आसमा के चाँद पर हो कहीं मेरे घर की ज़मीं
चाँदनी बिखरी हो हरसूँ तारों से हो छत सजी ।
पाँव धोकर बिखरें लहरें यूँ ठंडी ठंडी हो पवन
तुम भी आजाओ अगर तो पूरी होगी हर कमी।
हर तरफ़ एक नूर छाया मस्ती में झूमे गगन
धड़कनें बोझिल हुई हैं आँखो में है एक नमी ।
बिन तुम्हारे क्या नजारे सुन मेरे दिलबर सनम
धड़कनें बोझिल हुई हैं सांस जैसे है थमी।
मैने चाँद को देखा छत से औ चौबारे से मगर
अजब है बात तेरी सूरत चाँद पर ज्यों हो बनी ।
दूर तक दिखता नहीँ है हमनवां “जानिब” इधर
कब तलक नज़रें निहारें यार बिन सूनी गली ।
— पावनी दीक्षित “जानिब”
ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी , मैने चाँद को देखा छत से औ चौबारे से मगर
अजब है बात तेरी सूरत चाँद पर ज्यों हो बनी । बहुत खूब .