धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

गंगा जमुनी संस्कृति

भारत एक अति प्राचीन देश है इस की संस्कृति भी उतनी ही प्राचीन है। विश्व की अधिकांश संस्कृतियां या लगभग सभी संस्कृतियां इस के समक्ष अभी यौवन को छू भर रहीं हैं। संस्कृति मानवीयता के उदात्त नियमों को परिभाषित करती है और प्रोत्साहित करती है सभ्यता अपने परिवर्तन शील नियम के अनुसार सदा आकर्षित रहती है।

भारत में इस प्राचीन संस्कृति के दोहन का, प्रतिकार का और इस में अनेकों छिद्र करने का कार्य निरंतर होता रहा है। उन्हीं में से एक है यह नया नारा – गंगा जमुनी संस्कृति का। संस्कृति के विभिन्न रूप कैसे हो गए जबकि संस्कृति अपने उदात्त मूल्यों के प्रति समान रूप से सदा आस्थावान और आशावान रही है। फिर इस का विभाजन सभ्यता की आड़ ले कर और उसे संस्कृति के बनावटी वस्त्र पहना कर कैसे और कब हो गया विचरणीय यह है।

भारत परतंत्र हुआ तो आगत संस्कृतियां यहां बलात आ गईं और फिर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हो गईं परन्तु वे यहां अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर सकीं तो उन्होंने एक नया शिफूगा छेड़ा गंगा-जमुनी संस्कृति का। जब संस्कृत सभी मानवीय मूल्यों का प्रतिनिधित्व सर्वांगता से करती है तो केवल दो ही नदियों के नामोल्लेख से इसे विघटित किया जाने लगा परन्तु यहां तो अनेकों नदियां है भारत बड़ा भू भाग है अनेकों नदियों का यहां महाजाल विस्तृत है तो गंगा जमुना का ही जिक्र करना कहाँ तक न्यायोचित हो गया पर क्योंकि इस के पीछे एक साजिश अवश्य रही है।

संस्कृति सर्वे भवन्तु सुखिन: की बात करती है] दूसरों से द्वेष ईर्ष्या या घृणा करने की बात तो नहीं करती। वह सब को समान अवसर प्रदान करती है आध्यात्मिक साधना की स्वतंत्रता और प्रेरणा प्रदान करती है । तो फिर गंगा और जमुना के नाम पर दो संस्कृतियां कैसे बन गईं। क्योंकि भारत की संस्कृति नदियों के नाम पर नहीं अपितु सद्कर्मों की प्रेरणा ही उस का उद्देश्य है और उन्हें साथ साथ करने का आह्वान भी करती है जिस के अनुसार किसी की कृपा पर स्वर्ग नर्क निश्चित नहीं है अपितु कर्म सिद्धांत के आधार संगत फलागम है।

परन्तु बड़ी चालाकी से गंगा के साथ जमुना का नाम ले कर संस्कृति के विनाश का खेल बड़े आराम से खेला जा रहा है। यह मुहावरा अक्सर उर्दू भाषा और आगत मत के कम संख्या और वर्चस्व हीं रहने तक ही उन के अनुयायियों के द्वारा प्रयोग किया जाता है। पर वे न तो गंगा संस्कृति यानि श्री राम को ही पूर्व व् पूज्य पुरुष मानते हैं और न ही श्री कृष्ण को ही और न ही भारत के पूण्य प्रतिकू को समादर प्रदान करते हैं अपितु सुदूर अरब व् वेटिकन की बहुत अल्पवय संस्कृति को बलात बहांने से या षड्यंत्र के अंतर्गत थोपने का निरंतर प्रयत्न व प्रयास करते हैं।

वे भारत की संस्कृति की हर बात का गंगा जमुनी संस्कृति का नाम ले कर विरोध करने लगते हैं यानि अलगाव वाद को हर तरह तूल देने लगते हैं कि हम यह नहीं करेंगे हमे यह करन मना है हमारे धर्म में ऐसा नहीं है यदि हम यह करेंगे तो हमारा धर्म नष्ट हो जायेगा और उस के लिए हम कुछ भी करने को तैयार हैं तोड़फोड़ ,बलात्कार मानव हत्या , आगजनी , बम विस्फोट और यहां तक उस देश के प्रति षड्यंत्र जिस में रह रहे हैं। उन का सदा आगर्ह रहता है की हम तो अपने धर्म के कानून के अनुसार चलेंगे पर उन्हें भी नहीं अपनी सुविधा के क़ानून तो मन लेंगे जिन में औरत का तिरस्कार आदि है पर चोरी पर हाथ काटने की सजा और आँख फोड़ने का अपना ही क़ानून नहीं मानते हैं। और देश के सर्वमान्य मानवीय कानूनों को भी बदलें एक प्रयत्न हर तरीके से करते रहते हैं। तो क्या यही गंगा जमुनी संस्कृति है।

असल में जो भारत की भारत की संस्कृति मानव मात्र की समानता, न्याय, प्रेम और करुणा आदि मूल्य हैं जिस में विरोध का अधिकार भी मूलयवान रूप से प्रदान किया गया है। पारसषक सौहार्द ही इस की विशेष पहचान है पर जब हर बात के लिए उल्टा चलने की बात की जाये तो वह संस्कृति कैसे हो गई वह तो मात्र विध्वंसकारी विचार धारा से अधिक और कुछ नहीं है।

आखिर यह तो समझाया जाये कि गंगा और जमुना की संस्कृति में क्या अंतर् है पृथक कैसे हो गईं अलग करने के आप के पास कौन से तर्क हैं सिवाय अलगाव को बढ़ावा देने के और अपनी पृथकता बनाए रखने के। जो कि सामाजिक एकता के हर प्रकार से विरुद्ध और अनुचित है क्योंकि जहां आप रह रहे हैं वहां पर पारसषक सौहार्द पहली शर्त होनी चाहिए और इसे दो संस्कृतियां बना कर आप इसे ही पृथकता प्रदान क्र रहे हैं तो यह न तो संस्कृति है और न ही सभ्यता है अपितु मानवीयता के भी विरुद्ध है।

आखिर गंगा जमुना दो नदियां जाती तो समुद्र में ही हैं और समुद्र में जा कर उन का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं बचता है वे अपना सब कुछ विशाल समुद्र को अर्पण कर देती हैं। उन का अपना कुछ भी नहीं बचता है वहां जा कर गंगा और जमुना दोनों ही समुद्र हो जाती हैं तो क्या ये गंगा जमुना की संस्कृति बता कर ये अपने आप को मानवीय समुद्र में विलीन होने को तैयार ही नहीं हैं तो परिदृश्य स्प्ष्ट है कि कटाई तैर नहीं है बात २ पर अपने मत जिसे धर्म कहते हैं के नाम पर पृथक हो जाते हैं विशाल मानसिकता के समुद्र में समाहित होने के लिए वे अपनी कोई भी पहचान छोड़ने को तैयार नहीं है चाहे तिन तलाक की बात हो चाहे महिलाओं के अधिकरों की बात हो चाहे बालिकाओं को शिक्षा देने की बात हो चाहे अन्य मतावलम्बियों से पारसषक सौहार्द की बात हो पर वे हर बात पर फतवा ले आते हैं और जो धर्म ही नहीं है उस धर्म के नाम पर शून्य भी आगे पीछे होने को तैयार नहीं हैं गंगा जमुना कैसे आगे चलेंगी उन का बृहद स्वरूप कैसे आकार ग्रहण करेगा।

गंगा तो प्राचीन समय से ही पावन है पवित्र है सब को सुख प्रदान करने को सदा तटपर है पर यमुना का स्वरूप गंगा से पृथक है तो क्या उसे अपना स्वरूप नहीं त्यागना पड़ेगा यदि नहीं त्यागेगी तो फिर विशाल समुद्र यानि मानवीयता का अंग कैसे बनेगी। फिर समुद्र उसे कैसे स्वीकार करेगा उस में कैसे मानवीयता की हिलोरें उठेंगी। दो बातें एक साथ नहीं चल सकतीं हैं कि आप एकता की बातें भी करें और अपनी बात भी उप्र रखें यह तो पंचयती नियम नहीं है जब आप समझौता कर रहे हैं तो कुछ तो आप को भी पंचों का फैंसला मानना ही पड़ेगा और यदि बार २ पर तुनक मिजाजी करते रहेंगे तो एकता कैसे होगी तो क्या गंगा जमुना कभी मानवीयता के समुद्र में नहीं मिल पायेगी यदि न हो सकती तो सब नारे बेकार हैं धोखा हों और धोखे से सब को सावधान रहना ही चाहिए।

असल में भारत की संस्कृति को द्विभाजित क के नहीं देखा जा सकता है क्योंकि यह विखंडन की ओर संकेतकरती है। अस्तु भारत की गंगा जमुनी संस्कृति न हो कर पार्वतीय संस्कृति है जो निरंतर प्रवाह मान होती हुई आसेतु राष्ट्र को पुष्पित व् पल्ल्वित करती है। हिमालय की गुफाओं , कंदराओं और वनों में तपस्या में लीन अनेकों तपस्वी जिन के प्रतीक हैं आशुतोष भगवान शिव जो विषपान तक करने में सक्षम हैं और से ले कर गरीब किसान की कृषि तक का प्रतिनिधित्व करते हुए सम्पूर्ण आनंद की चरम अनुभूति का आस्वादन करते हुए सम्पूर्ण देश का जो प्रतिनिधित्व करती है व्ही भारतीय संस्कृति है। उस में कोई विभाजन नहीं है भगवान शंकर जहां ध्यान व् समाधि के सिद्ध योगी हैं वहीं वे संगीत शास्त्र नृत्य शास्त्र ,अस्त्र शस्त्र शास्त्र व् कृषि शास्त्र आदि को अपने में समाये हुए हैं वहीं वे भारत की संस्कृतिक एकता के प्रतीक रूप श्री राम जी क अनुचर हो जाते हैं और श्री कृष्ण संग बृज रज का आलिंगन भी कर लेते हैं तो खान रह गई दो अलग २ संस्कृतियां। गंगा जमुनी नहीं यहां एक ही संस्कृति है जो समात्न है शिव है , सत्य है और सुंदर है।

डॉ वेद व्यथित

डॉ. वेद व्यथित

ख्यात नाम : डॉ. वेद व्यथित नाम : वेद प्रकाश शर्मा जन्म तिथि : अप्रैल 9,1956 शिक्षा : एम्० ए० (हिंदी ),पी एच ० डी० शोध का विषय "नागार्जुन के साहित्य में राजनीतिक चेतना मेरठ विश्व विद्यालय मेरठ वर्तमान पता : अनुकम्पा -1577 सेक्टर -3 ,फरीदाबाद -121004 फोन नम्बर : 0129-2302834 , 09868842688 ईमेल : dr.vedvyathit@gmail.com Blog : http://sahiytasrajakved.blogspot.com सम्प्रति : अध्यक्ष - भारतीय साहित्यकार संघ (पंजी ) संयोजक - सामाजिक न्याय मंच (पंजी) उपाध्यक्ष - हम कलम साहित्यिक संस्था (पंजी ) शोध सहायक - अंतर्राष्ट्रीय पुनर्जन्म एवं मृत्योपरांत जीवन शोध केंद्र इंदौर ,भारत परामर्श दाता - समवेत सुमन ग्रन्थ माला सलाहकार - हिमालय और हिंदुस्तान विशेष प्रतिनिधि - कल्पान्त सम्पादकीय परामर्श - ब्रह्म चेतना सम्पादकीय सलाहकार - लोक पुकार साप्ताहिक पत्र संस्थापक सदस्य - अखिल भारतीय साहित्य परिषद ,हरियाणा प्रान्त पूर्व सम्पादक - चरू (साहित्यिक पत्र ) पूर्व प्रांतीय सन्गठन मंत्री - अखिल भारतीय साहित्य परिषद परामर्श दाता : www.mohantimes .com (इ पत्रिका ) जापानी हिंदी कवि सम्मेलनों में सहभागिता अनुवाद : जापानी,रुसी ,फ्रेंच , नेपाली तथा पंजाबी भाषा में रचनाओं का अनुवाद हो चुका है प्रकाशन : मधुरिमा (काव्य नाटक ) १९८४ आखिर वह क्या करे (उपन्यास )१९९६ बीत गये वे पल (संस्मरण )२००२ आधुनिक हिंदी साहित्य में नागार्जुन (आलोचना )२००७ भारत में जातीय साम्प्रदायिकता (उपन्यास )२००८ अंतर्मन (काव्य संकलन )२००९ न्याय याचना (खंड काव्य ) 2011 साहित्य पर शोध : 'बीत गए वो पल' संस्मरण में सामाजिक चेतना कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय कुरुक्षेत्र 'आखिर वह क्या करे ' उपन्यास में अन्तर्द्वन्द की अवधारणा विनायक मिशन्स विश्व विद्यालय तमिल नाडू 'भारत में जातीय साम्प्रदायिकता ' उपन्यास में सामाजिक बोध krukshetr विश्व विद्यालय 'मधुरिमा' काव्य नाटक पर शोध कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय नवीन सर्जन : * "व्यक्ति चित्र " नामक नवीं विधा का सर्जन किया है * "त्रि पदी" काव्य की नई विधा का सर्जन किया है अन्य *कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय में आयोजित एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में अंतिम सत्र की अध्यक्षता * शताधिक साहित्यिक समारोह व गोष्ठियों की अध्यक्षता की है अंर्तजाल (Internet) पर प्रकाशित विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशन : www.pravasiduniya.com www.sahityashilpi.com www.p4poetry.com http://sakhikabira.blogspot.com http://aakhrkalsh.blogspot.com http://blog4varta.blogspot.com http://utsahi.blogspot.com www.chrchamnch.com www.janokti.com www.srijangatha.com www.khabarindya.com etc. सम्मान : साहित्य सर्जन के लिए "समाज गौरव "सम्मान भारतीय साहित्यकार संसद द्वारा "मोहन राकेश शिखिर सम्मान पत्रकार विश्व बन्धु सम्मान युवा कार्यक्रम एनम खेल मंत्रालय भारत सरकार द्वारा सम्मान हिमालय और हिंदुस्तान एवार्ड हरियाणा सरकार द्वारा आपात काल के विरुद्ध किये संघर्ष के लिए ताम्र पत्र से सम्मानित विभिन्न विधाओं में निरंतर लेखन....

2 thoughts on “गंगा जमुनी संस्कृति

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. यह अनेक भ्रांतियों को दूर कर देता है.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. यह अनेक भ्रांतियों को दूर कर देता है.

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