कहानी

एक ही लिहाफ़

“शिमला! तुमने माँ को शिमला जाने के लिए क्यूँ कहा?”

“यहीं रखा है फोन। लगा लो माँ को, और बोल दो कि शिमला न जाएं।“

“अरे शिमला जाने, न जाने की बात आई कहाँ से। कैसा लगेगा माँ को? क्या सोचेंगी वो?”

अरू ने मुँह फेरते हुए कहा “कैसा लगेगा? क्या सोचेंगी? अपने बड़े बेटे के यहाँ घूम कर आएंगी और क्या? इसमें लगना क्या है और सोचना क्या है?”

अमर ने मुक्के से अपना सर ठोंकते हुए कहा –“ओफ्फो! यही कि तुम उन्हें मुंबई नहीं बुलाना चाहती बल्कि शिमला भेजना चाहती हो। आखिर ऐसा बोलकर तुम करना क्या चाहती हो?

सोफे पर बैठी अरू ने टी-टेबल के उस पार खड़े अमर की आँखों में आँखें धसाकर कहा –“मैं क्या चाहती हूँ? भला मेरे चाहने न चाहने से कुछ होता है।“

अमर ने दोनों हाथ कमर पर टिकाते हुए और गर्दन को झटकते हुए पूछा –“अच्छा! तो तुम्हीं बताओ न; बताओ कि तुम क्या चाहती हो?”

अरू ने दोनों हाथों की उंगलियों को फिरकी देते हुए कहा –“अरे! मैं क्या चाहती हूँ? ये बात आई कहाँ से?”

“फिर तुम क्या कहना चाह रही थी, मां के शिमला जाने को लेकर?”

“मैं तो बस इतना कह रही थी कि हर बार माँ मुंबई आती हैं। एक बार शिमला चली जाएंगी तो क्या हो जाएगा। वो भइय्या-भाभी को भी तो कितना याद करती हैं। जितने दिन रहती हैं “मेरा मंटू ये, मेरा मंटू वो’ …आखिर मंटू भइय्या को इतना याद करते हैं तो उन्हें वहाँ क्यों नहीं जाने देते तुम। हर बार मुंबई क्यों बुला लेते हैं। और वो मुंबई आकर करती भी क्या  हैं…सिर्फ यहाँ के ट्रैफिक, यहाँ के प्रदूषण, धूल-धक्कड़ और गर्मी की शिकायत….म.. मे..मेरा मतलब परेशान रहती हैं। सारा-सारा दिन मैं और तुम बाहर रहते हैं और वह घर पर क्या बोर नहीं होती। शिमला में कम से कम भाभी तो घर पर रहेंगी; बोलने-बतियाने को। तुम उन्हें बुलाकर कैद करके रखना चाहते हो।“

तर्जनी दिखाते हुए और आंखें निकालते हुए अमर ने कहा –“देखो अरू! वो मेरी माँ हैं। मैं जैसे चाहूँगा, वैसे रखूँगा। वो मेरे पास खुशी से आती हैं और खुशी से रहती हैं।“

“तो रखो न। सड़ाओ न उन्हें इस फ्लैट में। मैं कहाँ मना कर रही हूँ।“

“मना नहीं कर रही तो शिमला भेजने की चिंता भी मत करो तुम। समझीं न।“

कह तो रही हूँ। फोन यहाँ रखा है। लगाओ और बुला लो।“

दो मुक्केबाज़ एक-दूसरे से बुरी तरह से भिड़ें हों और तभी घंटी बजा कर पहला राउंड खत्म होने की घोषणा कर दी जाती है; वैसे ही अरु और अमर का पहला राउंड खत्म करने के लिए डोर बेल स्वत: बज उठी।

दोनों ने चौकन्ने होकर दरवाज़े की ओर से आई अप्रत्याशित टोक को देखा। अमर दरवाज़े के करीब खड़ा था सो बढ़कर दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़े पर प्रेस वाला कपड़ों का थैला लिए खड़ा था।

“साब कपड़े!”

अमर ने प्रेस किए हुए कपड़े का थैला हाथ में लिए तो पीछे से अरू ने पूछा – “कितने हुए भइय्या”

“पच्चहत्तर रुपए”

अरू रुपए लेने के लिए अंदर की ओर बढ़ी और अमर थैला रखने। दोनों पहलवान टकराए और जैसे राउंड टू का आगाज़ हुआ। मगर यह राउंड केवल आंखों से खेला जाने वाला था; बातों वाला खत्म। तो दोनों ने आंखें लाल कर एक-दूसरे को देखा और हुंहकहकर सिर झटक दिया।

अमर कपड़े लेकर अंदर गया और करीने से सारे कपड़े आलमारी में लगा दिए। फिर बिस्तर पर लेट गया।

अरू ने पर्स से रुपए लिए और धोबी को देते हुए कहा –“इस संडे को ज़रूर आना।“

“जी मेम साब।“

प्रेसवाला चला गया।

अरू दरवाज़े का हैंडल पकड़कर एक टक दरवाज़े को निहारती रही। दरवाज़े पर लगी स्टील की दोनों नेम प्लेटें रोश्नी में चमक रहीं थी।

“अर्चना झा…..अमरकांत झा..” अरू फुसफुसाई और हुंहकहकर दरवाज़ा धड़ाम से दे मारा। मन ही मन बोली – स्त्रियों का सम्मान करते हैं….हिंदू परम्परा के अनुसार मेरा नाम पहले लगवाया….सम्मान चाहें धेले की भी न हो।

      थोड़ी देर सोफे पर बैठकर मैगजीन पलटती रही। फिर ऊपर लटकी घड़ी पर नज़र गई तो देखा दो घंटे निकल गए। खाना बनाने के लिए देर हो रही है लेकिन अमर अभी भी बेडरूम से बाहर नहीं आया। पर खाना तो बनाना होगा।

      अरू आज अकेले ही किचन में खाना बनाने में लग गई। उसने सोचा आटे में पानी लगाकर रख दूँ और सब्ज़ी की तैयारी कर लूँ शायद थोड़ी देर में अमर आए तो रोटी बेलने और सब्जी छोंकने की रोज़ की ड्यूटी निभा देगा।

      अरू अभी आटा गूँथ रही थी कि बरतनों की खड़-खड सुन अमर बाहर आया। किचन में आकर देखता है तो अरू अकेले ही अपने लिए खाना बनाने में लगी है। उसकी नसें तन गई। तुरंत भगौना उठाया और पानी भर कर इंडक्शन स्टोव पर रख दिया। अरू गूँथते-गूँथते अमर की सारी कारस्तानी देख रही थी। मगर जब उसने शेल्फ से नूडल के पैकेट उठाए तो वह समझ गई कि अमर अब अपने लिए नूडल बना रहा है। उसके देखते ही देखते नूडल बनकर तैयार हो गया और वह उसे बाउल में डाल कर निकल लिया।

      अरू ने भी अपने लिए रोटी सेंक ली। सोचा गुड़ से ही खा ली जाए; कौन सब्जी बनाए। खाने के लिए थाली उठाई तो देखा कि हाथ में वह थाली आई जिसमें वो दोनों रोज़ एक साथ खाते थे। आज तो अलग-अलग थाली में खाना था। अरू ने वह थाली वापस रखी और एक हाफ प्लेट ढूँढकर निकाली।

      अमर सिंक में बाउल धोकर मुड़ा तो देखा अरू पीछे लाइन लगाकर खड़ी है, अपनी प्लेट धोने के लिए। दोनों ने आँखों से ही इस राउंड की मुक्केबाज़ी की और फिर हुंहकहकर निकल गए।

      अरू ने अगले दिन के लिए अपनी ड्रेस निकाल कर कुर्सी पर रखी और पर्स का सामान इधर-उधर करने लगी तो अमर को भी ख़्याल आया कि उसे भी सुबह के लिए कपड़े निकाल लेने चाहिए क्योंकि ज़रूरी नहीं कि कल नहाने के बाद रोज़ की तरह बाथरूम से ही चिल्लाए और अरू उसको पहनने का समान ढूँढकर पकड़ाती जाए।

      अपने कपड़े रख अमर लेट गया तो देखा कि अरू बरामदे की और आधे घर की लाइटें बंद करके लेटने आ गई मगर किचन की और बाकी आधे घर की छोड़ दीं। उसने सोचा उफ ये पागल औरत! एक बार में सारी लाइटें बंद नहीं कर सकती; मेरे लिए छोड़ दीं। सारी बंद कर देगी तो जैसे कुश्ती हार जाएगी। अरू अपना पैंतरा खेल चुकी थी। अमर को बिस्तर से उठना ही पड़ा।

      सब लाइटें बंद कर जब वह बिस्तर पर लेटा तो गजब तमाशा देखा। डबल बेड के अपने हिस्से में अरू सारा लिहाफ़ ओढ़े सो रही थी। उसके लिए उस इकलौते लिहाफ़ का कोई कोना तक नहीं छोड़ा था।

      एक समय था जब दोनों ने बड़े प्रेम से इस घर की बुनियाद रखी थी। एक ही थाली में खाने का चलन बनाया था और एक ही लिहाफ़ ओढ़ने की परंपरा शुरु की थी। इसीलिए घर में दूसरा लिहाफ़ भी नहीं था। थाली तो कई थीं, जो काम आ गई; मगर लिहाफ़? घर में रिस्तेदार कोई आते भी थे तो गर्मी की छुट्टियों में। आज तक लिहाफ़ खरीदने की नौबत तक नहीं आई।

      अमर दूसरी ओर मुंह करके सो गया। धीरे-धीरे ठंड बढ़ती गई। पंद्रह मिनट में ही अमर को ठिठुरन महसूस होने लगी। ठंड ने यह प्रण लेने पर मजबूर कर दिया कि कल सुबह मार्केट खुलते ही सबसे पहले एक और लिहाफ़ खरीदना है। बहुत हो गया प्रेम का निर्वाह।

ठंड से मजबूर हो कर उसने अरू की तरफ मुंह कर लिया कि शायद लिहाफ़ के करीब रहने से ही थोड़ी ठंड कम हो जाए। मगर कुछ देर में यह भ्रम भी टूटने लगा।

      अरू को सोया जानकर उसने लिहाफ़ का एक छोर अपनी ओर खींचा। धीरे-धीरे और खींचा और खिंचते-खिंचते अपना पूरा तन ढक लिया। ढक कर निश्चिंत हो गया।

      अरू को ठंड महसूस हुई तो उनींदी सी वह भी पल्टी। पलटते ही पाया कि लिहाफ़ के भीतर ही भीतर पलटने में वह अमर के एकदम सामने है।

      दोनों एक दूसरे के सामने और इतने सामने की गर्म सांसे लिहाफ हुई जाती हैं। दोनों पलटना नहीं चाहते क्योंकि जो पलटेगा वो इस छोटे से लिहाफ़ के बाहर हो जाएगा। जंग भी जितनी है और रिंग के बाहर भी नहीं जाना है।

      कुछ समय ऐसे ही बीता। कुछ और समय ऐसे ही बीता। फिर दोनों पहलवान एक साथ हारने लगे। अरू ने सिर झुका लिया कि कान–नाक तक लिहाफ़ में ढक जाए तो पाया की वह अमर के सीने के काफी करीब है। अरू की सांसे जब उसके सीने से टकराती तो अमर की उत्तेजना बढा जाती और सीने में ढोल बजने लगते। इसी उत्तेजना की लहर में अमर ने बांह अरू पर डाली तो अरू भी घोसलें में चिड़िया की तरह समा गई।

      फिर शुरु हुआ तीसरा राउंड…..।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com