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ऋषि दयानन्द के प्रथम बंगला जीवनचरित का शेष भाग – ऋषि दयानन्द यदि अमेरिका में जन्में होते तो मृत्यु के एक सप्ताह पश्चात् उनकी जीवनी प्रकाशित हो जाती: नगेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय

ओ३म्

 

कल हमने श्री नगेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय जी लिखित ऋषि दयानन्द के बंगला जीवन चरित के हिन्दी अनुवाद का आरम्भिक भाग प्रस्तुत किया था। हमें अनेक पाठक मित्रों ने इस जीवनी का शेष भाग भी प्रस्तुत करने का अनुरोध किया। पाठक मित्रों के अनुरोध के अनुसार हम उक्त जीवनी का शेष भाग प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

(पूर्व लेख का क्रम जारी ….) देखा, बम्बई शहर में क्या पंडित, क्या मूर्ख, क्या धनी, क्या निर्धन, सभी प्रकार के लोग उनके संगठन में शामिल हुए हैं। उच्च सम्प्रदाय के सुपण्डित व्यक्ति से लेकर बाजार में एक मूर्ख दुकानदार भी उनका अनुसरण कर रहे हैं। अपनी आंखों से देखा, बम्बई शहर में एक छोटा सा दुकानदारपूना से दयानन्द रहे हैं’ यह सुन कर दुकान बन्द करके उन्हें रेलवे स्टेशन लिवाने पहुंचा। लगभग पचास शिष्य उन्हें लेने पहुंचे।

 

और एक बार लाहौर में दयानन्द के साथ साक्षात्कार हुआ। वहां पर देखा, वे हर वक्त धर्म जिज्ञासुओं द्वारा घिरे रहते हैं। आश्चर्यजनक पाण्डित्य और बुद्धिमत्ता द्वारा सबकी जिज्ञासा शान्त कर रहे हैं। यहां भी उनका संन्यासी का सा वेश देखा। उपासना विषय में भाषण होगा, सुन कर एक दिन उनका भाषण सुनने के लिए गये। योग औरे भक्ति विषय को लेकर शास्त्रों के कई श्लोक उच्चरित कर रहे थे। व्याख्यान सुन कर बहुत लाभ हुआ। व्याख्यान के अन्त में उन्होंने कहा–‘प्राणायाम द्वारा योगमार्ग का अवलम्बन किये बिना ब्रह्म लाभ नहीं होता। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है।‘ जो योग के अन्दर प्रवेश नहीं किये थे, वे लोग धर्ममन्दिर के बाहर ही भ्रमण कर रहे थे।

 

बहुत दिन हुए दयानन्द ने इहलोक का परित्याग किया है, किन्तु अभी तक उनकी एक भी जीवनी की पुस्तक नहीं निकली है। अनैतिहासिक हिन्दू आज भी अपने प्रकृतिगत विषय दोषों में संशोधन करना नहीं चाहते हैं। दयानन्द अपना जीवन वृतान्त हिन्दी भाषा में संक्षेप में लिख गये हैं। किसी देशीय समाचार पत्र में यह प्रकाशित हुआ था। उसी का अंग्रेजी अनुवाद थियोसोफिस्ट’ नाम की एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। सुविख्यात जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने उसी अनुवाद को आधार बना कर एक पुस्तक में दयानन्द की संक्षिप्त जीवनी (यह पुस्तक Biographical Essays है। -डा. भारतीय) प्रकाशित की थी। उस पुस्तक में किंग्सले, कोलब्रुक जैसी यूरोपीय महान् हस्तियों के साथ-साथ राजा राममोहनराय, केशवचन्द्र सेन, दयानन्द सरस्वती भी शोभायमान हुए हैं। आधुनिक भारतवासी, विशेषतया, बंगवासियों के लिये यह बहुत गौरव की बात है।

 

दयानन्द अगर अमेरिका में हुए होते तो उनकी मृत्यु के पश्चात् एक सप्ताह के भीतर उनकी जीवनी प्रकाशित हो जाती। परन्तु वे कई वर्ष पहले इलहोक का परित्याग कर चुके हैं। यह भाग्यहीन देश आज तक उनके बारे में एक भी उपयुक्त जीवनी पुस्तक प्रकाशित नहीं कर पाया है। भाग्य से दयानन्द अपने बारे में कुछ लिख गये हैं, वर्ना हमें उनके बारे में कुछ भी पता नहीं चलता।

 

दयानन्द लिखते हैं, मैंने काठियावाड़ प्रदेश के मौरवी राजा के अधीनस्थ एक नगर में उच्च ब्राह्मण के घर जन्म लिया। मैं धर्मानुरोध से अपने माता-पिता का नाम प्रकाशित करने का अनिच्छुक रहा। मेरे रिश्तेदार मेरे विषय में जान कर मुझे अपने घर ले जाने के लिये बाध्य करेंगे, उनके साथ मिलने से उनके पास भी रहना पड़ेगा। वास करने से अभाव मोचन करने पर मुझे अर्थ (द्रव्य) स्पर्श करना पड़ेगा। जिस पवित्र संस्कार (सुधार) कार्य के लिये मैंने अपना जीवन उत्सर्ग किया है, उसमें बाधा पड़ेगी।

 

मेरी अवस्था अभी पांच वर्ष की भी नहीं हुई थी कि मैंने देवनागरी का अक्षरज्ञान शुरू कर दिया। मेरी जाति और वंश प्रथानुसार मुझे बहुत से वैदिक मन्त्र और भाषा को कण्ठस्थ करना था। आठ वर्ष की आयु में मेरा यज्ञोपवीत संस्कार होने से मैंने गायत्री, प्रातः और सायं संध्या एवं रुद्राध्याय सहित अध्ययन आरम्भ किया। यजुर्वेद की शिक्षा भी ग्रहण की। मेरे पिताजी शैव थे। इसलिये मुझे छोटी आयु में शिवलिंग बना कर मूर्तिपूजा करना सिखाया गया। शैव जिस प्रकार उपवास करते हैं, मेरे पिताजी ने मुझे वैसे ही कराना चाहा। मेरी शास्त्र शिक्षा-हानि की आशंका से मेरी माता जी ने उसमें आपत्ति की। तथापि पिताजी मुझे उपवासादि करने के लिये दृढ़ करने लगे। पिता जी और माताजी में इस बात को लेकर सदा ही विवाद रहता था।

 

मैं इस समय संस्कृत का व्याकरण सीखा करता था। वेद के सब मन्त्र कण्ठस्थ करता एवं पिताजी के साथ मन्दिर जाता था। मेरे पिता जी शिव की उपासना को सर्वश्रेष्ठ धर्म मानते थे। चैदह वर्ष की आयु से पूर्व ही मैंने यजुर्वेद संहिता और दूसरे वेदों के कई अंश एवं शब्द-रूपावली नामक एक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ कण्ठस्थ कर लिया था। इसी से लोगों के मन में यह धारणा हुई कि मेरी शिक्षा सम्पूर्ण हो गई है।

 

मेरे पिता जी महाजनी करते थे तथा जमींदारी अर्थात् नगर से राजस्व एकत्र करते तथा मैजिस्ट्रेट का कार्य करने से हमारा निर्वाह अच्छी तरह से होता था। पिता जी अब मुझ से मूर्तिपूजा करवाने के लिये जिद करने लगे तो उसी समय से मेरा कष्ट शुरू हुआ। एक अनुष्ठान की तैयारी करने के लिये मुझ से उपवास कराया गया। मैं रात भर जागरण करने के लिए पिता जी के साथ शिव मन्दिर गया। मन्दिर में चार प्रहर का जागरण था। छः घण्टे जागने के बाद रात के समय देखा कि पुजारीगण, मन्दिर के सेवक एवं कई उपासक मन्दिर के बाहर आकर सो रहे हैं।

 

इस तरह सो जाने से पूजा का सब फल नष्ट हो जायगा, यह सोच कर मैं ही जागता रह गया। देखा, पिता जी भी निद्रामग्न थे। तब मैं एकाकी चिन्तन करने लगा कि मेरे सामने वृषभ-वाहन देवता, जिनके बारे में यह वर्णित है कि वे परिभ्रमण करते हैं, आहार पान करते हैं, निद्रा में भी जाते हैं, त्रिशूल भी धारण करते हैं, डमरू भी बजाते हैं और मनुष्य को अभिशाप भी दे सकते हैं, क्या ये वही महादेव हैं? परमपुरुष परमेश्वर ! सोचते-सोचते अपने भावना स्रोत को मैं और रोक नहीं सका। पिताजी को उठाकर उनसे प्रश्न किया कि ये शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित वही भयंकर महादेव हैं? महादेव मूर्ति के सम्मुख ले जाकर फिर प्रश्न किया, पिता बोले, ‘‘तुम ऐसा प्रश्न क्यों कर रहे हो?’’ दयानन्द ने कहा, ‘‘यह देव मूर्ति सर्वशक्तिमान् जीवन्त परमेश्वर है, मैं ऐसा मान नहीं सकता। क्योंकि जिसके ऊपर से एक चूहा गुजर जाय और वह लेशमात्र भी प्रतिवाद न करके अपने आपको कलंकित करे।’’

 

तत्पश्चात दयानन्द कहते हैं ‘‘मुझे मेरे पिता ने समझाने की चेष्टा की कि वह महादेव की मूर्ति शुद्ध सद्ब्राह्मण लोगों द्वारा प्रतिवादित होने से देवत्व को प्राप्त हुई है। उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान कलियुग में कोई भी शिव दर्शन का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। भक्तगण मूर्ति के अन्दर ही उसकी सत्ता की कल्पना कर सकते हैं।”

 

“इन सब बातों से मेरी तृप्ति नहीं हुई। भूखा और थका हुआ होने के कारण कालान्तर में मैं पिताजी की अनुमति लेकर घर चला गया। वहां पर उपवास भंग न हो, इस विषय में पिताजी ने मुझे विशेष रूप से सावधान कर दिया। किन्तु घर आने पर माताजी ने मुझे कुछ खाने के लिये दिया, उसे बिना खाये मैं रह नहीं पाया। आहार के पश्चात मैं सोने के लिए चला गया। ‘‘उपवास भंग करके मैंने बहुत बड़़ा पाप किया है”, पिता ने घर लौट कर मुझे यही समझाने की कोशिश की। किन्तु मूर्तिपूजा पर से मेरा विश्वास उठ चुका था। इस अविश्वास को गोपनीय रख कर मैंने सोचा कि विद्या के उपार्जन के बिना और कोई रास्ता नहीं है। मैं उस समय वेद के निघण्टु, निरुक्त, पूर्वमीमांसा एवं कर्मकाण्ड का अध्ययन कर रहा था।

 

“मेरी छोटी दो बहनें और छोटे दो भाई थे। जब मेरी उम्र सोलह साल की थी, तब हमारे सबसे छोटे भाई का जन्म हुआ था।”

 

“एक दिन रात में चैदह वर्ष की एक बहन की मृत्यु हो गई। मेरे लिये यह पहला शोक था। मेरे हृदय पर गहरा आघात लगा। जब मेरे रिश्तेदार चारों तरफ बैठ कर रो रहे थे, तब मैं पाषाण मूर्ति की भांति खड़ा सोच रहा था–‘‘इस संसार में जितने भी लोगों ने जीवन धारण किया है, कोई भी मृत्यु के हाथ से बच नहीं पायगा। मैं भी किसी भी वक्त उसके हाथों में पड़ सकता हूं। तब मैं इस मृत्युभय से निवारण के लिये कहां जाऊं? कहां गमन करने से मुझे निश्चय ही मुक्ति लाभ हो  सकता है?’’

 

शव-दर्शन करके बुद्धदेव की तरह दयानन्द के हृदय में भी एक चिन्ता स्त्रोत प्रबल वेग से बहने लगा। सोचते सोचते दयानन्द ने अपने आपको एक प्रतिज्ञा में बांध लिया। वे अपने आपसे कहने लगे-‘‘इस स्थान पर खड़ा होकर मैं प्रतिज्ञा करता हूं, चाहे मुझे कितना ही त्याग करना पड़े, मैं अन्वेषण करके मुक्ति की राह निकालूंगा एवं भ्रान्तधारणा को समाप्त करके मृत्युयातना से अपने आप को बचाऊंगा। उपवास, प्रायश्चित ये सब कुसंस्कार मैं त्याग दूंगा।” किन्तु मैंने अपने मन की बात सबसे छुपा कर रक्खी।

 

कुछ समय पश्चात् मेरे चाचाजी की मृत्यु हो गई। वे एक सुपंडित व्यक्ति थे और मुझे बहुत प्यार करते थे। ‘‘इस संसार में स्थायी कुछ भी नहीं है, मूल्यवान् पदार्थ भी कुछ नहीं है, जिसके लिये मैं अपना यह जीवन यापन कर सकुं।” मेरे मन में यह भाव उत्पन्न हुआ।               

मेरे माता-पिता इस समय मेरी शादी करवाने की सोच रहे थे। मैं विवाहित जीवन बिताऊंगा, यह सोचना भी मेरे लिये असम्भव था। बहुत कठिनाई से मैंने पिताजी से एक साल तक विवाह रुकवाने की बात कही। मैंने उनसे कहा, ‘‘मैं काशी जाकर अधिकाधिक संस्कृत शास्त्र पढूंगा।” परन्तु इसके लिये मुझे अनुमति नहीं मिली। मेरे घर से तीन कोस दूर एक विद्वान पंडित के पास मुझे पढ़ने भेजा गया। वहां पर कुछ समय रहकर मैं फिर घर लौट आया। घर आने पर देखा, सब मेरी शादी के लिए तैयार थे। मेरी उमर तब इक्कीस वर्ष की थी और कोई उपाय न देखकर मैंने विवाह बन्धन से दूर रहने की प्रतिज्ञा की।

 

“बहुत ही जल्दी मैं घर छोड़़ कर भाग निकला। मेरे पलायन की खबर सुनते ही पिताजी ने कई अश्वारोही मेरे पीछे भेजे, पर वे मुझे पकड़ नहीं पाये। अश्वारोहियों के हाथ से निकल भागने के बाद मैं पैदल ही आगे बढ़ा।  रास्ते में कुछ भिखारी ब्राह्मणों ने मेरे पास जो भी कुछ था छीन लिया। उन्होने मुझे यह कहा कि इस संसार में मैं जितना भी दान करूंगा, मेरे उस त्याग के अनुसार दूसरे जन्म में मेरा उतना ही मंगल होगा।”

 

“कुछ काल बाद मैं शैल (शुद्ध नाम सायला-जिला सुरेन्द्रनगर) नामक नगर में जा पहुंचा। इस नगर में लाला भक्त नाम के एक पंडित के बारे में मैं पहले से ही जानता था। यहां पर एक और ब्रह्मचारी थे। मैंने उनके संगठन में शामिल होने का फैसला किया।”

 

दीक्षा के समय मैंने ‘‘शुद्ध चैतन्य” नाम प्राप्त किया, एवं गेरूए वस्त्र किये। इस नव-वेश में मैं अहमदाबाद के निकटवर्ती कोटकांगड़ा नामक एक छोटे से कस्बे में प्रविष्ट हुआ। वहां पर दुर्भाग्यवश मुझे मेरे परिवार से परिचित एक वैरागी मिला। मैं सिद्धपुर मेले में जा रहा हूं, यह सुनकर वैरागी ने मेरे पिताजी को खबर भेज दी। मैं कुछ अन्य छात्रों के साथ जब नीलकण्ठ के मन्दिर पहुंचा, उसी वक्त मेरे पिताजी मेरे सामने आकर उपस्थित हुए। मैंने बहुत अनुनय-विनय की, किन्तु उन्होंने कुछ नहीं सुना।

 

उनके साथ आये सिपाहियों के हाथ मुझे कैदी की तरह सौंप दिया गया। किन्तु मैं फिर भाग कर अहमदाबाद लौट आया एवं बड़ोदरा पहुंच कर वहां कुछ काल वास किया। बड़ोदरा से ‘‘चैतन्य मठ” नामक मन्दिर में कुछ संन्यासियों तथा ब्रह्मचारियों एवं ब्रह्मानन्द स्वामी के साथ वेदान्तशास्त्र पर तर्क वितर्क किया। ब्रह्मानन्द के पास से मैंने जीव-ब्रह्म के बारे में बहुत अच्छी जानकारी प्राप्त की। बड़ोदरे में एक बनारसी बाई वैरागी के स्थान में मैं बड़े-बड़े पंडितों से मिला। उनमें से सच्चिदानन्द परमहंस के साथ विशेष रूप से परिचय हुआ। उनके परामर्शानुसार नर्मदा के किनारे ‘‘चाणोद करनाली” आकर योग विद्या में प्रवृत्त एवं दीक्षित विद्वानों के साथ मैंने साक्षात्कार किया। वहां पर परमानन्द परमहंस के पास वेदान्तसार, वेदान्तपरिभाषा आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने लगा।”

 

“उसके बाद योग शिक्षार्थी के रूप में दीक्षित होकर संन्यास आश्रम में प्रवेश के लिए मैं व्याकुल हो उठा। छोटा होने से मेरी दीक्षा सम्बन्ध में कुछ बाधा रहने पर भी मुझे दीक्षित करके मेरे हाथ में दण्ड प्रदान किया गया। इस उपलक्ष्य में मेरा नाम परिवर्तित होकर दयानन्द सरस्वती हुआ।”

 

“कुछ समय पश्चात् मैं चाणोद छोड़ कर व्यासाश्रम जाने से पहले योगानन्द के निकट जाकर योग शास्त्र का अध्ययन करने लगा।”

 

“तत्पश्चात् योग साधन सीखने के बाद योग की उच्चतम अवस्था लाभ करने के लिये मैं अहमदाबाद के निकटवर्ती स्थान पर पहुंचा। वहां पर दो योगियों ने योगविद्या के शेष गुप्त विषय मुझे प्रदान किये।”

 

“मैं उसके बाद योग की कुछ नई प्रणालियां सीखने के लिये, राजपूताना के निकट आबू पर्वत पर पहुंचा।”

 

“सन् 1855 में मैं हरिद्वार में ‘‘महा मेला” में उपस्थित हुआ। वहां पर उस समय बहुत सारे साधु संन्यासी योगशिक्षा के लिये एकत्रित हुये थे।”

 

“उनके पास कुछ समय रहा, वहां पर मांसाहारी ब्राह्मण देखे, उनमें सर्वप्रकार की बुराई देखकर तथा उनके तन्त्रशास्त्र को सुनकर मैं भयग्रस्त हुआ।”

 

मैंने तत्क्षण श्रीनगर के लिए प्रस्थान किया तथा केदारघाट नामक मन्दिर में वास करने लगा। वहां गंगागिरि नामक एक साधु के साथ मेरा परिचय हुआ। उनके पास रहकर मैं दर्शनशास्त्र का अध्ययन और उसके सम्बन्ध में विचार करता रहा। पूरे दो मास उस संन्यासी के साथ बिताने के बाद मैं रुद्रप्रयाग चला गया तथा वहां से यात्रा करके मैं अगस्त्य मुनि के आश्रम में पहुंचा। अगस्त्य आश्रम के उत्तर में शिवपुरी में सर्दी के चार महीने बिता कर फिर केदारघाट और वहां से गुप्तकाशी आ गया।”

 

महाज्ञानी सिद्ध महात्मा लोगों के दर्शन के लिये दयानन्द ने हिमालय प्रदेश की बहुत सी जगहों पर भ्रमण किया। यह सब भ्रमण वृतान्त और आश्चर्यजनक घटनाएं सभी वर्णन पूर्ण हैं। दुःख की बात यह है कि उनकी आत्मकथा के ये अंश आज तक प्रकाशित नहीं हुये हैं।

 

जीवन के अन्तिम वर्षों में दूध और अन्न को छोड़कर और कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे। यहां तक कि आखिर में वे अन्न का भी परित्याग करके केवल मात्र दुग्ध पर ही निर्वाह करने लगे थे। 

 

संन्यासियों में लगभग सभी गांजा का घूम्रपान करते हैं। दयानन्द ने भी किसी के संसर्ग में आकर कुछ समय के लिये गांजा का स्पर्श किया था। गांजा सेवन के विषय में दयानन्द कहते हैं ‘‘एक दिन सपने में जागृत होकर मैं मन्दिर के बाहर बरामदे में आया। वहां नन्दी बैल की विशाल मूर्ति थी। मैं उसकी पीठ पर वस्त्र और पुस्तकें रख कर चिन्तन करने लगा। अचानक मैंने देखा, उस पत्थर की मूर्ति के भीतर एक आदमी छुपा हुआ है। मैंने जैसे ही उनकी तरफ हाथ बढ़ाया, वह आदमी डरकर भाग निकला और गांव की ओर दौड़ गया।” (ऋषि दयानन्द द्वारा गांजे के सेवन पर टिप्पणी करते हुए आर्य विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय जी ने लिखा है कि लेखक का यह कथन भ्रान्तिपूर्ण है। कुछ परम्परागत संन्यासियों के संसर्ग में स्वामी जी को भंग का दोष तो अवश्य लग गया था, किन्तु उन्होंने गांजा सेवन कभी नहीं किया। लेखक ने जिस घटना का उल्लेख किया है वह आत्मचरित से ली गई है, किन्तु यहां भी भंग का ही उल्लेख।)

 

“मैंने उसी वक्त उस मूर्ति में प्रवेश किया और रात वहीं गुजारी। सुबह होने पर एक वृद्धा स्त्री आकर वृष देवता की पूजा करने लगी। पूजा के समय मैं मूर्ति में ही था।”

 

“कुछ देर बाद यही वृद्धा नारी गुड़ लेकर उपस्थित हुई। मुझे देख कर देवता समझ कर प्रणाम किया और आहार मेरे सामने रख दिया। मैं भूखा था इसलिये सब कुछ खा गया। दही बहुत ही स्वादिष्ट था। मेरा नशा छूट गया। मैंने तभी नर्मदा के लिये यात्रा आरम्भ कर दी।”

 

दयानन्द के जीवन का प्रधान कार्य भारतवर्ष में बहुत सी जगहों पर आर्यसमाजों की  स्थापना एवं ऋग्वेदादि भाष्यों का प्रकाशन है। ये भाष्य उनके स्वलिखित हैं। वेदानुसार उन्होंने सचराचर मूर्तिपूजा के स्थान पर एकेश्वरवाद का समर्थन किया है। दयानन्द की व्याख्या पण्डित समाज को ग्राह्य होगी, इसमें सन्देह है परन्तु यह तो निश्चित ही है कि उनके भाष्य, उनकी आश्चर्यजनक बुद्धिमत्ता और उनका असाधारण पांडित्य इस जगत् में प्रतिष्ठित होकर रहेगा।

 

दयानन्द ने उनसठ वर्ष में अजमेर नगर में 30 अक्तूबर, मंगलवार सायं छः बजे इहलोक परित्याग किया। बहुत सारे लोग उनके शव के पीछे पीछे श्मशान भूमि गये थे। उनके शिष्यगण भी वेदगान करते हुए उनके पीछे गये। एक बडी सी चिता में उनका शव दहन किया गया। एक मन चन्दन की लकड़ी, आठ मन अन्य लकड़ी, चार मन घी, अढ़ाई सेर कर्पूर के साथ उनका संस्कार किया गया।

 

दयानन्द जी चले गये किन्तु उनकी शिक्षायें (विचारधारा) भारतभूमि में उनके प्रतिनिधि स्वरूप काम कर रही हैं तथा करती रहेंगी।

 

यहां पर श्री नगेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय लिखित ऋषि दयानन्द का प्रथम बंगला जीवन चरित का हिन्दी अनुवाद समाप्त होता है। ऋषि दयानन्द का जीवन एक पौराणिक मूर्तिपूजक परिवार से निकलकर योग विद्या व वैदिक ज्ञान लाभ कर अपूर्व देशोपकारक व समाजसुधारक सहित वेदों का ऋषि व महर्षि बनने का उदाहरण व प्रमाण है। ऋषि दयानन्द जी के चरण-चिन्हों पर चलकर कोई भी मनुष्य वा मतावलम्बी सच्चा योगी, ज्ञानी व ईश्वर का उपासक बन सकता है और जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ती में सफलता प्राप्त कर सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक ऋषि की इस जीवनी को पढ़कर लाभान्वित होंगे। इन्हीं शब्दों के लेखनी को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “ऋषि दयानन्द के प्रथम बंगला जीवनचरित का शेष भाग – ऋषि दयानन्द यदि अमेरिका में जन्में होते तो मृत्यु के एक सप्ताह पश्चात् उनकी जीवनी प्रकाशित हो जाती: नगेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनमोहन भाई जी, आपके सौजन्य से अत्यंत अनमोल आलेख पढ़ने को मिल गया. अति सुंदर, सार्थक, मार्गदर्शक व अनमोल आलेख के लिए आभार.

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद् बहिन जी। सादर।

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