कविता

मधुगीति : चला चलता हृदय हँसता !

चला चलता हृदय हँसता, प्रफुल्लित तरंगित होता;
सृष्टि के सुर सुने जाता, इशारे समझता चलता !

धरा धाए मुझे चलती, सरस कर जल लिए चलता;
अग्नि ऊर्जा दिए चलती, वायु प्राणों को फुर करती !
शब्द आकाश ले चलता, चित्त चेतन गति लेता;
सगुण में अहम् ले चलता, महत नित निर्गुणी करता !

वनस्पति उत्स अति देतीं, जीव हर प्यार कर जाता;
मनुज हर मुस्करा आता, वराभय गुरु दे जाता !
तरो-ताज़ा सधा- साधा, जगत है नित्य- प्रति आता !
‘मधु’ मन मुक्ति रस चखता, भक्ति अनुरक्ति पा नचता !

—  गोपाल बघेल ‘मधु’

टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा