कविता

|| ख़ुदा की अकलमंदी ||

एक बहुत पुरानी कविता हमें कक्षा पांचवीं के हिंदी पाठ्यक्रम में  पढाई गयी थी  जो बहुत ही मजेदार और प्रेरक  लगती है पाठकों के सम्मुख पेश  कर रहा हूँ । दुर्भाग्य से हमें इस रचना के रचयिता का नाम नहीं पता क्योंकि हमें स्कूल में यह बताया ही नहीं गया था और न ही कवि का नाम कहीं लिखा था ।
विनम्रता के साथ उन कवि महोदय को याद करते हुए माफ़ी के साथ उनकी रचना को सभी पाठकों के साथ शेयर कर रहा हूँ  । कुछ पंक्तियाँ विस्मृत हो जाने की वजह से स्वरचित हैं ।

    ||     ख़ुदा की अकलमंदी       ||

किसी गाँव में मिट्ठू नामक एक मियाँजी रहते थे ‘
बात बात में खुद ब खुदको खूब अकलमंद कहते थे   !

बात किसीकी ना माने वो आता काम पसंद नहीं ‘
नाक चढ़ाकर हिज्जेबाजी करता रहता जहां कहीं  !

एक दिवस ससुराल पहुँचने की उसने मन में ठानी ‘
कपडे पहन उठाकर थैला फिर सिर पर छतरी तानी  !

तेज धुप में चलते चलते तन से स्वेद लगा झरने ‘

आँख फाड़कर मियाँ मिट्ठू वृक्ष तलाश लगा करने  !

पाकर सुन्दर वृक्ष आम का वह आनंद विभोर हुआ ‘
उसकी ठंडी छाया में बस खूब मजे से लेट गया  !

खेतों में तरबूज देख वह बोला मेरे क्या कहने ‘
देखकर ऊपर आम रसीले मुंह से लार लगा बहने !

आम तोड़ने चढ़ा गिर पड़ा लिए तुडा घुटने टखने ‘
हाथ ना आते आम देख तब त्योरी तान लगा बकने !

खुदा बड़ा ही बेवक़ूफ़ है कैसे इसको समझाऊं ‘
अगर कहीं मिल जाये मुझे तो कच्चा ही चबा जाऊं !

देखो बेवक़ूफ़ ने आम दरख्तों पे ऊँचे लटकाये हैं ‘
और बड़े तरबूज को देखो बेलों पर लहराए हैं  !

अगर खुदा मैं होता तो सब गलती देता दूर भगा ‘

पेड़ों पर तरबूज और बेलों में चट देता आम लगा !

ठंडी हवा चली मिट्ठू बस वहीँ छांव में सो गया ‘
मीठे मीठे सपनों में बस सोते ही वो खो गया !

तेज हवा के झोंके से एक आम टूट कर गीर पड़ा ‘
टूटी नाक मियाँ मिट्ठू की टूट गया उसका जबड़ा  !

खुदा बड़ा ही अकलमंद है ये देखो मैंने माना ‘
टूटी नाक लिए निकला वह गाते गाते यह गाना !

अगर कहीं ये आम के बदले जो तरबूज लगे होते ‘
मेरा निकल कचूमर जाता घरवाले किसको रोते !

              || इति शुभम ||

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

3 thoughts on “|| ख़ुदा की अकलमंदी ||

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    राजकुमार भाई , कविता जिस ने भी लिखी, उस में बच्चों के लिए तो क्या बड़ों के लिए भी एक सन्देश था किः भगवान् जो करता है सही करता है .हम भी इस को पढ़ते थे लेकिन कहानी के रूप में .इस कविता के बहाने आप को सकूल के वोह दिन याद आ गए .

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय भाईजी । यह रचना 1975 में हमने कक्षा 5 में पढ़ी थी और तबसे ही यह मुझे काफी पसंद थी । आज के आधुनिक युग में इंसान भी मिट्ठू मियां की तरह खुद को बेहतर साबित करने की जद्दोजहद में लगा रहता है लेकिन अंत में कुदरत के आगे खुद को बेबस पाता है । लगभग आधी कविता भूल जाने के कारण स्वरचित है फिर भी कविता की मुल भावना वही है जो कविजी ने लिखी है । त्वरित संज्ञान लेने और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका ह्रदय से धन्यवाद ।

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय भाईजी । यह रचना 1975 में हमने कक्षा 5 में पढ़ी थी और तबसे ही यह मुझे काफी पसंद थी । आज के आधुनिक युग में इंसान भी मिट्ठू मियां की तरह खुद को बेहतर साबित करने की जद्दोजहद में लगा रहता है लेकिन अंत में कुदरत के आगे खुद को बेबस पाता है । लगभग आधी कविता भूल जाने के कारण स्वरचित है फिर भी कविता की मुल भावना वही है जो कविजी ने लिखी है । त्वरित संज्ञान लेने और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका ह्रदय से धन्यवाद ।

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