गीत/नवगीत

गीत : मधु माधुरी ज़िन्दादिली !

मधु माधुरी ज़िन्दादिली, उद्यान प्रभु के है खिली;

विहँसित प्रखर प्रमुदित कली, जल गगन अवनि से मिली !

बादल बदलते रूप निज, हर घड़ी रहते सृजन रत;
उर्मि बिखेरे सूर्य नित, भव रूप दिखलाता अमित !
सुन्दर सुहागिन सी सजी, हर पहाड़ी लगती सुधी;
बहती नदी कल कल सधी, चिर चेतना संवित बुधी !

मानव निहारे नवलता, हर लता तन्तु अखिलता;
मन मयूरी की उर व्यथा, सानिध्य की सुन्दर कथा !
सुर में सकल प्राणी प्रमित, धन धान्य पा कर अपरिमित;
‘मधु’ बूझते जग पहेली, राधा की बनके सहेली !

— गोपाल बघेल ‘मधु’

टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा