लघुकथा

लघुकथा — कंजिका

पुनिया परिवार लगभग साल भर पहले ही इस पाश कॉलोनी में रहने आया था। अपने पति देव के प्रमोशन की मन्नत पूरी होने होने की ख़ुशी में मिसेज़ पुनिया ने सारे नवरात्रे व्रत रखने संकल्प लिया था। चहुँ और नवरात्र की धूम मची हुई थी। अष्टमी के दिन कन्या जिमाने के लिए बच्चियां ढूँढे नहीं मिल रही थीं। सभी कहीं ना कहीं अनुबंधित थीं। बड़ी मुश्किल से मिसेज़ पुनिया यहाँ झोपड़पट्टी में रहने वाली घरेलू कार्य और मजदूरी करने वालियों की सात छोटी छोटी बच्चियां मिल ही गईं। उन्होंने प्रथानुसार बच्चियों के पैर पखारने हेतु पति देव को भी बुला लिया, एक एक कर दोनों साथ साथ बच्चियों के पैर पखारते जा रहे थे।

पाँच वर्षीया गुल्ली की नज़र पैर छूते हुए मि. पुनिया पर पड़ी तो उसका चेहरा डर से पीला पड़ गया और वो थर थर काँपने लगी, मिसेज़ पुनिया ने उसकी हालत देख कर पूछा – “क्या हुआ बेटा तुम्हें…. ठीक तो हो न ” ? सहमी हुई गुल्ली अपने आप में सिमटती हुई मि. पुनिया को देखे जा रही थी ,….उसकी भयभीत आँखों से आँसू बहने लगे थे…. मि.पुनिया ने चौंक कर गुल्ली के चेहरे को देखा तो उनके जेहन में पिछले मोहल्ले में रहते हुए अपना एक कुकर्म कौंध गया और वे भी घबराहट के पसीने से लथपथ हो गए.

और गुल्ली – ” म मु मुझे घर जाना है ,… नहीं तो ये गंदे अंकल मुझे फिर बिस्तर पे ले जा के मारेंगे… माँ S S … ” रोती चीखती हुई बाहर भाग गई ।”
— मँजु शर्मा १६-०४-२०१६

2 thoughts on “लघुकथा — कंजिका

  • लीला तिवानी

    निष्ठुर पीड़ा!

  • लघु कथा पढ़ कर आँखें नम हो गईं और कुछ गुस्सा भी आया .

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