सामाजिक

शिक्षानीति में सुधार, कुछ सुझाव

नई शिक्षा नीति के लिए मेरे निम्नलिखित सुझाव हैं —

मातृभाषा – प्राथमिक शिक्षा किसी भी स्थिति में अनिवार्यरूप से मातृभाषा में ही हो, इस सन्दर्भ में विभिन्न शिक्षा आयोगों की रपट को ध्यान में रखा जाए. भारतीय भाषाओं की विशेषता यह है कि इन्हें पढ़ने पर मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्ध सक्रिय होते हैं, जबकि अंगरेजी भाषा केवल बांए गोलार्द्ध को सजग करती है. दायां गोलार्द्ध संवेदना, भावना, अनुराग, वात्सल्य, प्रेम, स्नेह, ममता, संगीत आदि के लिए और बायां गोलार्द्ध तर्क, गणित आदि के लिए जिम्मेवार होता है. व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए दोनों गोलार्द्धों का सम्यक रूप से विकसित होना आवश्यक है. सामाजिक व्यवस्थाओं और सम्बन्धों के लिए मानवीय संवेदनाओं का विकास बेहद जरूरी है.

धर्मसापेक्ष शिक्षा अर्थात् सहकार और सरोकार की शिक्षा – शालेय या उच्च शिक्षा हर हाल में धर्म सापेक्ष ही होना चाहिए. सभी धर्म ग्रंथों के मानवीय मूल्यों से सम्बन्धित निर्देशों का समावेश किया जाए, जैसे दूसरों का अधिकार नहीं छिनना, दूसरे के पेट पर लात नहीं मारना, दूसरों का उपकार करने का प्रयास और किसी भी स्थिति में अपकार नहीं करने का संकल्प आदि. इसीतरह के अनेक बिन्दुओं को सम्मिलित किया जाए. ये वैज्ञानिक तथ्य हैं, गूगल पर देख लीजिये कि जलन, ईर्ष्या, क्रोध, कुढ़ना, निंदा करते रहना, अप्रसन्नता, नाराजगी, खराब मूड, अवसाद आदि के कारण तनावजनित रोग होते हैं, श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में भी इसका उल्लेख है. क्षमा, प्रायश्चित, प्रसन्नता, दयाभाव, संवेदना, करुणा, सहयोग, उदारता आदि के सकारात्मक प्रभाव होते हैं.

वर्तमान में अर्थप्रधान शिक्षा होने से हर कोई, किसी भी तरह से धन अर्जित कर कामनाओं यानी सुविधाओं को हथियाने में लगा हुआ है, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी का अनिष्ट या जीवन भी लेना पड़े तो संकोच नहीं होता है. अन्तत: यह प्रक्रिया मानव के अवचेतन में संचित हो जाती है कि उसकी सुख सुविधाओं में किसी का अनिष्ट समाया हुआ है और परिणामस्वरूप एक सूक्ष्म अपराधबोध तनावजनित रोगों के रूप में प्रकट होने लगता है.

श्रीमद्भागवद्गीता में भगवान अपने श्रीमुख से कहते हैं “अहंकार, बल, घमण्ड और क्रोधादि के वशीभूत जो व्यक्ति दूसरों को कष्ट पहुंचाता है तथा निंदक है, वह अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से ईर्ष्या और शत्रुता रखने वाला होता है. वह क्रूरकर्मी, नराधम और पापाचारी है.” इस आशय की बातें सरल भाषा में हर कक्षा के विद्यार्थियों को बताई जाना चाहिए.

स्वास्थ्य शिक्षा – प्राथमिक कक्षाओं में ही स्वास्थ्य चेतना के निर्देशों को सरल भाषा में पढ़ाया जाए, चित्रात्मक शैली में पोस्टर के माध्यम से या पॉवर पॉइंट प्रजेंटेशन के माध्यम से उनके मन मस्तिष्क में स्वच्छता, शारीरिक सफाई, स्वच्छ वस्त्र, नाखून काटना आदि, उपलब्ध जल को पेयजल में रूपान्तरित करने के स्थानीय तौरतरीके पढ़ाएं जाएं. संतुलित आहार, कुपोषण के कारण और दुष्प्रभाव के विषय में बताया जाए.

अनुशासन और राष्ट्रप्रेम की शिक्षा – इसीतरह प्राथमिक कक्षाओं में ही एन.सी.सी. अनिवार्य की जाए, इससे बहुआयामी लाभ होंगे – एकता, आत्मानुशासन, स्वावलम्बन, राष्ट्रप्रेम, आत्मरक्षा, सर्वधर्म समभाव आदि. इसके नाना प्रकार के प्रत्यक्ष और परोक्ष सकारात्मक प्रभाव कुछ ही सालों में देखने को मिलने लगेंगे. एन.सी.सी. के लागू होने से वे सारे उद्देश्य और सपनें पूरे हो सकते हैं, जिनकी आम जनता से अपेक्षा की जाती है, यथा स्वच्छता, आत्मानुशासन, देशप्रेम, स्वयं गंदगी नहीं करना, लड़कियों में आत्मरक्षा की शक्ति और नैतिक साहस का विकास होगा, परस्पर सहयोग और सहकार की भावना विकसित होगी, शारीरिक श्रम के अभाव में होने वाली बीमारियां इन दिनों बहुलता से हो रही हैं, वे भी नियन्त्रित होगीं, शारीरिक क्षमता बढ़ने से राष्ट्र की सकल उत्पादकता में अभिवृद्धि होगी.

खेल – व्यायाम – योग की शिक्षा – सभी सरकारी और निजी स्कूलों में खेल, व्यायाम, योग आदि को अनिवार्य किया जाए. प्रारम्भिक रूप से खेल के शिक्षकों को आठ दस दिन का सघन प्रशिक्षण दिया जाए, जिसके तहत एन.सी.सी. के अधिकारी, चिकित्सक और पर्यावरणविद उन्हें प्रशिक्षण दें.

शिक्षा अनिवार्य की जाए – यदि सम्भव हो तो सामाजिक संस्थाओं, सांस्कृतिक संगठनों, बड़े उद्योगपतियों, धार्मिक ट्रस्टों के सहयोग से गांव गांव में सुव्यवस्थित अथवा एकल स्कूल खोले जाएं.

शिक्षा में एकरूपता – पूरे देश में पाठ्यक्रम एक जैसा हो, हर साल पाठ्यक्रम बदलने के बहाने प्रकाशकों को लाभ पहुंचाने के लोभ को नियन्त्रित किया जाए, पुस्तकें एक दूसरे को हस्तान्तरित होती रहेगी, तो शिक्षा कुछ सस्ती हो जाएगी. हम आठ भाई बहनों ने पुस्तकों के हस्तान्तरण से शिक्षा ग्रहण की.

शिक्षा शुल्क पर सुनियंत्रण हो – निजी स्कूलों में शिक्षा के विविध शुल्कों पर नियन्त्रण के अभाव में बच्चों को पढ़ाना, एवरेस्ट चढ़ने जैसा कठिन हो गया है. एक न्यायसंगत शुल्क प्रणाली विकसित की जाए ताकि प्रबन्धन भी सीमित लाभों का हकदार बना रहे और आम नागरिक भी राहत महसूस कर सकें.

पृष्ठभूमि – इन दिनों जितनी भी सामाजिक विडम्बनाएं घटित हो रही हैं, वे हम भारतीयों के लिए शर्मनाक हैं. पांचवीं से लेकर पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के विद्यार्थी असफल होने या अपेक्षित सफलता के अभाव में आत्महत्या कर रहे हैं. नवजात बच्चियों से लेकर 90 वर्ष की वृद्धा के साथ बलात्कार हो रहे हैं. जमीन जायदाद के लिए मां बाप, भाई बहन, मामा भांजे आदि सभी तरह के खून के रिश्तों की सरेआम हत्या और अवमानना हो रही है. दहेजहत्या या आत्महत्या अब आम बात का रूप अख्तियार कर चुकी है. अपने छोटे से लाभ के लिए दूसरों का सबकुछ बर्बाद करने में व्यक्ति तनिक भी नहीं सोच रहा है. छोटे-बड़ों का परस्पर स्नेह स्वार्थ आधारित हो गया है.दोस्ती को प्रतिस्पर्धा की भावना चुपचाप लील लेती है, ऐसा लगता है कि दोस्ती स्वार्थ के जंगल में खो चुकी है. सभी तरह के टैक्स की चोरी चतुराई मानी जाने या कहलाने लगी है. मिलावट, कालाबाजारी, जमाखोरी, कोई सामग्री कम तौलना, किसी की भी विवशता का लाभ उठाने जैसी बातें आम हो चुकी हैं. दूसरों के बच्चों को चुराकर भिखारी (भिक्षावृति) या देहव्यापार में धकेलते समय व्यक्ति को उसकी आत्मा नहीं कचोटती है.

शत्रुदेश के आतंकवादियों या घुसपैठियों के राशनकार्ड या वोटर कार्ड बनाना, उन्हें सिम देना, आदि देशद्रोह के कृत्य चन्द रुपयों की खातिर करते समय राष्ट्र की सुरक्षा के विषय में नहीं सोचना कितना घातक है ? लोकतांत्रिक देश में जनता नामक स्वामी की सेवाहेतु निरन्तर बढ़ते रहने वाले वेतन के साथ सरकारी सेवकों को तैनात किया गया है, वे सरकारी सेवक (अखबारी न्यूज़ के अनुसार अधिकाँश) जनता जनार्दन के साथ गुलाम सेवकों की तरह व्यवहार करें, एक दिन के काम के लिए महीनों टल्ले देने में अपनी अतिरिक्त योग्यता मानें, रिश्वत को अपना नैतिक अधिकार मानने में ग्लानि या पाप कृत्य की बजाय गौरव का अनुभव करें. कामचोरी और बहानेबाजी को सरकारी नौकरी की अत्यन्त आवश्यक अतिरिक्त योग्यता मानें. सरकारी पैसे को उड़ाने या अमर्यादित दुरुपयोग को अपना जन्मसिद्ध और निर्बाध अधिकार मानें. ये सभी उदाहारण हमारे समाज में जैसे येन केन प्रकारेण धन हथियाने या पाने की शर्मनाक होड़ के प्रतिनिधि उदाहरण हैं.

इन सबसे सरकार, समाज और बुद्धिधर्मी विद्वान चिन्तित हैं और किसी न किसी तरह से इस स्थिति से समाज को मुक्त करने की दिशा में समुचित प्रयास कर रहे हैं. परन्तु जो भी प्रयास हों, वे पत्तों को सींचने वाले न हों, बल्कि बुनियादी रूप से पेड़ को पुष्ट करने वाले ही हों. अर्थप्रधान शिक्षा की बजाय नैतिकता प्रधान शिक्षा शिशुकाल से उच्च शिक्षापर्यन्त जरूरी है.

मैं अनेक वर्षों से श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भागवत गीता का नित्य प्रति सरसरीतौर (मेकेनिकली) पर पाठन कर रहा हूँ, (कहने का मंतव्य है कि मैं उनका विद्वान नहीं हूँ). परन्तु अनेक चौपाइयां और श्लोक शिक्षा में बुनियादी सुधार की दिशा तय कर सकते हैं. वर्तमान की सामाजिक विडम्बनाओं को चिन्हित करने वाली दो चौपाइयों का उल्लेख प्रासंगिक होगा. कलियुग का उल्लेख करते हुए श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड के दोहा 99 की अन्तिम चौपाई में लिखा है “मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं. उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं. “अर्थात् माता पिता अपने बच्चों को जिस किस भी तरह से उदर (पेट और तिजोरी भी) भरने की शिक्षा देते हैं, यानी कैसे भी तिजोरी भरना ही उनके लिए परम धर्म का काम है.” अब आप ही बताइए यदि वह अपनी तिजोरी भरने के लिए जो भी काम करेगा वह उसकी नजर में तो धर्म ही है. ऐसे बच्चें यदि माता-पिता या किसी की भी निर्मम हत्या भी करते हैं तो इसमें चिन्तित और आश्चर्यचकित होने की क्या बात है ? मेरी दृष्टि में इसका कारण है, हमारी अर्थप्रधान सोच.

इसकी पृष्ठभूमि में हमारी गर्वोक्ति है कि मेरे बेटे का पैकेज दस या पचास लाख का है. दशरथजी के पुत्र भरत अपनी मां से कहते हैं कि “मां आपने मुझे राज्य दिलवाने के लिए जो कृत्य किया है वह पेड़ को काट कर पत्ते को सींचने जैसा है या मछली को बचाने के लिए पानी उलीचने जैसी है.” (श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड के दोहा 160 की अन्तिम चौपाई में लिखा है “पेड़ काटि तैं पालउ सींचा. मीन जिअन निति बारि उलीचा.”). शिक्षा नीति का उद्देश्य मछली (संतान के सुख) के लिए पानी (नैतिकता) को बनाए रखना और पत्ते (संतान के सुख) के जीवन के लिए वृक्ष (नैतिक मूल्यों) को सींचना होना चाहिए.

कृपया इन सुझावों का एक बार अवलोकन अवश्य करें.

डॉ मनोहर भण्डारी