसोस कर रह जाता था कि -हाय हुसैन हम क्यों न हुए।

हमारा देश धर्मनिरपेक्ष देश है। इस पर न कोई मतभेद है और न ही मनभेद। कारण साफ है क्योंकि प्रत्येक धर्म से संबंधित विशेष दिनों पर सरकार छुट्टी की घोषणा करती है। अब वह दिवस मनाना या न मनाना जनता पर निर्भर है। कुछ लोग मनाते भी हैं। मेरी तरह। ये सरकार की विवशता हो सकती है देश में। यदि छुट्टी न दे तो बेचारी सांप्रदायिक सिद्ध हो जाएगी। अब किस सरकार में यह कि यह मजाल है कि वह अपने लिए कब्र खोदेA जैसे ही संबंधित धर्म के महापुरुष या देवी-देवता जुड़े किसी विशेष प्रसंग से छुट्टी घोषित होती हैA क्रूर से क्रूर सरकार भी धर्म निरपेक्ष हो जाती है। मुझे तो डर लगने लगा है कि कहीं धर्म निरपेक्ष छबि में चक्कर में कल को ऐसा ना हो कि उस महापुरुष के मित्रों-संबंधियों नाती-पोतो और से जुड़े दिनों पर भी छ्ट्टी घोषित होना आरंभ ना हो जाए। मेरे मित्र और रिश्तेदार मुझसे प्रायः बड़े खुश रहते हैं। उन्हें मुझमें किसी महापुरुष के लक्षण दिखते हैं और भविष्य में मिलने वाली दो-दो छुट्टियाँ। एक मेरी पुण्यतिथि की और दूसरी जयंती की।

अब मेरा देश धर्मनिरपेक्ष है इसलिए यहाँ प्रत्येक त्यौहार बड़ी धूमधाम और उत्सह से संपन्न होते रहे हैं। जब मैं छोटा था तब अलग-अलग त्यौहारों पर मढ़ई-मेले लगते थे। धार्मिक गीत बजते थे। सांस्कृतिक और लोक नृत्य हुआ करते थे। संबंधित धर्मों सिद्ध पुरुष प्रेम और शांति के संदेश सहृदयों को सुनाते थे। अब वैसा नहीं होता। उसके भी कारण हैं। लोग अब सभ्य-शिक्षित तथा समझदार हो गए हैं। आधुनिक हो गए है। पुरानी परंपराओं को मानकर वे अवने वे धर्म को नीचा दिखाने के पक्ष में नही रहते। इसलिए अब वे उत्सवों पर शराब पीते हैं। जुआ खेलते हैं। ज़ोरदार डीजे बजाकर नाचते और हुड़दंग मचाते हैं। लड़कियों को छेड़ते हैं। उनकी समझ में धर्म का सही मर्म जो आ गया है। आजादी का अर्थ समझ में आ गया है। एम्बुलेंस में पड़ा रोगी , दम तोड़ दे। यातायात रुक जाए। दंगा हो जाए। कोई फर्क नहीं पड़ता। बस धर्म पर आँच नहीं आनी चाहिए। इन दिनों धार्मिक उत्सवों की विशालता का पता उसमें शामिल होने वाली धर्मपरायण जनता से नहीं चलता। पुलिस और पॅरामिलटरी फोर्स को देखकर चलता है। धार्मिक जुलूस देखकर ऐसा लगता है मानो पहलवानों की सेना दंड पेलने जा रही है या युद्ध लड़ने।

सर्वधर्म समभाव मेरे देश का प्राण तत्व रहा है। लेकिन आज सारे धर्म मिलकर उसके प्राण ही निकाल लेने पर आमादा हैं। विभिन्न धर्मों ने इस देश को भक्त दिए और उन भक्तों ने देशकाल की सीमा से परे जाकर इस संसार को मानवाता , प्रेम और परोपकार का पाठ पढ़ाया। भक्ति एक तपस्या है, जो ध्रुव, प्रह्लाद, शबरी, मीराबाई, तुकाराम और नामदेव जी ने की थी। भक्ति एक जुनून और पागलपन है जिसे देश के लिए सुभाष, भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल और अनेक क्रांतिकारियों ने की थी और जिसे सीमा पर खड़े हमारे लाखों जवान हर प्रहर कर रहे हैं। भक्ति और धर्म किसी अधिकार या आरक्षण का नाम नहीं। जिसके प्रमाणपत्र बाँटे जाते हैं। त्याग और समर्पण ने मानव को भक्त और भक्तों को भगवान की आसंदी पर स्थापित किया है। फिर चाहे वह पिता की आज्ञा के लिए गद्दी का मोह त्याग कर जंगल में भटकने वाला राम हो या राजसुख को त्याग कर मानवता को राह दिखाने के लिए तपस्या में लीन होने वला सिद्धार्थ या महावीर हो।

किंतु आज भक्ति और धर्म की परिभाषा बदल गयी है। अब भक्त बड़े भयानक, खुर्राट और खतरनाक हो गए हैं। पहले भगवान भक्तों के प्रेम में हुआ करते थे। अब उनके बाहुबल में कैद होकर रह गए हैं। इस देश में आप शायद भोजन-पानी के बिना जी सकते हैं धर्म के बिना नहीं। पैदा होते ही धर्मनिरपेक्ष भारत में बच्चा किस ब्रांड का है तय हो जाता है। आपका मानवा होना पर्याप्त नहीं है। धर्म अनिवार्य है। परस्पर धर्मों के प्रति सद्भाव और प्रेम हमारे देश की संस्कृति है। उस समय जब हमारा देश अधिकतर मूढ़, मूर्ख, निरक्षर और अनपढ़ हुआ करता था लोग इस पुनीत संस्कृति का निर्वाह करते दिखाई देते थे। किन्तु जब से भक्त बुद्धिजीवी साक्षर स्नातक और विद्वान हो गए हैं मेरे देश में यह संस्कृति लुप्त होती जा रही है। अब एक धर्म के अनुयायी और भक्त दूसरे धर्म से ईष्र्या करता है। उसका उपहास करता हैं । मन में बदले की भावना और बैर रखता है। जिस महापुरुष ने संसार को अहिंसा और त्याग का पाठ पढाकर ‘सम्यक मार्ग’ दिखाया उसी के अनुयायियों ने दूसरे धर्मों को गालियाँ बक-बक कर धर्म की परिभाषा बदल दी। आज देश में सांप्रदायिक ताकतें सहिष्णुता और असहिष्णुता की कठिन-कठिन परिभाषाएँ गढ़ रही है। एक भक्त , दूसरे को उकसा रहा है तो कविवर नीरज की पंक्तियाँ चीत्कार उठती हैं-
छेड़ने से मौन भी वाचाल हो जात है दोस्त
आदमी ही आदमी का काल हो जाता है दोस्त
मत करो इतना हवन तुम आदमी के खून का
जल के काला कोयला भी लाल हो जाता है दोस्त।

भक्त बनना अच्छी बात है। पर देश भक्त बनिए। वह कठिन है। वहाँ भी धर्म आड़े आ जाते हैं। भक्त अब त्यागी नहीं भोगी हो गए हैं। अर्चना-आराधना करते हैं पर पूरी सुविधा के साथ। उनका ध्येय वाक्य ही होता है-‘भगवान सबका भला करे पर शरुआत मुझसे करें।’ लाखों की रिश्वतखोरी करनेवाला भक्त हजारों को धन दान कर भक्त शिरोमणि बन रहा है। आयकर चुराकर और दलाली खाकर भक्त पापों में छूट उठा रहे हैं और अपने धर्म से संबंधित मंदिरों में सोना चढ़ा कर चित्रगुप्त के खाते में स्वर्ग की सीट आरक्षित करवा रहे हैं। किसी महापुरुष के भक्त संविधान की पुस्तक को धर्मग्रंथ भी कहते हैं और उसकी मूर्तियाँ संसार भर में खड़ी कर आरक्षण के नाम पर शोषण की नयी-नयी इबारतें लिख रहे हैं। रहम और मजहब के नाम पर खेती-किसानी से संबंधित पशुओं को बिरयानी में पकाकर धर्म के चटकारे लिए जा रहे हैं। अधिकारों और स्वतंत्रता की आड़ में मातृभूमि के प्रति द्रोह करने वाले जयचंद के वंशजों को राजनैतिक संरक्षण देकर गद्दारों की फुलवारी लगायी जा रही है। प्रगतिशीलता और विज्ञान की आधुनिक मानसिकता के घंूघट में धार्मिक आस्थाओं का चैराहों पर चीरहरण हो रहा है। और साहब इधर देखिए- माँ-बाप को बुढ़ापे में खून के आँसू रुलानेवाला बेटा अपनी पत्नी के साथ पुण्य कमाने ‘हज’ करने और कुंभ-मेले’ में डुबकी लगाने जा रहा है। सच में मेरा देश धार्मिक हो गया है!!!