संस्मरण

मेरी कहानी 143

आख़री रात मुम्बई में बिता कर जब सुबह तीन वजे अलार्म ने हमें उठने की चितावनी दी तो हम को उठना ही पड़ा। जितने भी दिन हम ने मुंबई में बिताए, बहुत मज़े के दिन थे और इस के बाद हमे मुंबई जाने का कभी वक्त नहीं मिला। दिसम्बर 2003 में जब हम गोआ की हॉलिडे पर थे तो सोच रहे थे कि दो दिन के लिए मुंबई जा आएं लेकिन हम ने हम्पी देख्ने का प्रोग्राम भी बनाया हुआ था जिस में हमारे तीन चार दिन खर्च हो जाने थे और हमारे साथ चार और भी मैम्बर थे। कुछ भी हो हम फिर कभी मुंबई जा नहीं सके। उठ कर हम जल्दी जल्दी तैयार हो गए। पुन्नी ने चाय बना ली थी और दो दो टोस्ट भी बना लिए थे। चार वजे हम तैयार बैठे थे। जीत का भाई ठीक चार वजे घर आ गया और उस ने समान गाड़ी में रखा। सब को सत सिरी अकाल बोल कर हम जीत के घर की ओर चल पड़े। जीत भी तैयार बैठा था और हम एअरपोर्ट की तरफ चल दिए।

एअरपोर्ट पर हमे ज़्यादा वक्त नहीं लगा और चैक इन की भी कोई खास जरूरत नहीं थी, सीधे जहाज़ की तरफ रवाना हो गए जो रनवे पर खड़ा था। जब हम जहाज़ में अपनी सीटों के पास आए तो मैंने देखा बिंदर एक सीट पर बैठा था। हम हैरान हो गए कि बिंदर इस वक्त कहां से आ गया। बिंदर का धियान अखबार पढ़ने में था। उस के पास आ कर उस के कंधे पर मैंने हाथ रखा तो बिंदर भी हैरान हो गया और बोला,” मासड जी ! आप ने भी इसी फ्लाइट में जाना था? “, मैंने हंस कर कहा, हम तेरे साथ हांगकांग जा रहे हैं। इस के बाद मैंने बताया कि एअर इंडिआ में हमारी सीट दिली तक बुक थी और कुछ दिन के लिए आप लोगों से मिलने का हम ने प्रोग्राम बना लिया था। बिंदर ने बताया कि यही फ्लाइट दिली से हांगकांग जाएगी और वह दिली उतरेगा नहीं।

इस के बाद हम अपनी सीटों पर बैठ गए। अभी कुछ मिनट ही हुए थे कि ब्रेकफास्ट की खुशबू आने लगी और जल्दी जल्दी सब के आगे ब्रेकफास्ट से भरी ट्रे आने लगी। ऐसा इंडियन ब्रेकफास्ट जिस में स्वादिष्ट आमलेट था, खा कर आनंद आ गया। मज़े से चाय का भी मज़ा लिया। ब्रेकफास्ट लेने के बाद जल्दी ही दिली के नज़दीक आने की अनाउंसमेंट हो गई। इतनी जल्दी हम दिली पहुंच गए, हम हैरान थे क्योंकि ट्रेन में तो दो रातें और एक दिन मुंबई से पंजाब जाने का समय लग जाता था। बिंदर को बाई बाई कह कर हम ने अपने बैग उठाए और जहाज़ के लैंड होने पर सीधे एअरपोर्ट काम्प्लैक्स में आ गए। वहां ही हम ने कुछ पाउंड कैश कराए और बाहर आ गए।

कुलवंत का बहनोई अवतार सिंह और उस का बेटा बहादर बाहर खड़े दिखाई दिए और हम खुश हो गए उन्हें देख कर। अवतार सिंह को हम ने सत सिरी अकाल बोला और गाड़ी की ओर चल पड़े जो नज़दीक ही खड़ी थी। आज अवतार सिंह बहुत खुश था क्योंकि बहादर को दिली पुलिस में नौकरी मिल गई थी। बातें करते करते हम तिलक नगर पहुंच गए। कुलवंत की बहन और उस की दो बहुएं घर के बाहर ही बैठी थीं क्योंकि बाहर मज़ेदार धूप थी। सर्दी की ठंडी में धूप का नज़ारा भी कितना लुभावना होता है। मुंबई में तो बहुत गर्मी थी लेकिन यहां दिली में तो एअरपोर्ट से उतरते वक्त सर्दी से हम ठिठुर ही गए थे।

कुलवंत की बड़ी बहन माया कुलवंत के गले लग गई और बहुएं भी नज़दीक आ गईं और मेरे चरण स्पर्श किए जो मुझे बहुत अजीब लगा क्योंकि इससे पहले किसी ने मेरे पैर छूए ही नहीं थे। बहादर सारा समान भीतर ले गया था और हमे भी भीतर आने को कहा गया। चाय के लिए पतीला गैस कुकर पर रख दिया गया और हम बैठ कर बातें करने लगे। भीतर ठंड बहुत महसूस हो रही थी। मैंने कहा कि क्यों ना हम चाय बाहर ही पी लें क्योंकि बाहर मौसम खुशगवार था। घर के बाहर रखी हुई चारपाइयों पर हम बैठ गए, आगे छोटी सी सड़क ही थी और लोग आ जा रहे थे, कोई बाइसिकल पर, कोई मोटरबाइक पर और कोई यूं ही पैदल चल रहा था। मुझे यह नज़ारा बहुत अच्छा लगा।

एक रेहड़ी वाला जिस की रेहड़ी के ऊपर गोभी, गाजरां, बैंगन और कुछ और सब्जिआं रखी हुई थीं, धीरे धीरे इस को धकेलता हुआ जा रहा था। गांव जैसा यह नज़ारा बहुत अच्छा लग रहा था। हम चाय पीने लगे। अवतार सिंह का सुभाव बहुत कड़वा है, जब बात करता है तो लगता है जैसे लड़ रहा हो लेकिन सिर्फ मेरे साथ ही वह बहुत अच्छा बोलता है, मेरे साथ तो वह हमेशा खुश और हंस कर ही बोलता है। बहुत से रिश्तेदार तो उस से डरते भी हैं लेकिन मुझे ऐसी कोई समस्य नहीं आई बल्कि मेरी तो वह आज तक मदद ही करता आया है।

बातें करते करते में और अवतार सिंह दुकानों की ओर चल पड़े क्योंकि मैंने इंग्लैंड बच्चों को टेलीफोन करना था। एक पीसी ओ जो एक दुकान के बीच ही था और दुकानदार अवतार सिंह को जानता ही था, भीतर जा कर हम बैठ गए। हम से पहले भी कुछ लोग बैठे थे। कोई बीस मिनट में मुझे चांस मिल गया। मैंने बेटे और बहु से बातें कीं और उन को समझा दिया कि वह पिंकी रीटा को बता दें कि हम अब दिली आ गए थे। पीसी ओ से निकल कर हम तिलक नगर के बाज़ार में आ गए, मुझे तो एरिये की कोई वाकफियत नहीं थी लेकिन क्योंकि मेरा पैर दर्द कर रहा था, इस लिए मैंने नए सॉफ्ट शूज़ लेने थे।

एक दुकान में हम गए और सॉफ्ट शू दिखाने को कहा। दुकानदार ने बहुत से जूते मेरे आगे रख दिए। एक मुझे पसंद आ गया जो बहुत ही नरम था। कीमत उस ने 900 रुपए बताई तो अवतार सिंह उस से बहस करने लगा और आखर में उस ने आठ सौ के दे दिए। मुझे बहुत हैरानी हुई और सोचने लगा कि अब मुझे इंग्लैंड भूल जाना चाहिए। कुछ देर पहले अवतार सिंह ने हँसते हुए मुझे कहा था, ” गुरमेल ! तू संदीप की शादी करके आया है, आज हम घर में मस्ती करेंगे। मैं उस का इशारा समझ गया था। रास्ते में ही एक वाइन शॉप आ गई। हम दोनों दुकान के भीतर चले गए और अवतार सिंह को कहा, “भा जी ! अपनी मन पसंद की बोतल ले लें “, क्योंकि मुझे तो इंडिआ के ब्रैंड का पता नहीं था, इस लिए अवतार सिंह ने एक बोतल ले ली। नजदीक ही एक दुकान में चिकन रोस्ट हो रहे थे और हम ने दो ले लिए। इधर उधर घूम कर हम वापस घर आ गए।

अब घर बैठे हम टीवी देख रहे थे और बातें कर रहे थे। फिर अवतार सिंह हंस कर बोला, “बई अब संदीप की पार्टी है, ग्लास लाओ और उस ने बोतल बैग से निकाली। अवतार सिंह के तीन बेटे हैं, तीनों बहुत अच्छे हैं। एक कमरे में ही सब बैठे थे, क्या बातें हुई, कुछ खास याद नहीं लेकिन हंसी मज़ाक बहुत हुआ था। देर रात तक खाते पीते और बातें करते रहे और दूसरे दिन का प्रोग्राम हम ने बना लिया था। यूं तो दिली हम बहुत दफा आ चुके थे, फिर भी हम ने घूमने की गरज से चांदनी चौक और उस के बाद लाल किला और कुतब मीनार जाने का तय कर लिया। सुबह उठ कर नहाया धोया,पराठे खाए और बहादर ने एक बड़ी गाडी के लिए किसी को टेलीफून किया। यह किराए की गाडी थी और बड़ी का ऑर्डर इस लिए दिया की सबी घर वालों ने हमारे साथ जाना था।

गाडी आते ही बच्चे सब से पहले ही चढ़ गए थे। गाडी भर गई थी। बहादर ने गाडी वाले को सब समझा दिया कि कहाँ कहाँ जाना था। सब से पहले बंगला साहब गुरदुआरे में चले गए। यह गुरदुआरा कनाट प्लेस में है और इसे सिखों के जरनैल बाबा बघेल सिंह ने बनाया था जो कुछ समय दिली पर काबज रहा था, गुरदुआरा काफी सुन्दर है। माथा टेक कर और परशाद ले कर कुछ देर इधर उधर घुमते रहे और फिर यहाँ से रकाब गंज गुरदुआरे के दर्शन करने चले गए। यह गुरदुआरा उस जगह पर सथित है, यहाँ गुरु तेग बहादर जी का अन्तम सस्कार किया गिया था। जब औरंगजेब के हुकम से सिखों के नौवें गुरु, बाबा तेग बहादर जी का शीश कलम कर दिया गिया था तो एक सिख गुरु जी का शीश ले के आनंद पुर साहब चले गिया था और गुरु गोबिंद सिंह जी ने पिता जी के शीश का सस्कार किया था। इसी तरह एक सिख गुरु जी का शरीर ले गिया और अपने घर में ही रख कर अपने घर को आग लगा दी थी और इज़त के साथ शरीर का सस्कार कर दिया था। इस घर की जगह पर ही दिली का यह रकाबगंज गुरदुआरा है।

इस के बाद हम चांदनी चौक के गुरदुआरा शीश गंज साहब चले गए। इस जगह पर ही गुरु तेग बहादर जी को शहीद किया गिया था। औरंगजेब का हुकम था कि या इस्लाम धारण करो, या मरने के लिए तैयार हो जाओ। इस्लाम धारण करने से इनकार करने पर ही औरंगजेब ने यह नीच काम किया था । इस गुरदुआरे में ही एक खूही है, जिस पर गुरु तेग बहादर जी ने शहादत से पहले स्नान किया था। इस खूही की ओर देख कर कुछ देर तक मैं उस समय का सीन मन में सोचता रहा। गुरदुआरे में हम ने लंगर छका और कुछ देर ठहर कर हम लाल किले की ओर चले गए। यूं तो यह बहुत दफा देखा हुआ था लेकिन फिर भी हम ने कुछ समय यहाँ बिताया और अब आख़री मंजिल हमारी कुतब मीनार थी।

कुतब मीनार पहुंच कर मुझे 1961 की याद ताज़ा हो गई जब हम इस के ऊपर चढ़े थे। कुतब मीनार के बीच गोल गोल सीढ़ियां ऊपर को जाती थी , अंधेरा ही अंधेरा था और कभी कभी कोई झरोखा आ जाता तो लौ हो जाती। ऊपर पहुंच कर हम ने फोटो खींची थी। अब तो शायद ऊपर जाने नहीं देते। 1961 का और अब का यह फर्क था कि तब मैं इन एतहासिक जगहों को सिर्फ देखता ही था और अब मैं मन ही मन में उस वक्त का चित्रण करने लगा था। यहां बहुत सी कोचेंं खड़ी थीं जिन में टूरिस्ट इसे देखने आए थे। यहां हम ने छोटी सी पिकनिक पार्टी की क्योंकि कुलवंत की बहन ने बहुत कुछ बनाया हुआ था। कुछ गोरे मिले जो हमारे नज़दीक के टाऊन में ही रहने वाले थे, उन से काफी बातें हुई।

अब कुछ कुछ ठंड होने लगी थी और हम वापस चल पड़े। घर आ कर बातें करते रहे और दूसरे दिन हम ने फगवाङे के लिए ट्रेन की सीट बुक करानी थी। सुबह को बहादर के मोटर बाइक पर में पीछे बैठ गया लेकिन मुझे इस भीड़ भाड़ से डर लग रहा था, खास कर जब बहादर वन वे ट्रैफिक पर गलत दिशा में जा रहा था तो मैंने कहा,” बहादर ! यह तो गलत साइड है और खतरनाक है “, बहादर बोला ! मासड़ जी, फिकर ना करो, यहाँ सब जानते हैं “, मैं सोचने लगा कि बहादर तो खुद दिली पुलिस में है और यह भी कानून तोड़ रहा है, तो मैंने आगे कुछ नहीं बोला।

एक रेलवे के दफ्तर में हम पहुंच गए यहां सीट बुक कराने के लिए लोगों की बहुत लाइनें लगी हुई थी। यह भी मेरे लिए नया ही तज़ुर्बा था। बहादर ने मेरी मदद कर दी और फार्म भर के मेरे साथ ही लाइन में खड़ा हो गया। शाने पंजाब की सीट बुक हो गई जो शायद सुबह दस वजे चलती थी और फगवाड़े तीन या चार वजे पहुंचती थी। सीट बुक करा के हम वापस आ गए और बहादर काम पर चले गया। आज सारा दिन हम ने कोई खास काम नहीं किया, बस घर के बाहर बैठे धूप का मज़ा लेते रहे। दूसरे दिन सुबह बहादर का बड़ा भाई बिटू हमे ट्रेन स्टेशन पर ले गया। मेरे लिए एक और नया तज़ुर्बा था कि बिटू ने हमे हमारे नाम और सीटों के नंबर एक नोटिस बोर्ड पर दिखाए जो कम्पयूटर शीट पर थे। कितना कुछ बदल गया था इन सालों में।

सीटों पर हम बैठ गए थे और बिटू बाहर खड़ा हमारे साथ बातें कर रहा था। कुलवंत ने बिटू को सौ रुपए पियार दिया, वह नाह नाह करता रहा और ट्रेन चल पड़ी। अब मेरा सारा धियान फगवाड़े की ओर था, वह शहर जो अब तक मेरी यादों का खज़ाना रहा है। शाने पंजाब ट्रेन हमे बहुत अच्छी लगी क्योंकि सीटें बहुत अच्छी थीं। खिड़की से हम बाहर का नज़ारा देख रहे थे। हमारे समय के भारत और आज के भारत में बहुत कुछ नयापन लग रहा था। बारह तेरह साल का एक लड़का चॉकलेट और अन्य स्वीट्स वेच रहा था। इंग्लैंड में जो चॉकलेट खाते थे, उस के पास थे। कैडबरीज फ्रूट ऐंड नट मेरा फेवरिट रहा है। दो बड़े चॉकलेट मैंने उस से ले लिए और रैपर उतार कर चॉकलेट में हेज़ल नट का आनंद लेने लगा।

बाहर धूप चमक रही थी, गेहूं और कहीं कहीं सरसों के पीले पीले खेत देख कर बचपन की यादें ताज़ा हो रही थी। गाड़ी में कोई भीड़ नहीं थी, मज़े से बैठे थे। सफर का पता ही नहीं चला, कब स्कूलों का वक्त हो गया और एक स्टेशन से पंद्रह सोला की आठ दस लड़कीआं हाथ में किताबें लिए हमारे डिब्बे में चढ़ गईं और हमारे सामने ही बैठ गईं और किसी मयूजिक लैसन के बारे में बातें करने लगीं। कुछ देर बाद वह आपस में मिल कर गाने लगीं और मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। दूसरे स्टेशन पर सभी उतर गईं। जब गाड़ी अम्बाले स्टेशन से चली तो फगवाड़े पहुंचने में ज़्यादा देर नहीं लगी।

छोटा भाई निर्मल और उस का बेटा कमलजीत प्लैटफॉर्म पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे। सत सिरी अकाल बोल कर जल्दी जल्दी समान उतारा, दो मिनट बातें करके गेट पर टिकट दे कर बाहर आ गए। अब हमारे सामने वह ही रेलवे सटेषन था जो हमारे लिए घर जैसा ही था। लाल लाल कपड़े और बाजू पर पीतल के बैज लगाए कुली स्कूल कालज के दिन याद दिला रहे थे। कुछ नहीं बदला था। निर्मल की गाड़ी नज़दीक ही खड़ी थी। समान इस पर रख के बातें करते हुए हम राणी पर की ओर चल पड़े।

चलता . . . . .

 

6 thoughts on “मेरी कहानी 143

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपकी हवाई व रेल यात्रा के सुखद वर्णन पढ़ कर प्रसन्नता हुई। दिल्ली में अपने सम्बन्धियों के साथ आनंद में बिताए पलों में हम सम्मिलित हो सके, इसकी भी प्रसन्नता है। आपने पुरानी यादो को संजो कर इन्हें स्थाई रूप तो दिया ही है साथ ही हमे भी उसमे भागीदार बनाया, इसके लिए हार्दिक धन्यवाद। नमस्ते श्रद्धेय श्री गुरमेल सिंह जी।

    • मनमोहन भाई , धन्यवाद .जब कोई दिल की कहानी सुनाता है और कोई धियान से सुन रहा होता है तो सुनाने वाले को भी आनंद मिलता है, वर्ना ऐसा लगता है जैसे कहानी कहने वाला जंगल में अकेला ही ब्रिक्षों को सुना रहा है .

      • Man Mohan Kumar Arya

        आपने जो कहा है वह हम सबका अनुभव है। किसी भी लेखक को अच्छे प्रशंसक व समालोचक मिलने पर भी लेखक का परिश्रम सफल होता है। सादर नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने तो एक-एक ऐतिहासिक इमारत का इतिहास बताकर हमें पूरी दिल्ली घुमा दी, जहां हम 49 साल से रह रहे हैं. एपीसोड बहुत मज़ेदार लगा. एक और अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

    • लीला बहन ,आप तो भाग्यवान हैं जो देश के दिल में रह रहे हैं .दिली में तो अभी बहुत कुछ है जो मैंने अभी तक देखा ही नहीं .इस दिली में तो पांडव कौरव से ले कर मोदी जी तक का इतहास है .अगर भाग्य में हुआ तो पहले दिली में ही आयूंगा .

      • लीला तिवानी

        प्रिय गुरमैल भाई जी, हमें उस दिन की प्रतीक्षा रहेगी. आपको दिल्ली घुमाते-घुमाते हमें भी इतिहास की जानकारी मिल जाएगी.

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