कविता

गोरा हँसता है और काला…..

वो दौड़ता रहा

और आर्डर आर्डर

मज़े लूटता रहा ……

 

रंग भेद का भी

अजीब खेल है

गोरा हँसता है

और काला

बेमौत मरता है ……

 

जानवरों का भी  

अपना खेला है  

कोई बन्दूक से खेला

किसी ने कलम पेला……

 

बेजुबान का कोई

दर्द नहीं होता

चार पाव से कोई

शरीफ नहीं होता……

 

मर कर भी क्या

कोई रोता है

मारने वाला चैन

की नींद सोता है …….

नोट – साथियों उक्त कविता का अर्थ समझ में आये, तो कृपया ताली मत बजाईएगा, एक पत्थर उठा के लोकतंत्र की दीवार पर जरूर मारियेगा …….

सप्रेम
के एम् भाई

के.एम. भाई

सामाजिक कार्यकर्त्ता सामाजिक मुद्दों पर व्यंग्यात्मक लेखन कई शीर्ष पत्रिकाओं में रचनाये प्रकाशित ( शुक्रवार, लमही, स्वतंत्र समाचार, दस्तक, न्यायिक आदि }| कानपुर, उत्तर प्रदेश सं. - 8756011826