गीतिका/ग़ज़ल

यह राज़ ज़माने से छुपाती चली गई

कुछ   फर्ज  शबे  हिज्र  निभाती  चली गयी ।
नजरें  हया  के  साथ  झुकाती  चली  गयी ।।

मानिंद   माहताब   मुकद्दर   में   थी   कोई।
गोया कि कहकशाँ में  समाती  चली गयी ।।

अहले  सबर  के  नाम  फना  वक्त हो गया ।
आई   जो  याद  रात  तो  आती  चली गई।।

यूँ मुफ़लिसी के दौर में ये  फ़लसफ़ा  मिला ।
थी  आग  जफ़ाओं  में जलाती  चली गयी ।।

शायद किसी निगाह को गफ़लत कबूल थी ।
फिर   बददुआ  नसीब  मिटाती  चली  गई ।।

लिक्खे  थे  चन्द  शेर  जो तारीफ  में  कभी।
बहकी हवा तो खत को उड़ाती चली  गयी ।।

ये मुंतज़िर थी आँख  शमा  की  तलास  में ।
वह रौशनी  की  आस  दिलाती  चली गयी।।

मेरी   हदों    से    दूर   कोई   इंतखाब   था ।
मेरे   हरम   में   नाज़    उठाती   चली  गई ।।

दर्दे  हयात   दे   के    मयस्सर   शुकूँ   उसे ।
यह  राज  जमाने  से   छुपाती  चली  गयी ।।

—नवीन मणि त्रिपाठी
(पेंटिंग राजा रवी वर्मा साभार )

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक naveentripathi35@gmail.com

3 thoughts on “यह राज़ ज़माने से छुपाती चली गई

  • अर्जुन सिंह नेगी

    सुन्दर ग़ज़ल!

  • लीला तिवानी

    प्रिय नवीन भाई जी, अति सुंदर ग़ज़ल के लिए आभार.

  • लीला तिवानी

    प्रिय नवीन भाई जी, अति सुंदर ग़ज़ल के लिए आभार.

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