सामाजिक

मांगने के स्वभाव वालों को दूसरों के सामने झुकना पड़ता है जो गुलामी का प्रतीक है: आचार्य आशीष दर्शनाचार्य

ओ३म्

देहरादून की आर्य संस्थाओं द्वारा आयोजित मधुर पारिपारिक संबंध कार्यशाला सम्पन्न-

आज रविवार 26 जून, 2016 को देहरादून की जनपदीय आर्य प्रतिनिधि सभा, देहरादून द्वारा देहरादून नगर की समस्त आर्यसमाजों, आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तराखण्ड एवं इसकी अन्य जनपदों की सभाओं, गुरुकुल पौंधा, द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल सहित वैदिक साधन आश्रम तपोवन नालापानी देहरादून के सहयोग से नगर निगम, देहरादून के विशाल सभागार में मधुर पारिवारिक मिलन एवं श्रेष्ठ सन्तान निर्माण कार्यशाला’ पूर्ण सफलता के साथ सम्पन्न हुई। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि श्री अरुण दण्ड, निदेशक, यूनीवर्सिटी आफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज, देहरादून थे तथा अध्यक्षता श्री सुखदेव सिंह वर्मा ने की। कार्यकम पूर्वान्ह 10.00 बजे से 2.00 बजे तक चला जिसमें श्रोताओं की अन्तिम समय तक रूचि बनी रही। कार्यक्रम का संचालन गुरुकुल पौंधा के आचार्य डा. धनंजय आर्य ने प्रभावशाली रूप में किया। कार्यक्रम के आरम्भ में श्रीमती मीनाक्षी पंवार के दो भजन हुए। आर्य उप-प्रतिनिधि सभा, देहरादून के प्रधान श्री शत्रुघ्न मौर्य ने स्वागत भाषण दिया। कार्यशाला में मुख्य अधिकारिक सम्बोधन आर्य जगत के सुप्रसिद्ध विद्वान आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी ने दिया।

आचार्य आशीष दशर्नाचार्य ने सम्बोधन से पूर्व श्रोताओं को कुछ लम्बी व गहरी सांसे दिलाकर उनके मन को स्थिर व एकाग्र कराया और ईश्वर प्रार्थना करते हुए कहा कि परमेश्वर हमारे पास उपस्थित है। हम ईश्वर से भावात्मक संबंध स्थापित करें। ईश्वर को अपने भीतर विद्यमान जान व मानकर हम पूरी सजगता को स्थापित करें। कविता में प्रार्थना करते हुए उन्होंने कहा हे कीर्तिमय आओ, हे ज्योर्तिमय आओ। युगो युगो से बुझी हुई है जीवन ज्योति हमारी। सूर्य चन्द्र तारे नक्षत्र तेरे तो अनुगामी, मेरी सूनी कुटिया में प्रभु ज्ञान का दीप जलाओ। हे ज्योतिर्मय आओ।’ इसके बाद आपने सामवेद के प्रथम मन्त्र अग्न याहि वीतये गृणानो हव्य दातये। नि होता सत्सि बर्हिषि।।’ का पाठ किया। आचार्य आशीष जी ने प्रश्न किया कि दो व्यक्ति के संबंध मधुर कैसे बनें? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हम परिवार तक ही सीमित न होकर समाज को भी इसमें सम्मिलित करें। राष्ट्र को भी इसमें सम्मिलित कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि इस विषय को मनोविज्ञान व कार्य-कारण सिद्धान्त आदि से समझने का प्रयत्न करें।

आचार्य जी ने प्रश्न किया कि लोगों के बीच सम्बन्ध कब उत्पन्न होता है? उन्होंने कहा कि जब कोई व्यक्ति मुझे अपना लगता है तो उसके प्रति प्रेम उत्पन्न होता है। हममें अपनत्व का भाव तब आता है जब हम सामने वाले व्यक्ति को अपने जीवन से जुड़ा हुआ देख पाते हैं। आचार्य जी ने नदी का उदाहरण देेकर कहा कि जब हम जल में अपने प्राणों की रक्षा के लिए सघर्ष कर रहे होते हैं, उस समय यदि हम नदी में कोई दूसरा व्यक्ति देख लें जो हमारे समान ही संघर्ष कर रहा हो तो उसके प्रति हमारे अन्दर अपनत्व की भावना उत्पन्न होती है। अपने समान दूसरों को जीवन में संघर्ष करते हुए देखकर हमारे अन्दर उनके प्रति अपनत्व का भाव पैदा होता हे। इस प्रकार उत्पन्न अपनत्व के भाव से ही मधुर सम्बन्प्धों का आरम्भ होता है। मधुर सम्बन्धों के लिए हमें अपने ऊपर फोकस करना होता है। उन्होंने कहा कि क्या हम देने व पाने में एकाग्र हैं, इसका उत्तर हमें अपने अन्दर ढूढंना होगा। आचार्य जी ने घर पर आये एक अतिथि का उदाहरण दिया और कहा कि ऐसी स्थिति में हमें अपनी मानसिक स्थिति का आंकलन करना चाहिये। उन्होंने पूछा कि हम अतिथि को कुछ देना चाहते हैं या उससे पाना चाहते हैं? उन्होंने कहा कि घर में अतिथि के आने पर हमारा फोकस अपने व्यवहार पर केन्द्रित होता है। हमें इस बात की चिन्ता होती होती है कि हमारा व्यवहार अच्छे से अच्छा हो। जब अतिथि हमारे घर पर होता है तो हमारा फोकस घर से बाहर शिफ्ट नहीं होता। उन्होंने कहा कि परिस्थिति बदलने पर हमारा सोचने का ढंग बदल जाता है। घर में आये अतिथि को हम प्रमुखता देते हैं। उसे सम्मान देते हैं। घर से बाहर निकलने पर हमारी मानसिक स्थिति को क्या हो जाता है। आचार्य आशीष जी ने कहा कि देने वाला व्यक्ति जीवन में अधिक सुखी होता है। उन्होंने कहा कि इसे गहराई से समझने की कोशिश करें।

आचार्य आशीष जी ने कहा कि हमारा मांगने का स्वभाव होता है तो हमें दूसरों के आगे झुकना पड़ता है। ऐसा करके हम गुलामी की झंझीरों में स्वयं को जकड़ने वाला बनते हैं। मांगने में सुख की चाह व अनुकूलता छुपी होती है। उन्होंने पूछा की चाह बन्धन में जकड़ेगी या स्वतन्त्र बनायेगी? यदि मैं अपना सुख अपने सामने वाले को सौंप रहा हूं तो सोचिए कि कहीं मैं अपने आपको गुलाम तो नहीं बना रहा हूं। दूसरों से सुख की मांग करने पर हम परतन्त्र हो जाते हैं। हम जिससे चाह करते हैं वह अच्छा व्यवहार भी कर सकता है। उससे हमारी इच्छायें पूरी हों भी सकती हैं और नहीं भी। वह हमारे प्रति शिष्टता भी कर सकता है और नहीं भी। उसका व्यवहार समान रहेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। यह बात असम्भव है कि समाने वाला व्यक्ति हमारे प्रति हमेशा व्यवहार करेगा।

आचार्य जी ने कहा कि हमारी इच्छायें कई प्रकार की होती हैं। सम्भव कोटि की इच्छायें पूरी हो सकती हैं। मधुर सम्बन्ध अन्दर की मधुरता व मन की शान्ति पर टिकता है। यदि हम स्वयं के प्रति मधुर नहीं होंगे तो हम दूसरों के प्रति भी मधुर नहीं हो सकते। हम अपने अन्दर जितना शान्त होंगे उतना हमारा व्यवहार मधुर होगा। उन्होंने कहा कि मुझे अपनी शान्ति को अपने हाथ में रखना है। यदि दूसरों से अपेक्षा करेंगे तो हम गुलाम बन सकते हैं। दूसरों से अपेक्षा करने व निर्भर होने से हमारी मधुरता समाप्त होती जाती है। जब हम अपने अन्दर शान्त व मधुर होते हैं तब आगे की श्रृंखला ठीक होती है। उन्होंने प्रश्न किया कि जीवन है क्या? इसका उत्तर उन्होंने दिया कि जीवन में उतार व चढ़ाव अर्थात् Ups an Downs का होना ही जीवन है। आचार्य जी ने प्रातःकाल उठकर यह संकल्प लेने के लिए कहा कि आज हम शान्त रहेंगे। अपने सामने वाले पर फोकस नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि जब आप दूसरों से व्यवहार करें तो आपका फोकस अपने व्यवहार पर होना चाहिये। ऐसा करने से हमारे अन्दर सकारात्मक परिवर्तन आना आरम्भ हो जाता है। उन्होंने कहा कि हमें दूसरों से व्यवहार करते हुए उन पर फोकस नहीं करना चाहिये। हमें यह ध्यान देना चाहिये कि कहीं हम दूसरे की कमियों पर तो फोकस नहीं कर रहे हैं। सम्बन्धों में लम्बे समय तक मधुरता तभी सम्भव है जब कि मेरे मन में शान्ति हो। उन्होंने कहा कि यदि हम नकारात्मक बातों पर फोकस करेंगे तो हमारे मन में भी उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इससे अशान्ति आयेगी। उन्होंने कहा कि अशान्ति का कारण कोई दूसरा व्यक्ति नहीं अपितु हम स्वयं होते हैं परन्तु हमारी उंगली सामने वाले पर ही उठती है। यदि मैं अच्छी बातों की प्रशंसा के स्थान पर बुरी बातों पर ध्यान दूंगा तो हमारे स्वभाव में अशान्ति व चिड़चिड़ापन आयेगा। हममें जब तक दूसरों के प्रति अपनत्व पैदा नहीं होगा तब तक हमारे संबंधों में मधुरता नहीं आयेगी। हमें अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ अपना फोकस सकारात्मक रखना होगा। उन्होंने कहा कि हममें व दूसरों में शत प्रतिशत सकारात्मकता व पूर्ण आदर्श स्थिति सम्भव नहीं है। यदि परिवार के सदस्यों के प्रति हमारा फोकस पाजिटिव होगा तो हम साथ साथ रह सकेंगे अन्यथा हमें अलग अलग होना पड़ सकता है।

आचार्य जी ने कहा कि यदि हम अपने मानसिक स्तर पर सजग होंगे तो हमें सफलता प्राप्त होगी। अपने संबंधों के प्रति हमें अपना दायित्व निभाना है। हमें संबंधों की सूक्ष्म बातों को समझना व पहचानना है। उन्होंने कहा कि प्रसन्न रहना एक आदत है। इस आदत को हमें जल्दी से अपने जीवन में ले आना चाहिये। हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी कि हम दुःख व कष्टों में भी शान्त रहेंगे। ऐसा करना हमारे लिए सम्भव है। उन्होंने आगे कहा कि जब तक हम अपने स्वभाव को बदल कर उसे हर हाल में सुखी नहीं रखेंगे तब तक हम परमानन्द की कल्पना नहीं कर सकते। मोक्ष से पूर्व जीवन मुक्त बनाना होता है। एक महत्वपूर्ण बात आचार्य जी ने यह भी कही कि जो मनुष्य जीवन में दुःखों से मुक्त नहीं हुआ वह मर कर भी मुक्त नहीं हो सकता। आचार्य जी ने कहा कि कुछ लोगों को हम सहन नहीं कर पाते। उन्हें सहन करने में हमारे अन्दर कमी है। वही हमारी अशान्ति के निमित्त वा कारण बनते हैं। उनके सम्पर्क से मैं अपना सन्तुलन खो बैठता हूं। उससे स्वयं को असहज महसूस करता हूं। इस परिस्थिति को भी सकारात्मक रूप में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि जिस व्यक्ति ने अपने मानसिक स्तर को अनुकूल व प्रतिकूल स्थितियों में सहन करने योग्य बना रखा है, वह व्यक्ति प्रतिकूलताओं में भी शान्त व प्रसन्न रह सकता है। आचार्य जी ने अपनी मानसिकता को बलवान बनाने को कहा। उन्होंने कहा कि घर में जब बातें करें तो अपनी आवाज को कम रखें। जोर से न बोलें। आचार्य जी ने कहा कि सन्तान का निर्माण भी हम उसी सीमा तक कर सकते जहां तक कि हम पहुंचे होते हैं। सन्तान को स्वयं से अधिक योग्य बनाने के लिए अच्छे अध्यापक या समाज के अधिक ज्ञानी लोगों की आवश्यकता होती है। श्रेष्ठ सन्तान का निर्माण करने के लिए हमें श्रेष्ठ जीवन पद्धति से जुड़ना चाहिये। उन्होंने कहा कि बच्चे सुन कर कम तथा देख कर अधिक सीखते हैं। आचार्य जी ने ईश्वर को जानकर उससे जुड़ने को कहा और योगाभ्यास की सलाह दी।

आचार्य  जी ने बच्चों में तुलना किये जाने की मनोविज्ञान के आधार पर समालोचना की। उन्होंने कहा बच्चों की परस्पर तुलना करते हुए माता-पिता की भावना तो अच्छी होती है परन्तु उन्हें मनोविज्ञान पर आधारित व्यवहार करना नहीं आता। बच्चों की परस्पर तुलना न कर उनको अच्छे कार्य करने की प्रेरणा करनी चाहिये। श्रेष्ठ सन्तान निर्माण की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि दो सन्तानों की तुलना करने का अर्थ दो हृदयों में जहर घोलना होता है। जो व्यक्ति बच्चों की तुलना करता है उसकी छवि गलत बनती है। अपने बच्चों की दूसरों के साथ नकारात्मक तुलना करने से माता-पिता को बचना चाहिये। आचार्य जी ने कुछ ऐसे उदाहरण भी दिये जिसमें पिता दूसरे बच्चों की तो प्रशंसा करते हैं परन्तु अपने बच्चे वही कार्य करें तो प्रशंसा नहीं करते। उन्होंने कहा कि माता पिता को अपने बच्चों के अच्छे कार्यों की प्रशंसा करने के अवसर ढूंढने चाहिए जिससे बच्चों में उत्साह पैदा होगा। बच्चों की अधिक सक्रियता व हानि के कार्य करने की निन्दा न कर माता-पिता को उन्हें व्यस्त रखने के उपयोगी कार्य देने चाहिये जिससे उनकी उर्जा रूके नहीं अपितु अपनी उर्जा से वह उपयोगी कार्यों को करें। बच्चों को जिस कार्य के लिए मना किया जाता है उसका उन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यदि बच्चे अपने कामों के लिए माता-पिता से बहुत अच्छा, ऐसा ही किया करो, इसे बनाये रखो, तुमने यह काम अच्छा किया जैसे शब्द सुनेंगे तो वह आत्मविश्वासी बनेंगे। बच्चे के जिस कार्य की प्रशंसा होगी उस कार्य को वह अधिक करेगा। बच्चों को अच्छा कार्य करने में लगायंेगे तो वह क्रियेटर बनेगा। आचार्य जी ने कहा कि जनसंख्या की दृष्टि से हमारे देश में वैज्ञानिक बनने की दर यूरोपीय देशों की तुलना में कम है जिसका कारण माता-पिता का बच्चों के प्रति व्यवहार भी हो सकता है। आचार्य जी ने कहा कि जो बातें हम जानते हैं उनके अनुसार बच्चों के निर्माण में योगदान करें। इसके बाद आचार्य जी ने श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर दिये।

आचार्य आशीष जी के बाद आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तराखण्ड के यशस्वी प्रधान श्री गोविन्द सिंह भण्डारी जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि श्रोतागण आज आचार्य आशीष जी के विचारों को सुनकर अभिूभूत, प्रसन्न व सन्तुष्ट दीख रहे हैं। उन्होंने कहा कि मधुर पारिवारिक सम्बन्ध बहुत आवश्यक हैं। समाज में ऐसी कार्यशालाओं की नितान्त आवश्यकता है। श्री भण्डारी ने कहा कि महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना श्रेष्ठ मनुष्य के निर्माण के लिए ही की थी। उन्होंने कहा कि विश्व को श्रेष्ठ बनाने का दायित्व आर्यसमाज का है। उन्होंने आर्यसमाज को आज भी प्रासंगिक एवं सार्थक बताया। सभागार में उपस्थित सभी लोगों से उन्होंने आर्यसमाज से जुड़ने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति आर्यसमाज से जुड़ता है वह श्रेष्ठ मनुष्य बन जाता है। इसके बाद श्री सुखदेव सिंह वर्म्मा जी ने अध्यक्षीय भाषण देते हुए सबका धन्यवाद किया और सबसे भविष्य की कार्यशालाओं में भी सहयोग करने को कहा। इस आयेाजन के मुख्यकेन्द्र बिन्दु यशस्वी आर्य नेता श्री प्रेम प्रकाश शर्मा ने अपने सम्बोधन में कहा कि समाज की परिस्थितियों को ठीक ठाक करने व समस्याओं के समाधान के लिए ही आज का विषय चुना गया था। उन्होंने कहा कि आपने जिस प्रकार ध्यान पूर्वक आचार्य जी की बातों को सुना है उससे लगता है कि आप इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं। आचार्य जी ने आपके सम्मुख समस्या के उचित व अनुचित पक्ष को रखा है। सत्य को ग्रहण करना व उसे जीवन में ढालने से ही लाभ होगा। श्री शर्मा ने नशे व शराब को परिवार टूटने का एक कारण बताया। उन्होंने इसके विरुद्ध अभियान चलाने की जानकारी दी और गुजरात तथा बिहार की तरह सरकार से उत्तराखण्ड में शराब बन्द करने की मांग की। उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड देवभूमि है अतः हमारा आचार व विचार भी देवों के अनुरुप ही होना चाहिये।

सभा में प्रस्ताव किया गया कि स्वामी जी के देहरादून आने पर जिस स्थान पर स्वागत किया गया था उस स्थान का नाम ‘‘स्वामी दयानन्द चैक” रखा जाये। करतल ध्वनि से यह प्रस्ताव स्वीकार किया गया। आचार्य धनंजय जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि यदि वैदिक मूल्यों के अनुसार हमारा जीवन होगा तो हमारे घर स्वर्ग बन जायेंगे। आज के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री अरुण दण्ढ ने अपने सम्बोधन में आशा प्रकट की कि आज के कार्यक्रम से युवाओं को लाभ होगा। उन्होंने कार्यशाला के विषय को महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने कहा कि समाज में अच्छाईयां फैलाना कठिन तथा बुराईयां फैलाना आसान है। उनके अनुसार हमने पाश्चात्य संस्कृति की बुराईयों को ही अधिक ग्रहण किया है जबकि उसमें अच्छाईयां भी हैं। श्री धनंजय आर्य ने बताया कि ऋषिकेश का रामझूला उनकी देख रेख व मार्गदर्शन में बनकर तैयार हुआ है। आर्य संस्थाओं का यह आयोजन देहरादून में अपनी तरह का संस्था की चारदीवारी से बाहर असरदार अपूर्व आयोजन है। सारा सभागार प्रौढ़ श्रोताओं से पूरा भर गया था। विगत तीस-पैंतीस वर्षों में ऐसा सफल आयोजन देहरादून में पहली बार हुआ जिसकी सफलता का श्रेय आचार्य आशीष जी सहित डा. धनंजय आर्य, श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी और श्री शत्रुघ्न मौर्य सहित जिला सभा के अधिकारियों, सभी आर्यसमाजों व श्रोताओं को भी है

मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “मांगने के स्वभाव वालों को दूसरों के सामने झुकना पड़ता है जो गुलामी का प्रतीक है: आचार्य आशीष दर्शनाचार्य

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनमोहन भाई जी, ‘मधुर पारिवारिक मिलन एवं श्रेष्ठ सन्तान निर्माण कार्यशाला’ नाम को सार्थक करते हुए अति सुंदर व सार्थक आलेख के लिए आभार.

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने के लिए। आभार। सादर।

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