कहानी

विष

ग्लूकोज़ की बोतल से टिप-टिप कर बूंदे टपक रही थीं। कामाक्षी का पूरा ध्यान ख़ाली होती बोतल पर था। बोतल ख़ाली हो गई। मगर अब क्या करना है उसे पता नहीं। वह अपने आस-पास के बेड पर देखती है। कोई नहीं है। नर्स का कहीं अता-पता नहीं है। बोतल से लगी पाइप में ख़ून चढ़ने लगता है और वह ज़ोर से चीखती है – “सिस्टर, सिस्टर।”
नर्स शायद दरवाज़े के किनारे ही खड़ी वार्ड बॉय से गप्पे लड़ा रही थी कि भागती हुई अंदर आती है और फटाफट कामाक्षी के हाथ में लगी पाइप का स्क्रू घुमा देती है। ख़ून रूक जाता है। कामाक्षी दर्द से कराह उठती है।
नर्स कामाक्षी को समझाती है –“नेक्स्ट टाइम बोतल ख़तम हो तो स्क्रू ऐसे घुमा देने का। क्या?”
कामाक्षी ने समझकर सिर हिलाया कि इतने में फल, जूस, द्वाईयों का थैला लिए कोवलन भी वार्ड में घुसा।
“अय्यो! अय्यो! सब ठीक न!”
कामाक्षी ने मासूमियत से सिर हिलाते हुए कोवलन को आश्वस्त किया। उसके भोलेपन से मुग्ध कोवलन कुछ क्षण उसे निहारता रहा। नर्स ने भी एक नज़र कोवलन को देखा फिर कामाक्षी को और दोनों पंछियों के बीच से चुपचाप फुर्र हो गई।
सारे पोलिथीन साइड टेबल पर रख बेड पर ही एक किनारे बैठा कोवलन कामाक्षी का हाथ थामें उसे टुकुर-टुकुर ताकता रहा।
“सब ठीक ओ जाएगा जी। कुछ भी तो नई उआ। आप फालतू परेशान ओते।”
कामाक्षी का दिलासा कोवलन को मज़बूत करने की बजाय तोड़ने लगा। वह सिर झुकाकर केवल हूँ कह पाया। फिर अपने आप को संभाला और साइड टेबल पर रखे फलों की पोलिथीन से उसने दो ख़ूब लाल और चमकदार सेब निकाले। उन्हें वह बढ़ियां से धोकर लाया और एक थाली में रखकर चाकू से उसके फाँके बनाते हुए बोला – “तुम ठीक कैती कन्नू। मेरा आशंका सब गलत। बालाजी सब ठीक करेंगा। उसके रैते मेरा कन्नू को कुच नई ओना।”
कामाक्षी भी तकिए के सहारे बैठ गई और पति की ठुड्डी उठाकर सिर हिलाया जैसे भरोसा रखने की अपील कर रही हो।
कोवलन ने अपील मान ली और मुस्कुराते हुए ही एक फाँक उसकी ओर बढ़ा दिया जो कामाक्षी ने उसके मुंह की ओर वापस बढ़ा दिया और मुस्कुरा दी।
कुछ देर खाने खिलाने का उपक्रम और चला और सेब ख़तम हो गया। कोवलन ने आम निकाले।
“क्या करता जी आप! अभी तो सेब खाई मैं।”
“किदर खाई। नई खाई। सब तो मेरे को खिलाई।”
“ओफ्फो! अब बस करो ना जी।”
“तुम्हें मांबळम बहुत जॉली लगता न।”
कामाक्षी चौंकी -“आप ये सीज़न में आम किदर से लाया।”
“मेरा कन्नगी के लिए मैं असमन से तारा ला सकता। ये तो तोड़ा सा मनकनी….”
कहकर कोवलन ने मूँछों को ताव दिया और अपनी सांवली काया में सफ़ेद मोतियों से दांत झलका दिए। कामाक्षी उस चमक में ऐसे खोई की माथे पर लटक रही अपनी घुंघराली लट तक संवारना भूल गई। उसे लगा कॉलेज के दिनों में बग़ल वाली बेंच पर बैठकर शायद कोवलन उसे ऐसे ही देखा करता होगा जैसे वो आज उसे मोहित होकर देख रही हो और शायद देखना भी चाहिए ताकि जीते जी कोवलन के प्यार का कुछ अंश लौटा सके।
कोवलन ने आम की फांक उसकी ओर बढ़ा दी। वह अभी उसे देखने में इतनी मग्न थी कि मुंह खोलना तक भूल गई। तो कोवलन से भौहें उठाकर आँखों से ही वह मुस्कुरा दी और सूखे पत्ते से होंठ खोल दिए।
दांतों को आम के उस फाँके में गड़ाकर गूदा खींचते हुए कामाक्षी दु:खी हो गई। उसे दु:ख हुआ कि कोवलन ने कितने प्यार से मेरा नाम कन्नगी रखा था। कन्नगी, जो एक पतिव्रता स्त्री थी। जिसके सतीत्व से दुनिया हिल गई थी और एक मैं कन्नगी….कन्नगी कहलाने लायक ही नहीं…कन्नगी के नाम पर …..छी: छी: कितनी बुरी हूँ मैं। कितनी गिर गई हूँ कि पति से सेवा ले रही हूँ। इस तरह बिस्तर पर पड़े रहने से तो मर जाना बेहतर है।
कामाक्षी ने कोवलन को अगली फाँकी देने से मना कर दिया। उसकी आँखों से मोती झरने लगे।
“अय्य यो अय्य यो…..नई कन्नू….मेरी कन्नू….रोना नई…कुच नई ओगा…..मैं साथ है न। कुच नई ओगा।”
“…कुच ओ जाता तो …..आपको छुट्टी मिलता मेरे से…।”
“नई कन्नू….ऐसा नई सोचने का…..फिर मेरा क्या ओगा….मैं कैसे जिएगा……सोचा कभी। ऐसा नई बोलने का। ऐसा कबी बी नई सोचने का।”
कहते-कहते कोवलन ने कामाक्षी को गले से लगा लिया। इतने में नर्स ने प्रवेश किया और कुछ देर इधर-उधर देखती रही कि ये लोग कब अलग होंगे। जब नहीं हुए तो वह झूठ-मूठ में खांसी। उनके अलग होने पर उसने कोवलन से पूछा।
“वो….दूध के साथ दवा देना था न।”
“फिकर नई करो…मैं दूध का पैकेट, सिरप….टेबलेट सब लाया है।”
नर्स ने वार्ड बॉय को बुलाकर चुटकी से पकड़ा हुआ पैकेट धरा दिया। वार्ड बॉय तुरत-फुरत उसे गर्म कर एक ग्लास में डाल लाया। कोवलन ने कामाक्षी को दूध और सिरप बारी-बारी टेबलेट्स के साथ दीं और सोने की चेष्टा करने का अनुरोध किया।
वह लेटी मगर ध्यान बार-बार कोवलन की ओर जा रहा था। कोवलन ने डाँटकर आँखें बंद करवाईं और बाईं करवट लेटी कामाक्षी के दाएं तरफ बैठे-बैठे उसकी बांह पर थपकी देने लगा। जाने कब वह सो भी गई। उसकी लंबी-लंबी उसांसों ने कोवलन को उसके सो जाने की रसीद दी।
कोवलन ने उसके आस-पास की सारी लाइटें धीरे से बंद कीं और दबे पाँव वार्ड के बाहर आ गया। सीधे डॉक्टर के केबिन में पहुँचा।
“आओ कोवलन आओ। मैं वार्ड बॉय को तुम्हें ही बुलाने भेज रहा था।”
“क्यों…..क्या ओ गया। रिपोर्ट आया क्या?”
“हाँ कोवलन…..आओ बैठो। रिपोर्ट तो आ गई है…मगर….”
डॉक्टर का चिंताग्रस्त चेहरा देख कोवलन का दिल बैठा जा रहा था। उसने मन ही मन तिरुमलै जाकर अपने और पत्नी के बाल चढ़ाने का संकल्प ले लिया। उग्र होता हुआ पूछने लगा। यहाँ तक कि डॉक्टर को बोलने का मौक़ा भी नहीं दिया।
“क्या उआ सर! आप कुछ बोलता क्यों नई? बताइए न रिपोर्ट में क्या आए।”
“मैं क्या बताऊँ कोवलन! मुझे ख़ुद कुछ समझ नहीं आ रहा। किसी भी रिपोर्ट में कुछ भी डिटेक्ट नहीं हुआ। कुछ भी डायग्नोस नहीं हुआ।”
पहले तो कोवलन ने भगवान बालाजी को कोटि-कोटि प्रणाम किया। मगर जल्द ही आशंका से घिर गया।
“अगर कुच बी नई तो कामाक्षी का आलत इता ख़राब कईसे ओ गया।”
“यही तो कन्‌फ्यूजन है!”
“ओफ्फो! ओहो…..फिर अबी।”
“हम्म….कुछ और टेस्टस करवा के देखते हैं। कुछ टेस्ट रीपिट कर के देखते हैं। शायद फिर से करने पर कुछ निकल के आए।”
“हां..हां… ये ई ठीक रएगा।”
कोवलन ने फिर अपने इष्ट देव को याद किया और इस बार तिरुमलै पहाड़ पर पैदल चलकर जाने की मन्नत मांगी। बस कामाक्षी अच्छी हो जाए। धन-दौलत, सब चलता जाए मगर कामाक्षी ठीक हो जाए। उसके बिना दोनों जहाँन भी किस काम के।
नैनों में नीर भरकर कोवलन अभी अपनी प्रार्थनाओं में गुम था कि एक नर्स भागती हुई और “डॉक्टर-डॉक्टर” चिल्लाती हुई उनकी केबिन की तरफ आई। यहाँ तक कि सभी केबिन के डॉक्टर बाहर आ गए कि आख़िर वो किस डॉक्टर को आवाज़ दे रही है।
हाँफती हुई बोली –“वो …पेशेंट…वो….कामाक्षी”
उसकी पूरी बात सुने बग़ैर कोवलन कामाक्षी के वार्ड की तरफ भागा। डॉक्टर भी पीछे से लपक लिए।
कामाक्षी पेट पकड़कर छटपटा रही थी और मुंह से हल्का-हल्का झाग सा, लार गिर रहा था। कोवलन उसे पकड़कर कर चीखने लगा “क्या…उआ… क्या।”
फिर डॉक्टर को देखकर “ये क्या उआ…कामाक्षी को डॉक्टर….प्लीज़ कुच करो।”
डॉक्टर स्वयं स्तब्ध था। उसने कोवलन को हट जाने को कहा और नर्स को ओटी में इंतज़ाम करने को कहा।
“कोवलन ….पॉइज़न लगता है….इमीडिएट ऑपरेशन करना पड़ेगा।”
कोवलन दोनों हाथों से अपना मुँह ढककर रोते हुए बोला “कुच भी करो ….डॉक्टर मेरी कामाक्षी को बचाओ।”
तुरत-फुरत कामाक्षी को ओटी में पहुँचाया गया।
ओटी के बाहर कोवलन बेचैनी से कभी तेज़-तेज़ पाँव हिला रहा था कभी मुठ्ठियां भींच रहा था। रह-रहकर बेचैन हो टहल रहा था।
इतने में एक नर्स ओटी से बाहर निकली। कोवलन उस पर झपटा। पहले तो नर्स ने उसे दिलासा दिया। फिर उसे कान पास लाने को कहा।
“मुझे दुख है। तुम्हारी प्यारी कामाक्षी नहीं बचेगी।”
“क्यों अईसा क्यों बोलती आप?”
“अरे अंदर झाँककर देखो। डॉक्टरों को कुछ समझ ही नहीं आ रहा कि करना क्या है तुम्हारी कामाक्षी के साथ।”
कोवलन ने ओ.टी. के छोटे से शीशे से अंदर झाँका तो देखा कि डॉक्टरों का जमावड़ा कामाक्षी को घेरकर उसकी उस रिपोर्ट पर बहस करने में लगा जिस में कुछ नहीं निकला था और वो बीच में पड़ी छटपटा रही थी।
कोवलन को ऐसी तीव्र इच्छा हुई कि किसी तरह उसे अचानक डॉक्टरी का ज्ञान हो जाए और वह अंदर जाकर कामाक्षी को बचा लाए। मगर ऐसा संभव नहीं था। कोवलन बेबसी में वहीं दरवाज़े से सटकर बैठ गया।
उसकी नज़र सामने गलियारे पर पड़ी। गलियारे से चार क़दम पहले पीली रोशनी सी आ रही थी। कोवलन को याद आया कि वहाँ दीवार में दो फीट अंदर की ओर, बालाजी की मूर्ति है और वहीं जल रहे दिए से रोशनी आ रही है।
वह अपने इष्टदेव की चार फुट लंबी मूर्ति के सामने घुटने टेक कर रोने लगा जबकि काले पत्थर की बनी वह मूर्ति अनवरत मुस्कुरा रही थी। कोवलन ने मुखड़ा उठाकर बालाजी की तरफ देखा। उसकी पनियाली आँखों में दिए की रोशनी प्रतिबिम्बित हुई।
पहले तो कोवलन ने बहुत गुहार लगाई। बहुत मिन्नतें कीं। प्रार्थनाएं कीं। परंतु देवता की अकर्मण्यता पर उसे धीरे-धीरे क्षोभ और फिर क्रोध होने लगा। वह धीरे-धीरे खड़ा होकर बात करने लगा। जब उसके हृदय में विषाद अति पर पहुँचा तो ज्वालामुखी सा वह फट पड़ा।
“मेरा कामाक्षी उधर अकारण मर रा….और तू अंसता….मैं तो तुझे कबी बी मन से दूर नई किया…फिर अईसा क्यूं मेरे साथ किया।”
आंसू अपनी आस्तिनों से पोंछता हुआ कोवलन आगे बोला –“एक टाइम था…..कन्नगी का श्राप से पूरा मदुरै….पूरा पांडि नाडु कतम ओ गया। मैं अपना कन्नगी के लिए तुझको श्राप देता….तेरा बैकुंठ कतम ओना।”
दिए की जलती लौ कोवलन की प्रतिक्रिया से जैसे और धधक उठी। कोवलन की आँखों में भी उसका प्रतिबिम्ब और धधक उठा।
लेकिन फिर…फिर….एक अद्भुत चमत्कार हुआ। बालाजी की मूर्ति एक ज्योति पुंज में परिवर्तित हुई और उससे एक गंभीर और स्थिर स्वर गुंजायमान हुआ।
“कोवलन…..प्रिय कोवलन। तुमने ही तो अपने हाथों से कामाक्षी को विष दिया।”
कोवलन स्तब्ध खड़ा रहा। पहले तो इस चमत्कार से फिर उस आक्षेप से। धीरे-धीरे कोवलन फिर घुटनों के बल बैठ गया। कुछ देर फूट-फूट कर रोने के बाद उसने अपने दोनों हाथ जैसे भीख के लिए पसार दिए।
“मैं किदर विष दिया प्रभु? मैं तो कामाक्षी को प्रेम करता…..अपने से भी जादा प्रेम करता….अपना प्राण तक उसका लिए त्याग सकता ….फिर मैं कैसे विष दे सकता प्रभु? मैं कैसे….”
“स्मरण करो वो सेब जो तुमने कामाक्षी को खिलाया था…..उसके छिलके पर मोम की पतली परत होती है जो पेट में जाकर शरीर को हानि पहुँचाती है। उसी प्रकार उस आम को जिन रसायनों से पकाया जाता है वो शरीर के लिए किसी प्रकार के विष से कम नहीं होते कोवलन। उसके ऊपर किए गए रसायन के छिड़काव से रसायन उसके छिलके से ही चिपक जाते हैं जो खाते समय पेट में चले जाते हैं। और तो और सुबह जो दूध तुमने उसे दिया था उसमें तो साबुन का झाग मिला था। जो बोतल बंद सिरप पिलाया तो उसमें टॉक्सिन था और दवाईयां भी नकली थीं। कल रात को जो दूध और शहद दिया था उसमें शहद नहीं गुड़ था और दूध में यूरिया। उसके शरीर में इस समय इसी प्रकार के सत्तर से पचहत्तर प्रकार विष उपस्थित हैं। अब बोलो कोवलन, तुमने अपने हाथों से ही यह सारे विष कामाक्षी को दिए थे न।”
कोवलन फिर फूट-फूटकर रोया। थोड़ा शांत होने के बाद सिसकियों के बीच उसके स्वर फूटे –“लेकिन बस इत्ते से कोई मर तो नई जाता भगवान।”
“क्यों नहीं। जब चीन में विषाक्त दूध से छ: बच्चे मर सकते हैं तो तुम्हारी कामाक्षी क्यों नहीं।”
“मगर….मगर…उसका तो रिपोर्ट में भी कुच नई आया।“
“कैसे आता कोवलन। प्रत्येक प्रकार का विष किसी न किसी टेस्ट को पूरा होने से पहले ही सामान्य कर देता। इतने सारे विष आपस में मिलकर ऐसा खेल रच रहे हैं उसके शरीर में कि किसी एक विष का पता लगना असंभव है।”
कोवलन फिर रोया और आँसुओं की गंगधारा के बीच बोला “प्रभु मैं कामाक्षी के बिना नई जी सकता प्रभु। मेरे को ले लो प्रभु उसको जीवन दे दो प्रभु। आप ही बोले न प्रभु कि सब मेरा गलती। तो मेरे को मार दो प्रभु। मेरे को नई जीने का है। मगर प्रभु उसको बचाओ प्रभु।”
एकदम शांति थी। कोवलन की प्रार्थना की कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। कोवलन फिर उद्वेलित होने लगा। दोनों हाथ कस के जोड़कर बोला –“प्रभु! मैं जीवन में जो कुच भी अचा काम किए ओगा तो मेरे को लो …कामाक्षी को नई ….प्रभु कामाक्षी को नई….कामाक्षी को नहीं।”
बोलते-बोलते कोवलन लगभग बेहोशी की स्थिति में पहुँचने लगा जब ज्योति पुंज से फिर स्वर उठे।
“विषम हि विषस्यौधि कोवलन…..तुम्हारी कामाक्षी को कुछ नहीं होगा। उसके शरीर के सारे विष एक दूसरे को काट देंगे।”
कोवलन अचानक मुस्कुराने लगा।
“अब तो प्रसन्न हो न कोवलन।“
कोवलन ने मूछों के बीच से अपनी बत्तीस मोतियों की माला निकाल दी और चरणों में गिरता हुआ बोला –“रोंब संतोषम्… रोंब संतोषम्…स्वामी रोंब संतोषम् ।”
इतने में किसी ने कोवलन को ज़ोर से झकझोरा। उसने आँखें खोली तो देखा कामाक्षी अपने गीले घुंघुराले बाल तौलिए में लपेटे हुए और माथे पर हल्दी-कुमकुम लगाए, बड़ी-बड़ी आँखों से उस पर झूठा क्रोध जताते हुए कह रही है “अय्यो….आज उटने का नई क्या आपको…..ऑफिस नई जाने का….देखो एटु बज गया…उटो…उटो..उटो उटो उटो।”
कोवलन उठ गया। उसने ईश्वर को याद किया और धन्यवाद दिया कि सब एक सपना था। फिर वह फटाफट तैयार होने चला गया।
देर तो पहले ही हो रही थी। तुरत-फुरत तैयार हो कर जब वह नाश्ते के लिए मेज पर पहुँचा तो उसने देखा कि उसकी प्लेट में गरम-गरम इडली भाप छोड़ रही थी। उसके बग़ल की छोटी प्लेट में सेब काटकर रखे थे और दूध का ग्लास भी मौजूद था। कोवलन के शरीर में एक सिहरन पैदा हुई मगर उसे भूख भी ज़ोरों के लगी थी। उसने चम्मच का सहारा लेते हुए कांटे से इडली के टुकड़े कर एक टुकड़ा मुँह में डाला।
उसे इडली में ताड़ी का स्वाद आया। पहले कभी क्यों नहीं उसका ध्यान गया।
“तुम इडली का बैटर किदर से लाती?”
“गनेशन स्टोर्स से….क्यों….हमेशा तो उदर से ही लाती।”
“कुछ नई। इडली खाने का मन नई। कुच ओर मिलेगा।”
“ब्रेड-जाम”
“ओके”
कामाक्षी किचन में चली गई। कोवलन ने सेब की एक फांक हाथ में उठाई। उसके छिलके की चिकनाई में ही उसे वैक्स का एहसास हुआ। उसने उसे फट से प्लेट में वापस रख दिया। फिर उसने डरते-डरते दूध का एक घूँट निगला। उसे डिर्जेंट का स्वाद आया। उसने दूध भी वापस रख दिया।
कामाक्षी एक प्लेट में ब्रेड-जाम ले आई। उसने प्लेट की ओर देखा। उसे लगा कि कहीं ब्रेड में अलम या चॉक मिला हो तो। उसने उसे बिना छुए ही छोड़ दिया।
कामाक्षी कोवलन की हालत देख बहुत परेशान है। कोवलन आज बहुत परेशान है कि ऐसी कौन सी चीज़ है जो वह बेझिझक खा सकता है और अपने परिवार को खिला सकता है।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com

2 thoughts on “विष

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया कहानी !

    • नीतू सिंह

      धन्यवाद सर

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