राजनीति

दाल में यह काला क्या है?

    हाल के वर्षों में, खास तौर से राजग सरकार के आने के बाद, दाल अपने आप में एक विषय बन गयी है। यूँ तो इसकी चिंता अमीरों से ज़्यादा गरीबों को रहती है, पर हाल में यह सरकार तक की चिंता बन चुकी है। अचानक से बढ़ी इसकी कीमतों ने इस कदर भ्रमित किया कि लोग इसकी कीमतों में ही उलझ कर रह गये और दाल में काले की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया। जी, दाल में कालाबाज़ारी। आइये देखते हैं कि क्या दाल वाकई इतनी मँहगी है या कहानी कुछ और है।

यह बात सही है कि वर्ष २०१४-१५ और २०१५-१६ के सूखे की मार से तिलहन, ‘दलहन’ और कपास आदि की उपज पर बहुत असर पड़ा है। यह भी सच है कि जब हमें बाहर से दाल मँगाने की ज़रूरतों पड़ी तो बेचने वाले देशों ने अपने जिन्स की कीमत दुगनी चौगुनी कर दी। परन्तु यदि हम इन विकट परिस्थितियों में दाल के थोक कीमत को देखें तो इनका बाज़ार भाव हमारे सर के उपर से गुज़र जाता है।
आप को जानकर हैरानी होगी की अरहर और उड़द की दालें, जो आमतौर से बाकी दालें से मँहगी रहती हैं, इनका थोक भाव २०१३ से आज तक कभी भी ₹९५००/- प्रति कुनटल से ज़यादा नहीं रहा है। मूँग दाल एक बार को २०१५ के दूसरी छमाही में अवश्य ₹११०००/- प्रति कुनटल तक पहुँच गयी थी पर वह भी कुछ महीनों के लिये। आज इस दाल का हाल यह है कि इसका थोक भाव प्रोत्साहन मूल्य से भी नीचे आ चुका है। अरहर और उड़द के आज के थोक मूल्य भी घट कर क्रमशः ₹५७९०/- और ₹५५००/- हो चुका है, परन्तु खुदरा मूल्य जस का तस है। क्यों ? जिस दाल का थोक मूल्य ₹५५/- या ₹५८/- प्रति किलो है वो बाज़ार में किस आधार पर आज भी ₹१५०-१६०/- के भाव से बिक रही है ? दाल की थोक कीमत पर कितना ऊपरी खर्च और मुनाफा खुदरा व्यापारी लेगा ? यह कौन लोग हैं जिन पर किसी भी सरकारी कोशिश का कोई असर नहीं पड़ रहा है?

ऐसा तो नहीं कि हाथी के दाँत खाने के और व दिखाने के और ? दाल ही क्यों, प्याज़, आलू, टमाटर आदि का भी यही हाल है। कल की ही एक ख़बर के अनुसार एक किसान के प्याज पर जब आढ़तियों ने ५ पैसे प्रति किलो का दाम लगाया तो उसने अपनी सारी फसल खेत में बतौर खाद डाल दिया। देहरादून और हरिद्वार अपने बासमती चावल के लिये कभी विख्यात थे पर आज यहाँ के किसान बासमती नहीं बोते। कारण कि उन्हे लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है। एक किसान मित्र से मालूम हुआ कि जिस बासमती को उगाने की लागत ₹३२००/- प्रति कुनटल आयी थी, उसकी खरीद बोली ₹२२००/- की लगायी गयी। ऐसे में किसान आत्महत्या नहीं करेगा तो क्या करेगा। हकीकत यह है कि सरकार का किसी पर कोई ज़ोर है ही नहीं। ‘कम प्रसाशन अधिक साशन’ का दम भरने वाली सरकार का वस्तुतः किसी पर कोई साशन है ही नहीं। ताक़त और पैसे का बोलबाला है। हर जिंस का प्रोत्साहन मूल्य तय करने से भी कुछ लाभ नहीं होगा। उस मूल्य पर सरकार ही खरीदेगी, थोक व्यापारी नहीं। और सरकार भी कहाँ तक खरीद सकेगी जिसके पास खाद्यान्न को रखने के समुचित साधन ही नहीं हैं।

कृषि मंडियों की कल्पना ही यह सोच कर की गयी थी कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिलेगा, पर हुआ यही है कि बजाय किसान के, वहाँ भी व्यापारियों और बिचौलियों की भीड़ जमा हो गयी है जो अपने हिसाब से मूल्यों को तय करती है। २०१२-१३ के संसदीय सत्र में कृषि क्षेत्र में विदेशी निवेश को बढ़ावा देने की कोशिश का पुरज़ोर तरीके से विरोध किया गया था, यह कह कर कि इससे छोटे व्यापारी मर जाएँगे। यह तर्क ही अपने आप में मूर्खतापूर्ण था। थोक का व्यापार छोटे नहीं बड़े व्यापारी करते हैं। विदेशी कंपनियाँ आतीं तो वे किसानों की छोटी छोटी काश्तों को एक जुट कर अपने मन मुताबिक खाद्यान्न पैदा करातीं और किसानों को भी अपनी उपज का सही मूल्य मिलता। साथ ही, वैज्ञानिक रीति से की गयी उपज की मात्रा और गुणवत्ता में भी निश्चय ही सुधार होता। परन्तु बिचौलियों और उनके हिमायतियों ने सरकार की एक न चलने दी।

कभी कभी तो यह सब एक साज़िश सी लगती है समर्थवानों की। अच्छे दिन आए हैं तो किसके ? कांग्रेस ने अगर देश की पूँजी लूटी तो क्या मौजूदा सरकार व्यापारियों की साँठ-गाँठ से देश की निरीह जनता को नहीं लूट रही है? अगर वो इस लूट में शरीक नहीं है तो इसे रोक पाने में असमर्थ अवश्य है। ऐसा भी नहीं है कि कीमतों को वश में नहीं किया जा सकता। करना इतना ही है कि सरकार खुद किसान से तयशुदा प्रोत्साहन मूल्य पर खरीदे और अपना खर्च निकाल कर व्यापारियों को बेचे। इस प्रकार किसान को उसकी पूरी लागत मिल जाएगी और वो व्यापारियों और बिचौलियों के हाथों लुटने से भी बच जाएगा। अगर सरकार से खरीदने के बाद व्यापारी अनाप-शनाप मुनाफा कमाने की कोशिश करें तो सरकार अपने बिक्री केंद्र बना कर मूल्य स्थिर कर सकती है। खरीदी गयी जिंस को यदि एक दो दिन में ही व्यापारियों के हाथ बेच दिया जाय तो उसके भंडारण की समस्या भी नहीं आएगी । रही बात कामगरों की तो हमारे देश में कामकाजी हाथों की कमी नहीं है। परन्तु इसके लिये राजनीतिक इच्छा शक्ति अति आवश्यक है ।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

2 thoughts on “दाल में यह काला क्या है?

  • विजय कुमार सिंघल

    लेख अच्छा है पर आंकड़े नजर नहीं आ रहे हैं. कृपया सुधर दें या पूरा लेख मुझे भेज दें.

  • राजकुमार कांदु

    bahut badhiya lekin sath men aankade bhi daal dete to achchha hota .

Comments are closed.