संस्मरण

मेरी कहानी 136

23 मई को ‘जय विजय’ में मनमोहन कुमार आर्य जी का एक लेख छपा था “गीता सार और वैदिक धर्म” और इस लेख पर मैंने एक कौमैंट दिया था , जवाब में मनमोहन जी ने भी एक कौमैंट लिखा था कि मैं इस दान पुन्य पर कोई कहानी लिखूं। बहुत दिन तक मैं कहानी के प्लाट के बारे में सोचता रहा लेकिन कुछ बन नहीं पाया। फिर 28 मई को लीला टेवानी जी ने ” सब उपाधियों से ऊपर ” कहानी लिखकर मेरी इस कमी को पूरा कर दिया, जिस के लिए मैं उन का धन्यवाद करता हूँ। आज अचानक मेरे दिमाग में आया कि क्यों ना मैं इस विषय को अपनी जीवन कथा का हिस्सा ही बना लूँ ? इस से कुछ कह भी सकूंगा और अपने दोस्त को शर्धांजलि भी दे सकूंगा।

मेरे दोस्त थे रंजीत राये जो कुछ साल पहले हम से बिछुड़ कर परलोक में चले गए। रंजीत को मैं तब से जानता था, जब गियानी जी के बेटे, मेरे दोस्त जसवंत, के साथ यह रंजीत एक फैक्ट्री जैंक्स ऐंड कैटल में काम किया करता था। मैं भी उस समय एक फैक्ट्री ब्रुक हाऊस कास्टिंग्ज में काम किया करता था। काम खत्म करके मैं और जसवंत इक्कठे बस पकड़ते थे और कभी रंजीत भी हमारे साथ आ जाता था। ज़्यादातर रंजीत ओवरटाइम पर रहता था, इसलिए कम ही मिलना होता था । उस का गोरा रंग और खूबसूरत चेहरा देखकर वह कोई बड़े घर से आया लगता था।

एक दिन किसी ने हमें बताया कि रंजीत आद्धर्मी था। हमारे लोगों को एक बात विरसे में ही मिली है और वह है किसी की जात पात को जान्ने की, कि यह हिन्दू है, यह नाइ है, यह दलित है। एक दिन जसवंत ने उसे पूछ ही लिया, ” यार ! मेरा खियाल है आप आद धर्मी हो “, रंजीत हंस कर बोल पड़ा,” यार! मैं चमार हूँ” , कुछ देर बाद फिर बोला,” चमार मेरी जात है और फखर से कहता हूँ कि चमड़े का काम करना हमारे पुरखों का पेशा था “, कुछ देर सब चुप हो गए और जसवंत भी कुछ झूठा सा पढ़ गया । फिर मैं ही बोल पड़ा,” आज पहली दफा मैंने ऐसा निधड़क जवाब सुना है और मुझे बहुत ख़ुशी हुई है यह सुन कर “, रंजीत भी हंस पड़ा और बोला, ” बचपन से आज तक ऐसी बातें सुनता आया हूँ और मुझे इस में कोई अजीब बात नहीं लगती क्योंकि अन्य जातिओं की तरह हमारी जात भी एक जात ही है और अपने काम में निपुण है और वह है जूते बनाना, जिस से हमारी उपजीवका बराबर कायम रहती है और किसी के आगे हाथ फैलाने की जरुरत नहीं पढ़ती। यही बात थी, जिस की वजह से रंजीत के साथ मेरी नज़दीकी बढ़ी।

इस के बाद जल्दी ही मैं ब्रुक हाऊस से काम छोड़ कर बसों पे लग गया था और रंजीत के साथ कभी कबार ही मिलन होता था लेकिन यह मिलन दोस्ती का कोई ख़ास नहीं था। इस के तकरीबन दस साल बाद रंजीत भी पार्क लेंन गैरेज में बसों पे लग गया। रंजीत अपने माता पिता के साथ हमारे इलाके में ही रहता था। रंजीत के दोस्त ऐसे थे जो हर रोज़ काम खत्म करने के बाद पार्क लेंन की क्लब्ब में इकठे होते थे, बीयर पीते और सनूकर या डॉमिनोज खेलते। यह सारे मिल कर बहुत बहुत ग्लास बीअर के पी जाते थे। ऐसी कम्पनी मेरे मुआफ़िक नहीं थी और मैं बहुत कम जाता था और जाता भी तो किसी ऐसी कम्पनी में नहीं बैठता था, जल्दी से एक दो ग्लास पी कर घर आ जाता था। कुछ सालों बाद यह कलब्ब बंद हो गई। हमारी गैरेज के साथ ही एक पब्ब होता था जो एक गोरे का था और हमारे लोग इस में कम ही जाते थे क्योंकि यहां ज़्यादा गोरे ही होते थे। कुछ अर्सा बाद यह पब्ब एक पंजाबी ने ले लिया।

एक दिन काम खत्म करके मैं इस पब्ब में चला गया। पब्ब में रंजीत बैठा था, मुझे देख कर वह उठा और मेरे लिए काउंटर से एक बीयर का ग्लास ले आया। बैठ कर हम बातें करने लगे। बातें इतनी हुईं कि एक ही मिलन में हम एक दुसरे के नज़दीक आ गए। रंजीत के पास अपनी गाड़ी नहीं थी, जब भी कभी हम इकठे होते तो हम इकठे ही मेरी गाड़ी में बैठकर घर आ जाते। रंजीत के पास हमेशा टेलीग्राफ या टाइम्ज़ अखबार होता था और वह इस में सारे आर्टिकल पड़ता था। रंजीत सिर्फ मैट्रिक पास था लेकिन उस की जेनरल नॉलेज किसी बी ए पास से कम नहीं थी।

वर्षों बीत गए। रंजीत मुझ से पांच छै साल छोटा था। उस की भी शादी हो गई थी और उस के दो लड़के और एक लड़की थी। मेरी दोनों बेटिओं की शादी हो चुकी थी और जब 1995 में बेटे संदीप की भी शादी हो गई तो अपनी कबीलदारी से सुर्खरू हो कर हम पति पत्नी ने इंडिया की सैर करने का प्रोग्राम बना लिया। इंडिया आ कर हम बहुत घूमे। कुलवंत की बहन और उस के पती कुंदन सिंह भी पंजाब आये हुए थे, वे मुंबई में ही आर्किटैक्ट थे। हम चारों ने दो दिन के लिए आनंद पुर साहब जाने का प्रोग्राम बना लिया। कुंदन सिंह कभी मेरे साथ ही रामगढ़िया स्कूल में सी सेक्शन में होता था।

उस दिन कुंदन सिंह और कुलवंत की बहन पुन्नी ने अपने गाँव नंगल से आना था जो जीटी रोड पर चहेड़ू के नज़दीक है और हम ने अपने गाँव राणी पुर से आना था और फगवाड़े बस स्टेशन पर इकठे होना था। हम पहले पहुँच गए और वक्त पास करने के लिए मैं पेपर स्टाल पर चला गया और मैगज़ीन उठा उठा कर देखने लगा। एक मैगज़ीन पर मेरी निगाह पढ़ी जिस का नाम था ” तर्कशील “, यूं यूं पड़ता गया, मैं इस में जैसे गुम हो गया। आज तक मैंने अपने धर्म के नज़रिए को किसी के पास ज़िकर नहीं किया था क्योंकि मैं समझता था कि जरूर मुझ में ही कोई ऐसी बात है या नुकस है कि मैं दूसरों से भिन्न हूँ। यह मैगज़ीन मुझे इतना अच्छा लगा की मैंने तीन महीने के एडीशन खरीद लिए। आनंद पुर से वापस आ कर मैंने धियान से पढ़े। इस के बाद जब हम वापस इंगलैंड आये तो यह मैगज़ीन मैं अपने साथ ही ले आया।

रंजीत जिस को सभी राये कह कर बुलाते थे, मेरा दोस्त बन गया था और हमारी बातें अक्सर सिआसत और धर्म पर ज़्यादा होती। वह अक्सर कहता,” भमरा ! हमारे चमारों ने उनती बहुत की है और इस का श्रेय जगजीवन राम को जाता है, कांग्रेस को वोट चाहिए थी और हमारे लोगों को गरीबी और जिलत से बाहर आना। जगजीवन राम ने वोट के बदले बहुत कुछ हमें ले के दिया लेकिन हम अंधविश्वास से बाहर नहीं निकल सके। हमारे घर के लोग ही इतने पखंड करते हैं कि मुझे गुस्सा आता है, जो काम मंदिर और गुर्दुआरे वाले करते हैं, हम उन से भी ज़्यादा करते हैं “।

बातें करते करते मैंने राये को कहा,” यार राये ! मैं इंडिया से कुछ मैगज़ीन ले के आया हूँ और यह मैगज़ीन हमारे मतलब के हैं “, मैंने उस को तर्कशील मैगज़ीन के बारे में बताया तो राये ने उसी वक्त अपने कोट की जेब से तर्कशील मैगज़ीन निकाला और बोला, ” यह तो नहीं ?”. मैंने कहा,” हाँ हाँ यार, क्या यह तुम इंडिया से मंगवाते हो ?” तो राये बोला,” यह मुझे बर्मिंघम से आता है, अगर एड्रैस चाहिए तो ले लो “, मैंने एड्रैस नोट किया और इस के बाद मैंने उस पते पर चैक डाल दिया और तर्कशील मेरे घर बराबर आता रहा।

राये के दोस्त बहुत थे और सभी शाम के वक्त किसी ना किसी पब्ब में इकठे होते थे लेकिन इन सब दोस्तों में उन के विचारों के लोग बहुत कम थे । जब उस की दोस्ती मेरे साथ गहरी होने लगी तो हम एक दूसरे के घर जाने लगे और उस ने अब अपना घर ले लिया था जो मेरे घर से नज़दीक ही है। बहुत साल मैं जिस रुट पे काम किया, वह राये के घर के नज़दीक ही जाता था और उस की पत्नी जब बस पे चढ़ती तो सत सिरी अकाल बुला कर सीट पे बैठती थी।

एक दिन मैंने राये को कहा,” यार राये ! तेरी पत्नी बहुत अच्छी है, बहुत पड़ी लिखी मालूम होती है “, राये बोला,” भमरा ! वह बिलकुल अनपढ़ है, कभी स्कूल गई ही नहीं लेकिन वह इतनी अच्छी है कि मैं बता नहीं सकता, आज तक उस ने कभी भी मुझ से झगड़ा नहीं किया, चाहे रात को मैं एक वजे ही घर क्यों ना आऊं, वह जागती रहती है और उसी वक्त ताज़ा रोटी पका कर मुझे खिलाती है, कभी भी उस ने शिकायत नहीं की कि मैं रात को देर से आता हूँ, मैं उसे बहुत दफा कहता हूँ कि वह इतनी देर तक क्यों जागती रहती है तो वह बोलती है ,” मुझे इस में आनंद मिलता है, रही बात देर रात जागने की तो इस में क्या बड़ी बात है, मैं टैली जो देख लेती हूँ ” , भमरा ! “मैं उस की बहुत इज़त करता हूँ “, और आज तक मैंने भी उसे कभी कोई बुरा लफ़ज़ नहीं बोला” ।

धर्म कर्म के मामले में राये कोसों दूर था लेकिन यह मुझे ही पता है कि वह कितना चैरिटी का काम करता था। उस ने ही मुझे बताया था कि वह एक चैरिटी जिस का नाम था save the children fund को अपनी तन्खोआह से हर हफ्ते पैसे कटाता था। राये से प्रभावित हो कर मैंने भी फ़ार्म भर के अपनी मैनेजमेंट को दे दिया था और मेरी तन्खोआह से पैसे तब तक जाते रहे, जब तक मैं काम से फारग नहीं हुआ और इस के लिए मैं राये का ऋणी हूँ। एक चैरिटी की दुकान खुली थी डडली रोड पर, जिस में कोई भी अपने घर के पुराने कपडे जूते या और कोई घर का सामान दे सकता था और वह इन को बेच कर पैसे इंडिया को भेजते थे। यह लोग कभी उड़ीसा में कुएं या नलके लगाते थे और गरीबों के बच्चों के लिए स्कूल खोलते थे और कभी कहीं और काम करवाते । इस चैरिटी के बारे में भी हमें राये ने ही बताया था। राये के यह संसार छोड़ जाने के बाद कुलवंत भी इस चैरिटी शॉप में जाया करती थी और अब भी कभी कभी जाती है ।

कभी बुआ यानि निंदी की मम्मी कुछ पाउंड देती और कभी कुछ अन्य सत्रीआं भी इस में शामिल हो जातीं और कुलवंत वहां जा कर सारे पैसे दे देती और रसीद बुआ को दे देती। मुझे याद आया, इस चैरिटी का नाम है ओंकार मिशन जिस को एक रिटायर्ड नेक इंसान ने शुरू किया था। इन के साथ कुछ और लोग भी जुड़ गए थे और वे उड़ीसा जा कर कुएं लगाते थे और वहां की फोटो एक ऐल्बम में लगी हुई थीं। जितने भी हमारे पोते और दोहती हुई, कुलवंत उन की ख़ुशी में इस चैरिटी को पैसे देती थी। वह अक्सर कहती रहती है,” यहां लंगर या कोई पाठ पूजा करने की किया जरुरत है, यहां तो सभी रज्जे हुए हैं, जरुरत तो है उन गरीबों को ” और कुलवंत की इन बातों से मुझे भी ख़ुशी होती है क्योंकि मेरी समझ के मुताबिक यही धर्म है। नरक में जाएंगे या स्वर्ग में,ऐसा मैं सोचता ही नहीं हूँ। रही बात अगले जनम की, तो अगला जनम तो हमारा बहुत पहले ही हो चुक्का है, यह जो हमारे बच्चे हैं, यही तो अगला जनम है।

जब हम रिटायर हो गए थे तो राये हमारे घर अक्सर आता जाता ही रहता था, वह चला गया लेकिन उस के यह शब्द अभी तक मेरे कानों में गूंजते रहते हैं,” भमरा ! मेरे दोस्त तो बहुत हैं लेकिन उन के घरों में मैं जाता नहीं हूँ , सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे घर आकर ही मुझे सकून सा मिलता है “, और शायद इस का कारण यह था कि कुलवंत भी हमारे साथ बैठ कर बातें किया करती थी और कुलवंत की बातें उसे अच्छी लगती थी। राये की धर्म पत्नी को कैंसर की नामुराद बीमारी हो गई थी लेकिन मुझे इस बात का पता ही नहीं चला क्योंकि बहुत देर से वह हमारे घर आया नहीं था और हम भी इंडिया गए हुए थे। जब इंगलैंड आ कर मुझे पता चला कि राये की पत्नी यह दुन्याँ छोड़ गई थी तो मैं उस के घर जा पहुंचा।

उस वक्त राये घर में अकेला था, उस की बेटी कालज में गई हुई थी और दोनों बेटे यूनिवर्स्टी चले गए थे। सामने दीवार पर उस की पत्नी और रंजीत की फोटो लगी हुई थी, फोटो देख कर मन दुखी हो गया। उस दिन राये ने बहुत बातें कीं और बताया कि उस ने कोई धार्मिक रीती नहीं की और इस लिए उस के पिता जी नाराज़ हो गए और बहुत लोग उस बारे में बातें कर रहे थे। ” मैं किस किस को समझाता कि इन सभी लोगों ने मेरे साथ सूखी हमदर्दी के सिवा किया ही क्या था, किया तो उन hospice वालों ने था जिन्होंने मेरी पत्नी के आख़री दिनों में देख भाल की थी (hospice एक चैरिटी है जो मरीज़ के आख़री दिनों में देख भाल करती है ) और मैंने इस चैरिटी को पांच हज़ार पाउंड दे दिया था, अगर मेरे में हिमत होती तो और भी दे देता ” . राये की आँखों में आंसूं थे। बातें तो और भी बहुत हुईं लेकिन मुझे याद नहीं और यही याद है कि राये से बिछुड़ते वक्त मैं ने उस को कहा था, ” राये ! एक बात कहूं कि इस दुःख से निकलने के लिए अपने आप को शराब के पियाले में डूबा ना लेना , अब तुम ने बच्चों के लिए जीना है ”

एक दफा मैं फिर गया। उस दिन वह खुश था और उस ने बहुत बातें कीं। उस ने मुझे बताया कि उस के बड़े लड़के ने यूनिवर्सिटी में पड़ते एक अँगरेज़ लड़की से दोस्ती कर ली थी। उस के लड़के ने बहुत देर तक उसे इस लिए नहीं बताया कि पता नहीं मुझ पर इस बात का क्या असर हो। डरते डरते जब लड़के ने बताया, ” डैड ! मेरी गर्ल फ्रेंड एक अँगरेज़ लड़की है “, तो मैंने हंस कर उस को कहा था, ” मुझे मिलवाने के लिए उसे घर कब लाएगा ?” , दूसरे हफ्ते वह अपनी गर्ल फ्रेंड को घर ले आया। ” मैंने उस लड़की से बहुत बातें की और वह लड़की उसी वक्त मुझे डैड कह कर बुलाने लगी, वह लड़की बहुत इंटैलिजेंट है “, कुछ हफ़्तों बाद वह दोनों फिर घर आये और सारे घर की सफाई कर दी, गार्डन उजड़ा हुआ था और उन दोनों ने मिल कर घास काटा और फूलों की क्यारियों में से घास फूस निकाल कर गार्डन को सुन्दर बना दिया।

उस दिन राये मुझे बिलकुल नॉर्मल लगा था बल्कि उस की सिहत भी बहुत अच्छी दिखाई दी थी। बहुत महीनों तक राये के घर मैं गया नहीं था , शायद अब भी हम इंडिया गए हुए थे, तभी एक दिन मुझे किसी ने बताया कि राये को हार्ट अटैक हुआ था और वह चल बसा था। सुन कर मुझे धक्का सा लगा। मैंने कुलवंत को ही कहा कि वह राये के घर इस ढंग से बात करे कि मैं उस से मिलना चाहता हूँ क्योंकि मुझे इस बात पे यकीन नहीं हुआ था, सोचा, यह बात झूठी भी हो सकती थी। जब कुलवंत ने टेलीफोन किया तो उस की बेटी ने उठाया और उस ने बताया कि डैडी अब इस दुनिया में नहीं थे। बस यही है कहानी रंजीत राये की, और क्या कहूं, उस की यादों के सिवाए है ही क्या।

चलता …. ….. ….

5 thoughts on “मेरी कहानी 136

  • मनमोहन कुमार आर्य

    बहुत मार्मिक वर्णन आज की किश्त में हुआ है। मनुष्य संसार में आता है और एक दिन चला जाता है। यह आवागमन है। ईश्वर करे कि रंजीत जी जहाँ भी हों सुखी हों। फिल्म का एक गाना याद आ रहा है “जाने चले जाते है कहाँ दुनिया से जाने वाले” और एक और गाना “जिंदगी कैसी है पहेली कभी तो हसाएं कभी ये रुलाये”. हमारे ६ दर्शनों का आधार जन्म और मृत्यु ही है। जीवात्मा की अनन्त की यात्रा में मृत्यु एक कर्मानुसार योनि परिवर्तन का पड़ाव है। सादर। नमस्ते एवं धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद मनमोहन भाई .

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद मनमोहन भाई .

  • धन्यवाद जी , अगर बच्चे अछे हों तो समझो स्वर्ग मिल गिया , वर्ना बच्चे बुढ़ापा खराब करने वाले हों तो नरक .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल सही लिखा है, ”रही बात अगले जनम की, तो अगला जनम तो हमारा बहुत पहले ही हो चुक्का है, यह जो हमारे बच्चे हैं, यही तो अगला जनम है.” इसी एक बात से जीवन सुकूनमय हो सकता है. एक सार्थक एपीसोड के लिए हृदय से शुक्रिया.

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