कविता

कविता- जो मैं पंछी होता

न होती कोई सीमा
न होता कोई बंधन ।
मैं उड़के पल में चला जाता
जहां कहता मेरा पागल मन ।।

नदीयों का जल मैं पीता
हवाओं में उड़ता फिरता ।
कभी बादलों को छूने को
मैं नील गगन में उड़ता ।।

पेड़ों पे बैठ मैं ताजे फलों को खाता
ऊंचे पाहाड़ों पे अपना घर मैं बनाता ।
चमकती चांदनी से घर को मैं चमकाता
बहते झरनों संग गीत खुशी के गाता ।।

ना होती किसी से हिंसा-द्वेष
ना कोई बिन बात हमसे झगड़ पाता ।
ना पैसों की खातिर खटपट होती
ना कोई जीवन में आग लगाता ।।

इंसानी कुकर्मों से जो कभी प्रकृति रुठ जाती तो
प्रकृति की विशाल भुजाओं में मैं बस सिमट जाता ।
इन स्वार्थ के रिस्ते-नातों से मैं दूर कहीं चला जाता
जो मैं पंछी होता तो प्रकृति की गोद में ही खो जाता ।।

प्रभू के बनाए इस जग को
मैं और चारचांद लगाता ।
जो मैं कोई पंछी होता तो
बस प्रकृति के राग सुनाता ।।

 — मुकेश सिंह

मुकेश सिंह

परिचय: अपनी पसंद को लेखनी बनाने वाले मुकेश सिंह असम के सिलापथार में बसे हुए हैंl आपका जन्म १९८८ में हुआ हैl शिक्षा स्नातक(राजनीति विज्ञान) है और अब तक विभिन्न राष्ट्रीय-प्रादेशिक पत्र-पत्रिकाओं में अस्सी से अधिक कविताएं व अनेक लेख प्रकाशित हुए हैंl तीन ई-बुक्स भी प्रकाशित हुई हैं। आप अलग-अलग मुद्दों पर कलम चलाते रहते हैंl