इतिहास

धरती का वास्तविक इतिहास

धरती का इतिहास वास्तविक रूप में भारतवर्ष का इतिहास ही है | सृष्टि, मानव व मानवता वहीं से प्रारंभ हुई, वहीं से समस्त विश्व मे प्रसारित व निर्देशित हुई, भारतीय सभ्यता व संस्कृति के पतन व उद्भव से ही विश्व मानव-संस्कृति का पतन व उद्भव संचालित व नियमित होता रहा |

इस विषय को स्पष्ट करने हेतु तीन प्रमुख तथ्यों को अलग अलग करके देखना होगा – जीव की उत्पत्तिमानव की उत्पत्ति व विकासऋषि-देव-मानव सभ्यता ( वैदिक सभ्यता ) एवं आर्य सभ्यता ..

सामाजिक अर्थ में “आर्य‘ का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था,  फिर अभिजात और श्रमिक वर्ग में अंतर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा।

       कुछ विद्वानों की मान्यता यह है कि आर्य भारतवर्ष के स्थायी निवासी रहे है तथा वैदिक इतिहास करीब ७५००० वर्ष प्राचीन है इसी समय दक्षिण भारत में द्रविड़ सभ्यता का विकास होता रहा। दोनों जातियों ने एक दूसरे की खूबियों को अपनाते हुए भारत में एक मिश्रित संस्कृति का निर्माण किया। यह विचार अब अधिक प्रभावी होता जा रहा है |

१. जीव सृष्टि—    

मानसपुत्रों की सृष्टि के बाद भगवान् शिव और फिर उसके बाद सनत्कुमार आदि उत्पन्न हुए फिर सप्तर्षि -à दक्ष-àमनु-शतरूपा …दक्ष पुत्रियाँ —विवस्वान,—स्वयंभाव मनु —मानव वंश .. कश्यप– देव, दानव, दैत्य एवं अन्य मानवेतर सृष्टि ..

यह सृष्टि कहाँ हुई | सुमेरु क्षेत्र जिसे ब्रह्मलोक माना जाता है, पामीर एवं मानसरोवर क्षेत्र, सरस्वती-सिन्धु के उद्गम प्रवाह का क्षेत्र है| यहीं मानव जाति की उत्पत्ति हुई |

प्रश्न है कि प्रथम जीव कहाँ उत्पन्न हुआ, ब्रह्मा स्वयं कहाँ से आये | पृथ्वी की आदिम अवस्था में भूमध्य रेखा पर अवस्थित भूखंड (लारेशिया + गोंडवानालेंड ) के दक्षिणी भाग गोंडवाना लेंड के भारतीय प्रखंड के सागर तट के समीप जीवन की समस्त सुविधाओं से युक्त स्थल पर प्रथम जीव का जन्म हुआ, जो धीरे-धीरे आदि-मानव में परिवर्तित होता रहा | गोंडवानालेंड के – द.अमेरिका, आस्त्रेलिया, अंटार्कटिका, अफ्रीका व भारत में विखंडन पर ये जीव सभी भूखंडों में बिखर गए |

उस समय गर्म या शीत-अतिवादी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण अन्य भूखंडों में ( उत्तर के लारेशिया- जिसे उ.अमेरिका, योरोप, साइबेरिया-एशिया आदि बने–  में भी ) जीवों का अति विकास संभव नहीं था केवल भारतीय भूभाग को छोड़कर जो एक द्वीप के रूप में उत्तर की ओर गतिशील होकर लारेशिया के साइबेरिया भूखंड की ओर गतिमान था | अतः अन्य सभी स्थानों पर जीव उत्पन्न, विक्सित होकर पुनः पुनः नष्ट होता रहा |

भारतीय भूखंड में जीव उचित परिस्थितियों के चलते नर्मदा घाटी में विकासमान होता हुआ, आदि-मानव के रूप में समस्त द्वीपीय भूखंड में फैलता रहा | अंतत भारतीय महासागरीय प्लेट के यूरेशियन प्लेट से टकराने पर यह भूखंड स्थिर हुआ | दोनों के मध्य सागरीय भाग उठते हुए हिमालय में परिवर्तित होने लगा| विविध विकासमान जीव सागर ( जिसे बाद मे दितिसागर एवं आज टेथिस कहा जाता है )  पार करके तिब्बत, साइबेरियन क्षेत्र पार करके समस्त लारेशिया के भूखंड में फ़ैलते हुए आगे बढ़ते गए, जो, योरोप, एशिया, व तिब्बत, कैलाश, मानसरोवर, सुमेरु क्षेत्र बना |

प्रत्येक अग्रगामी -गति पर  कुछ लोग/ मानव/ जीव सदा वहीं स्थिर होजाते हैं एवं कुछ आगे बढ़ते जाते हैं| स्थिर रहे प्राणी विकास में आगे बढ़ जाते हैं | इस प्रकार जो जीव-प्राणी भारतीय प्रायद्वीपीय भाग में रुके रहे वे वहां विक्सित हुए आदि-मानव…अर्ध-मानव..मानव आदि में | जो सुमेरु क्षेत्र के सबसे सुन्दर व सुरक्षित भाग– सरस्वती के पर्वतीय प्रवाह मानसरोवर क्षेत्र में रुक गए वे आदि-मानव से आगे मानव तक तीब्र गति से विकासमान हुए | उन्हीं का अग्र-पुरुष ब्रह्मा हुआ | जिसने ( या जिससे ) समस्त सृष्टि का निर्माण किया ( या हुआ) |

२. मानव की उत्पत्ति व देव आदि मानवेतर सृष्टि–

ब्रह्मा द्वारा – सृष्टि के बाद,  भगवान् शिव और फिर उसके बाद मानस सृष्टि से सनत्कुमार आदि, सप्तर्षि, दक्ष व मनु-शतरूपा, .विवस्वान—स्वयंभाव मनु —मानव वंश .. दक्ष पुत्रियाँ व कश्यप ऋषि से देव, दानव, दैत्य , राक्षस, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग एवं अन्य मानवेतर सृष्टि प्रकट हुई जो धीरे धीरे जीवन के अनुकूल परिस्थियां होते रहने पर सुमेरू ( ब्रह्मलोक—आज के पामीर, तिब्बत, मानसरोवर क्षेत्र) के उत्तर-पश्चिम—में फैलते हुए कश्यप सागर क्षेत्र, ( आज के यूरेशिया जो बाद में कुरु प्रदेश व जम्बू द्वीप हुआ ) एवं दक्षिण में हिमवर्ष (तिब्बत, नेपाल,  भारत तक) फैलते गए |

 ३. सुर-असुर

स्वयंभाव मनु की संताने भारत की ओर आईं और मानव कहलाये | कश्यप की विभिन्न पत्नियों से संताने मानवों से भिन्न थीं अतः समस्त मानवेतर सृष्टि कहलाई |  ये शक्तिशाली दिति पुत्र दैत्य, अदिति पुत्र देवगण, दनुपुत्र दानव, नाग  एवं अन्य प्राणी सृष्टि सुमेरु के उत्तर-पश्चिम व पूर्व में कश्यप सागर क्षेत्र, ( आज के यूरेशिया जो बाद में कुरु प्रदेश व जम्बू द्वीप हुआ ) में फैलती गयीं | इसी क्षेत्र में क्षेत्र स्वर्ग, देवलोक, इन्द्रलोक, गन्धर्व लोक आदि बसे |

यही भाई भाई, बाद में विचारधारा व आर्थिक—जल, निवास, संपदा पर अधिकार आदि कारणों से, देव-असुर आदि भिन्न भिन्न जातियां बनीं एवं आपस में संघर्ष रत हुईं| अध्यात्मिक वैचारिक-भाव युक्त सदाचारी दिति-पुत्र देवगण इंद्र-विष्णु के साथ संगठित होते गए और सुर कहलाये एवं अत्यंत बलवान भौतिक विचारधारा युक्त, अति-भौतिकता में लिप्त दैत्य व दानव आदि अलग समुदाय में संगठित होते गए और सुर विरोधी असुर कहलाये| इन्हीं के परस्पर द्वंद्वों-युद्धों को देवासुर संग्राम का नाम दिया गया | अन्य विद्याधर, गन्धर्व आदि अर्ध-देव जातियां कहलाईं जो देवों की विचारधारा से सहमत थीं | मानव भी देवों की आध्यात्मिक विचारधारा से युक्तता के कारण देवासुर संग्रामों में देवों की सहायता में तत्पर रहते थे | समस्त सृष्टि में यह प्रथम प्राणी व मानव सभ्यता  ऋषिदेव-मानव सभ्यता के रूप में विक्सित होती रही |

४. ऋषि-देव-मानव सभ्यता, वैदिक सभ्यता की स्थापना—

         शिव,  दक्ष पुत्री सती की मृत्यु तक उत्तर भारत में थे ….तत्पश्चात दक्षिण चले गए …वहां दक्षिण में बसे मानव, आदि-मानवों (जो प्रारम्भ में ही दक्षिण-भारत की ओर चले गए थे एवं अफ्रीका से भारतीय-खंड के टूटने के समय नर्मदा घाटी में आगये एवं विक्सित होते रहे ) की उत्थान–प्रगति में सहयोग दिया – शम्भू सेक राजा बने —यह उन्नत होती हुई सभ्यता, उत्तर की और प्रयाण करती हुई  – पूर्व—हरप्पा सभ्यता नाम से स्थापित हुई | यहाँ उत्तर कुरु, सुमेरु, सरस्वती-सिन्धु के प्रवाह क्षेत्र में विक्सित उच्च इंद्र-विष्णु सभ्यता के लोग तिब्बत, नेपाल, उत्तर प्रदेश एवं सरस्वती के मैदानी प्रवाह में बसने पर दोनों भरतखंडीय सभ्यताओं का .. संयोजन ..शिव, विष्णु, इंद्र द्वारा किया गया जिसमें शिव का प्रमुख संयोजनकर्ता के रूप में योगदान रहा अतः वे देवाधिदेव-महादेव कहलाये | यह सम्मिलित सभ्यता क्रमश पश्च हरप्पा, उन्नत सरस्वती सभ्यता से ही  वैदिक सभ्यता की स्थापना हुई, यहीं वेदों की रचना हुई तत्पश्चात महा-जलप्रलयोपरांत  आर्यावर्त की स्थापना |

इस प्रकार  ब्रह्मा-विष्णु-महेश- स्वय्म्भाव मनु, दक्ष, कश्यप-अदिति-दिति द्वारा स्थापित विविध प्रकार के आदि-प्राणी सभ्यता.. ( कश्यप ऋषि की विविध पत्नियों से उत्पन्न विश्व की मानवेतर संतानें नाग, पशु, पक्षी, दानव, गन्धर्व, वनस्पति इत्यादि ) एवं देव.असुर सभ्यता आदि का निर्माण हुआ|  मूल भारतीय प्रायद्वीप से स्वर्ग व देवलोक ( पामीर, सुमेरु, जम्बू द्वीप,( समस्त पुरानी दुनिया=यूरेशिया+अफ्रीका +भारत ) कैलाश में दक्षिण –प्रायद्वीप से उत्तरापथ एवं हिमालय की मनुष्य के लिए गम्य ( टेथिस सागर की विलुप्ति व हिमालय के ऊंचा उठने से पूर्व ) ..नीची श्रेणियों से होकर मानव का आना जाना बना रहता था… यही सभ्यता कश्यप ऋषि की संतानों – देव-दानव-असुर आदि विभिन्न जीवों व प्राणियों के रूप में समस्त भारत एवं विश्व में फ़ैली  एवं विश्व की सर्वप्रथम स्थापित सभ्यता देव-मानव सभ्यता कहलाई | स्वर्ग, इन्द्रलोक, विष्णुलोक, शिवलोक, ब्रह्मलोक ….सुमेरु-कैलाश ..पामीर –आदि पर्वतीय प्रदेशों में एवं स्वय्न्भाव मनु के पुत्र- पौत्रों आदि द्वारा ,काशी, अयोध्या आदि महान नगर आदि से पृथ्वी को बसाया जा चुका था |  विश्व भर में विविध संस्कृतियाँ  नाग, दानव, गन्धर्व, असुर आदि बस चुकी थीं | हिमालय के दक्षिण का समस्त प्रदेश  द्रविड़ प्रदेश कहलाता था..जो सुदूर उत्तर तक व्यापार हेतु आया-जाया करते थे |

      दोनों भरतखंडीय सभ्यताओं ने मिलकर उन्नत सभ्यताओं को जन्म दिया | सरस्वती सभ्यता, सिन्धु घाटी व हरप्पा सभ्यता के स्थापक भी यही मानव थे | हिमालय के नीची श्रेणियों को पार करके ये मानव तिब्बत क्षेत्र में एवं आगे तक पामीर एवं सुमेरु पर्वत आदि हिमप्रदेश में फैले एवं समस्त भारत में एक उन्नत सभ्यता देव सभ्यता की स्थापना की |

          इस प्रकार….समस्त सुमेरु या जम्बू द्वीप देव-सभ्यता का प्रदेश था |  यहीं स्वर्ग में गंगा आदि नदियाँ बहती थीं,.यहीं ब्रह्मा-विष्णु व शिव, इंद्र आदि के देवलोक थे…शिव का कैलाश, कश्यप का केश्पियन सागर, स्वर्ग, इन्द्रलोक  आदि ..यहीं थे जो अति उन्नत सभ्यता थी –– जीव सृष्टि के सृजनकर्ता प्रथम मनु स्वयंभाव मनु व कश्यप की सभी संतानें ..भाई-भाई होने पर भी स्वभव व आचरण में भिन्न थे | विविध मानव एवं असुर आदि मानवेतर जातियां साथ साथ ही निवास करती थीं | भारतीय भूखंड में स्थित मानव….. स्वर्ग – शिवलोक कैलाश अदि आया जाया करते थे …देवों से सहस्थिति थी …जबकि अमेरिकी भूखंड (पाताल लोक) व अन्य सुदूर एशिया –अफ्रीका के असुर आदि मानवेतर जातियों को अपने क्रूर कृत्यों के कारण अधर्मी माना जाता था |

देव व दानव गण प्रत्येक कठिनाई में स्वयं समस्या हल करने की अपेक्षा त्रिदेवों की सहायता की अपेक्षा रखने लगे | यहाँ की भाषा देव भाषा – आदि-संस्कृत -देव संस्कृत थी जो.. सम्पूर्ण बृहद भारत या जम्बू द्वीप ( यूरेशिया) की आदिवासी, वनान्चलीय, स्थानीय कबीलाई व दक्षिण भारतीय जन जातियों की भाषा आदि प्राचीन भारतीय भाषाओं से संस्कारित होकर बनी थी | यही आर्य सभ्यता पूर्व की मूल प्रचलित भाषा देव-संस्कृति ..देव-लोक की भाषा –आदि संस्कृत थी जिसे देव-वाणी कहा जाता है | वेदों की रचना इसी देव भाषा में हुई जिन्हें शिव ने चार विभागों में किया,  जिनके अवशेष लेकर प्रलयोपरांत मानवों की प्रथम-पीढी वैवस्वत मनु के नेतृत्व में तिब्बत से भारतीय क्षेत्रों में उतरी |

यह सभ्यता उन्नत होते हुए भी धीरे धीरे भोगी सभ्यता बन चली थी, युद्ध होते रहते थे, स्त्री-पुरुष स्वतंत्र व अनावृत्त थे, स्त्रियाँ स्वच्छंद थीं, बन्धनहीन व स्वेच्छाचारी थीं | किसी समुदाय की प्रारंभिक त्रुटियाँ होती हैं मस्तीभरा जीवन, उपभोग्या नारी का स्वरूप, अनेक स्त्रियों के साथ अवैध संबंध आदि अतिशय भोगपूर्ण व विलासी जीवन | इस उन्नत सभ्यता व संस्कृति देव-असुर संस्कृति में भी यही त्रुटियाँ आयीं |  सोमरस का देवों द्वारा और सुरा का असुरों द्वारा पान, उन्मुक्त जीवन आदि |

         इन्हीं त्रुटियों का निराकरण करते हुए महान् चिंतक एवं सिद्धांतनिष्ठ व्यक्तित्व के धनी परमश्रद्धेय वैवस्वत मनु ने महा-जलप्रलयोपरांत मन-मानव संस्कृति स्थापना की जो मानव त्रुटियों की संस्कृति, विनष्ट देव-संस्कृति का ही संस्कारित रूप था |

मानव रक्त में विद्रोह करने की क्षमता पुराकाल से ही चली आ रही है। देव व असुरों के आपसी विद्रोह के पश्चात जब  महर्षि अत्रि ने वैवस्वत मनु एवं अपने शिष्य ऋषि उतथ्य के साथ इस मानव संस्कृति  की स्थापना की व इसकी जड़ों को शक्तिशाली और बलवती बनाने का अदम्य प्रयास किया तब भी इसके विरोध के लिये विरोध हुआ। पुलस्त्य और विश्रवा ने अपनी पूर्ण शक्ति से इसकी स्थापना का विरोध किया तथा रक्ष-संस्कृति  की स्थापना की | यही  रक्ष संस्कृति आगे चलकर आर्य संस्कृति के लिए अत्यन्त बाधक सिद्ध हुई और अंततः इक्ष्वाकुवंशीय दशरथ नंदन राम द्वारा रावण पर विजय के उपरांत ही भारत से पूर्ण रूप से आसुरी-अनार्य व्यवस्था ध्वस्त हुई एवं समस्त भारत व विश्व में आर्य संस्कृति की स्थापना और रामायण की रचना| |

इसी आकर्षण व विद्रोह क्षमता के कारण द्वापर में बची-खुची शेष आसुरी शक्तियों का उद्भव हुआ एवं श्रीकृष्ण द्वारा उनका पराभव करके पुनः धर्म-संस्कृति स्थापना की गयी और गीता व महाभारत की रचना जिसमें उद्घोष है—

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |…

        धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे | 

५. महा जलप्रलय एवं मनु की नौका व पुनर्सृष्टि–

वैवस्वत मनु के समय –सतयुग के अंत में — हुई प्रसिद्ध महा-जल-प्रलय  (–मनु की नौका घटना )  में देव-सभ्यता के विनाश पर वैवस्वत मनु ने इन्हीं वेदों के अवशेषों को लेकर तिब्बतीय क्षेत्र से भारत में प्रवेश किया ( इसीलिए वेदों में बार बार पुरा-उक्थों व वृहद् सामगायन का वर्णन आता है ) | एवं मानव एक बार पुनः भारतीय भूभाग से समस्त विश्व में फैले जिसे योरोपीय विद्वान् भ्रमवश आर्यों का बाहर से आना कहते हैं |

इस महाजलप्रलय से विनष्ट सुमेरु या जम्बू द्वीप की देव-मानव सभ्यता पुनः आदिम दौर में पहुँच गयी, जो लोग व जातियां वहीं यूरेशिया के उत्तरी भागों में तथा हिमालय के उत्तरी प्रदेशों में फंसे रहे वे उत्तर की स्थानीय मौसम, वर्फीली हवाएं ….सांस्कृतिक अज्ञान के कारण अविकसित रहे | जो सभ्यताएं मनु के नेतृत्व में हिमालय के दक्षिणी भाग की भौगोलिक स्वस्थ भूमि ( यथा भारत-भूमि ) पर बसी वह महान विक्सित सभ्यताएं बनीं |

       गौरीशंकर शिखर पर उतर कर मनु एवं अन्य बचे हुए लोग तिब्बत में बस गए | मनु एवं नौका में बचे हुए जीवों व वनस्पतियों के बीजों से पुनः सृष्टि हुई| हिमालय की निम्न श्रेणियों को पार कर मनु की संतानें  तिब्बत एवं कम ऊँचाई वाले पहाड़ी विस्तारों में बसती गईं। फिर जैसे-जैसे समुद्र का जल स्तर घटता गया वे भारतीय भूमि के मध्य भाग में आते गए। धीरे-धीरे जैसे-जैसे समुद्र का जलस्तर घटा मनु का कुल पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिणी मैदान और पहाड़ी प्रदेशों में फैल गए।
       जनसंख्या वृद्धि और वातावरण में तेजी से होते परिवर्तन के कारण वैवस्वत मनु की संतानों ने अलग-अलग भूमि की ओर रुख करना शुरू किया।  जो हिमालय के इधर फैलते गए उन्होंने ही अखंड भारत की सम्पूर्ण भूमि को ब्रह्मावर्त,  ब्रह्मार्षिदेश,  मध्यदेश,  आर्यावर्त एवं भारतवर्ष आदि नाम दिए। यही लोग साथ में वेद लेकर आए थे जिन्होंने एक उत्कृष्ट सभ्यता को जन्म दिया जो निश्चय ही विनष्ट देव सभ्यता का संस्कारित रूप था |

६. आर्यावर्त व आर्य सभ्यता का जन्म 

         वैवस्वत मनु ने ब्रह्मा, नारद व आदि मनु, स्वयंभाव मनु द्वारा प्रणीत मानव-धर्मशास्त्र की स्मृतियों पर हीमनु-स्मृति के रूप में नीति-नियम पालक व्यवस्था से पुनः समाज को संपन्न किया तथा परिशोधित भाषा वैदिक-संस्कृत व लौकिक संस्कृत का गठन से एक  उच्च आध्यात्मिक चिंतन युक्त श्रेष्ठ सभ्यता को जन्म दिया | जिसमें उन्होंने वैदिक व्यवस्था को भंग करने वालों के लिए कढ़े नियमों का उपादान किया | वे सभी मनुष्य आर्य कहलाने लगे। इस प्रकार  आर्य जाति…विश्व का प्रथम सुसंस्कृत मानव समूह…का भारतीय क्षेत्र में जन्म व विकास होने के उपरांत…मानव सारे भारत एवं विश्व भर में भ्रमण करते रहे सुदूर पूर्व में फैलते रहे |

इन आर्यों के ही कई गुट अलग-अलग झुंडों में पूरी धरती पर फैल गए और वहाँ बस कर भाँति-भाँति के धर्म और संस्कृति व सभ्यताओं आदि को जन्म दिया। सिर्फ भौतिक सुख में डूबे, स्वयं में मस्त, अधार्मिक कृत्य व व्यवहार वाले लोगों, जातियों व सभ्यताओं को अनार्य कहा जाने लगा | मनु की संतानें ही आर्य-अनार्य में बँटकर धरती पर फैल गईं।

कठोर व्यवस्था करने से परिणाम हुआ कि वैदिक नियम भंग करने वालों को आर्य समाज से बहिष्कृत किया जाने लगा । समय के साथ साथ यह जाति से बहिष्कार करने का कार्य बहुत उग्र हो चला था और देश निकाला आदि देने पर ये लोग दूर दक्षिण भारत के अरण्यों में या उससे भी दूर दूर के द्वीपों पर एवं धरती के अन्य भागों में बसने लगे | कुछ लोग तो दण्ड व्यवस्था का पालन कर पुनः वैदिक आर्य समाज में प्रवेश पा लेते थे परन्तु बहुधा लोग तो आर्यों से ईर्ष्या द्वेष की भावना रखने लगे और ऐसे ही बहिष्कृत लोग आर्यवर्त से  दूर देशों में बसते चले गए  और उन देशों को अपनी जाति के नाम पर बसाते चले गए । दक्षिण भारत, अफ्रीका, चीन, योरप, एशिया आदि में यही आर्य, अनार्य होकर बसते चले गए एवं पुरा देवासुर संग्राम की भांति आर्य-अनार्य युद्ध होने लगे | इस धरती पर आज जो भी मनुष्य हैं वे सभी वैवस्वत मनु की ही संतानें हैं |

मानव रक्त में विद्रोह करने की क्षमता पुराकाल से ही चली आ रही है। देव व असुरों के आपसी विद्रोह के पश्चात जब  महर्षि अत्रि ने वैवस्वत मनु एवं अपने शिष्य ऋषि उतथ्य के साथ इस मानव संस्कृति  की स्थापना की व इसकी जड़ों को शक्तिशाली और बलवती बनाने का अदम्य प्रयास किया तब भी इसके विरोध के लिये विरोध हुआ। पुलस्त्य और विश्रवा ने अपनी पूर्ण शक्ति से इसकी स्थापना का विरोध किया तथा रक्ष-संस्कृति  की स्थापना की | यही  रक्ष संस्कृति आगे चलकर आर्य संस्कृति के लिए अत्यन्त बाधक सिद्ध हुई और अंततः इक्ष्वाकुवंशीय दशरथ नंदन राम द्वारा रावण पर विजय के उपरांत ही भारत से पूर्ण रूप से आसुरी-अनार्य व्यवस्था ध्वस्त हुई एवं समस्त भारत व विश्व में आर्य संस्कृति की स्थापना और रामायण की रचना| |

इसी आकर्षण व विद्रोह क्षमता के कारण द्वापर में बची-खुची शेष आसुरी शक्तियों का उद्भव हुआ एवं श्रीकृष्ण द्वारा उनका पराभव करके पुनः धर्म-संस्कृति स्थापना की गयी और गीता व महाभारत की रचना जिसमें उद्घोष है—

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |…

               धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे | 

         महाभारत युद्ध वास्तव में महाभारत युद्ध सिर्फ भारतीय महाद्वीप का युद्ध न होकर एक विश्व युद्ध था, जो काफी प्रामाणिक तौर पर आणविक युद्ध था जिसमें भौतिक व सांस्कृतिक तौर पर महाविनाश हुआ | भारत के स्वर्णिम काल के विनाश के गाथाएं विश्व में फैलीं, जो विदेशी लोग स्वदेश में ही युद्धरत रहते थे … बाहर भी जाने लगे….आक्रान्ताओं का युग प्रारम्भ हुआ …भारत के स्वर्ण युग के प्रसिद्धिके कारण भारत विदेशी आक्रान्ताओं क प्रिय स्थल बना .जिसे मौर्यों व गुप्तवंश ने राजनीतिक स्तर पर न केवल रोके रखा अपितु बेबीलोन तक भारतीय साम्राज्य की ध्वजा-सीमा फैला दी| गुप्त साम्राज्य के पतन पश्चात,  गृह-कलह, द्वंद्व की स्थिति, चक्रवर्ती सम्राट …राष्ट्रीय एकता…भारतीय सांस्कृतिक एकता, एक रूपता की कमी…के कारण राजनैतिक अस्थिरता -द्वंद्व-द्वेष -अनैतिकता के स्थिति उत्पन्न होने लगी | अज्ञानता व वैदिक दर्शन के विस्मृति के युग में विभिन्न नास्तिक वेदेतरदर्शनों—चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि की उत्पत्ति, पोंगा पंथी, तंत्र-मन्त्र, झाड-फूंक, अत्यधिक कर्मकांड आधारित ब्राह्मण वर्ग की अकर्मण्यता व ऋषि-आश्रम, व्यवस्था का लुप्त होना के साथ केवल भारतीय समाज में ही नहीं अपितु भारत के दिग्दर्शक रूप के विच्छिन्न होने से समस्त विश्व-समाज में अज्ञानता पतन का प्रारम्भ हुआ और यह स्थिति मुगलों के काल से होते हुए अंग्रेजों व सामंती काल तक चलती रही |

अब धरती के इस इतिहास के कुछ मुख्य बिन्दुओं को यहाँ वर्णित किया जायगा—–

१. विश्व की प्रथम राजधानी — बर्हिष्मतीमनु-शतरूपा का जन्म हिमालय के लोकपाल तीर्थ ब्रह्मपुरी में हुआ—हेमकुन्ट साहब के पास….सप्तर्षियों के नेतृत्व में सरस्वती प्रवाह मार्ग (तिब्बत) में प्रथम राज्य ब्रह्मावर्त की स्थापना हुई| सरस्वती तट पर राजधानी बर्हिष्मती की स्थापना |–हरयाणा के जींद नगर में ..वाराह तीर्थ है .(.आदि-वाराह जो ब्रहमाजी की आज्ञा से पृथ्वी को समुद्र से निकाल कर लाये… अर्थात समस्त यूरेशिया आदि पुरानी धरती का स्थितिक-ज्ञान अर्जित किया| यहीं से मानव-सृष्टि का प्रारम्भ हुआ |

—–अर्थात यहीं से ( भरतखंड-भारतवर्ष से ) ब्रह्माजी की आज्ञानुसार जनसंख्या बढ़ने पर प्रियव्रत पुत्र आग्नीध्र ने अपनी संतान/ मानवों को समस्त धरती ( जम्बूद्वीप, यूरेशिया आदि में) बसाया |

—-आदि से ही मानव की यह मूलवृत्ति थी कि वह जहां स्थानांतरित होता था अपनी भाषा, धर्म, देवी-देवताओं व नगरों-स्थानों-नामों को भी साथ लिए चलता था | आर्य लोग मध्य-एशिआ की ओर बढ़ते आते हैं और अपने प्रिय प्रदेश का नाम अपने साथ लेते आते हैं, जो मध्य-एशिआ से दक्षिण की ओर हटते-हटते, भरत-खण्ड में कुरु-पाञ्चाल के रूप में परिवर्तित हो गया।

२.आदि पृथ्वी भूखंड…का प्रथम बंटवारा  -ब्रह्माजी से उत्पन्न स्वायंभुव मनु के दो पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत थे। प्रियव्रत से अग्नीघ्र हुए। अग्नीघ्र जम्बू द्वीप के सम्राट थे। अग्नीघ्र के 9 पुत्र हुए- नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्य, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल। राजा आग्नीध ने उन सब पुत्रों को उनके नाम से प्रसिद्ध भूखंड दिया।

३.उत्तर कुरु—उक्त 9 पुत्रों में से एक कुरु को अग्नीघ्र ने अंटार्कटिका से लगा इलाका दिया था। पुराणों के अनुसार चतुर्द्वीपी भूगोल के अनुसार धरती के मध्य मेरू पर्वत के उत्तर की समस्त भूमि उत्तर कुरु कहलाती है। मेरू के दक्षिण में भारत है और उत्तर में रशिया। उत्तर कुरु अर्थात पामीर के पठार से उत्तरी -ध्रुव तक ( समस्त यूरेशिया ) का सारा भू-भाग अग्नीघ्र के पुत्र कुरु का था। पामीर के उत्तर में चीनी तुर्किस्तान का भूखंड है। वह सब और उसके उत्तर में साइबेरिया की जो विस्तृत भूमि है वह सब कुरु के अधीन थी। उनकी भूमि के पास अंटार्कटिका का  महासागर है….. यहीं कश्यप सागर प्रदेश में ब्रह्मा पुत्र कश्यप मुनि की २३ पत्नियों से – देव,(अदिति से) दानव (दानु से ) दैत्य (दिति से ), गन्धर्व, पशु पक्षी सर्प, वनस्पति आदि समस्त मानवेतर संताने उत्पन्न हुईं | यह समस्त क्षेत्र देवलोक के नाम से जाना गया |

नाभि को भारत का भाग दिया गया à नाभि के नाम पर अजनाभ खंड  àपुत्र ऋषभ ( + जयन्ती देवराज इंद्र की पुत्री )à पुत्र भरत ( अजनाभ वर्ष -àभारतवर्ष नाम

—एवं….. अन्य को पामीर के चहुँओर के पूर्वी योरोप, कश्यप सागर का क्षेत्र…इलावृत्त …पामीर के पश्चिम …चीन आदि—तक भाग ….

—– उत्तानपाद ने ब्रह्मावर्त के बिठूर ( अब कानपुर) में राजधानी बसाई àपुत्र भक्तराज ध्रुव ने विश्व का प्रथम दुर्ग स्थापित किया -ध्रुव से श्लिष्ट …से रिपु ..से चक्षुस-.से चाक्षुस मनु-..से वेन –..से पृथु…जिसके नाम से भूमि पृथ्वी कहलाई |

४. भारत नाभि  जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे।

 ५. भारत ही क्यों ..  जम्बू द्वीप के 9 खंड  इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय, में भारतवर्ष ही मृत्युलोक है, शेष देवलोक हैं। इसके चतुर्दिक लवण सागर है। इस संपूर्ण नौ खंड में —इसराइल से चीन और रूस से भारतवर्ष का क्षेत्र आता है।—अर्थात आज का पूर्वी योरोप व समस्त एशिया भूभाग  …पश्चिमी योरोप हिमाच्छादित भू-क्षेत्र होने से निवास के योग्य नहीं था एवं निचला भू-तल होने से सागर की गोद में जाता रहता था | अतः वहा मानव का विकास नहीं हुआ |

इस भूमि का चयन करने का कारण था कि प्राचीनकाल में जम्बू द्वीप ही एकमात्र ऐसा द्वीप था, जहां रहने के लिए उचित वातारवण था और उसमें भी भारतवर्ष की जलवायु सबसे उत्तम थी । यहीं वितस्ता नदी के पास स्वायंभुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा निवास करते थे, यह समस्त क्षेत्र सुमेरु क्षेत्र –पामीर-तिब्बत –सरस्वती के पर्वतीय अदि-प्रवाह क्षेत्र में था एवं आदि-ब्रह्मलोक भी यही था। मानव का आविर्भाव व क्रमिक विकास  यहाँ से हुआ|
६.दक्षिण कुरु ——( पाश्चात्य व आधुनिक इतिहासकारों द्वारा माना जाता है कि उत्तर कुरु लोग ही हिन्दुकुश के दर्रे से आकर भारत में बस गए और वे दक्षिण कुरु के नाम से प्रसिद्ध हुए। यही आधुनिक इतिहास का कुरुवंश का प्रारम्भ माना जाता है  इन्हीं के वंश में शांतनु और भीष्म हुए थे। विश्व इतिहास में इन कुरुओं की एक शाखा ने ईरान की ओर….. और दूसरी शाखा ने भारत की ओर अपनी जड़ें  जमाना शुरू कीं। )

—वस्तुतः उत्तर कुरु के अतिरिक्त सभी पामीर के दक्षिणी-पश्चिमी, आज का उत्तरापथ-ईरान  क्षेत्र, तिब्बत आदि क्षेत्र, भारत, सरस्वती क्षेत्र सहित के मानव दक्षिण-कुरु थे | ये मानव चारों और से –उत्तर –पश्चिम से हिंदूकुश दर्रों, सरस्वती प्रवाह के किनारे किनारे  एवं उत्तर-पूर्व से तिब्बत से हिमालय की नीची श्रृंखलाओं से होते हुए आज के नेपाल, उत्तर प्रदेश आदि होते हुए समस्त भारत में फ़ैल गए | अतः भारत को ही मनुष्यलोक या मृत्युलोक कहा गया |

दक्षिण कुरुओं का प्रारंभिक राज्य हिन्दुकुश से पामीर के दक्षिणी-पश्चिमी, आज का उत्तरापथ, ईरान क्षेत्र,  तिब्बत आदि क्षेत्र, सरस्वती क्षेत्र सहित कश्मीर तक समस्त हिमवर्ष अथवा वृहद् भारत ( आज के पारस (ईरान), अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्थान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालद्वीप, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, वियतनाम, लाओस तक भारतवर्ष।) में था।

७.. सूर्यवंश — ब्रह्मा पुत्र कश्यप के देव पुत्र विवस्वान सूर्य àश्रृद्धा देव ( स्वयंभाव मनु ) à वैवस्वत मनु /जलप्रलय — सावर्णि मनु — सूर्यवंश  ( त्रेता प्रारम्भ —) àइक्ष्वाकु– इक्ष्वाकु-वंश —à रघु –रघुवंश à राम ….>

.चन्द्रवंश —  ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा ( चन्द्र वंश प्रारम्भ) का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरु हुए। पुरु के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए जिनसे द्वापर वाले कुरुवंश की स्थापना हुई |

परमपिता ब्रहमा से प्रजापति दक्ष हुए,  दक्ष से अदिति हुए,  अदिति/कश्यप से बिस्ववान, बिस्ववान से मनु, जिनके नाम से हम लोग मानव कहलाते हैं, मनु से इला, इला से (चन्द्र पुत्र बुध से ) पुरुरवा, जिन्होंने उर्वशी से विवाह किया, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष जो इन्द्र के पद पर भी आसीन हुए परन्तु सप्तर्षियों के श्राप के कारण पदच्युत हुए, नहुष के दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए. ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले..

.पुरुवंश — ययाति के पांच पुत्र थे- देवयानी से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से दृहू, अनु, एवं पुरु –यदु से यादवों का यदुकुल चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया –तुर्वसु से मलेछ, —–दृहू से भोज तथा—पुरु से सबसे प्रतापी पुरुवंश चला –अनु का वंश ज्यादा नहीं चला

—-ये सब इसराइल से लेकर अरब, पश्चिमोत्तर भारत, सरस्वती नदी से ब्रह्मपुत्र तक सारे  भारत में स्थित थे…ये सभी पुनः राज्य प्रसार करते हुए पश्चिम –अरब, दक्षिण भारत, पूर्व असम आदि एवं उत्तर में कश्मीर, कश्यप सागर तक फ़ैलते रहे |

      ययाति के 5 पुत्रों  – 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु को वेदों में पंचनंद-पांचजन –पांचजन्य  कहा गया है। —-ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को,  दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए।
10.जम्बू द्वीप का विस्तार व आर्यावर्त….
—–जम्बू दीप : सम्पूर्ण यूरेशिया
—–भारतवर्ष :
पारस (ईरान), अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्थान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालद्वीप, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, वियतनाम, लाओस तक  भारतवर्ष |

——आर्यावर्त : बहुत से लोग भारतवर्ष को ही आर्यावर्त मानते हैं जबकि यह भारत का एक हिस्सा मात्र था। वेदों में उत्तरी भारत को आर्यावर्त कहा गया है। आर्यावर्त का अर्थ आर्यों का निवास स्थान। आर्यभूमि का विस्तार काबुल की कुभा नदी से भारत की गंगा नदी तक था ।
      ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थान को सप्तसिंधुप्रदेश कहा गया है। ऋग्वेद के नदीसूक्त (10/75) में आर्य निवास में प्रवाहित होने वाली नदियों का वर्णन मिलता है, जो मुख्‍य हैं काबुल (कुभा) नदी,  क्रुगु ( कुर्रम नदी ) गोमती (गोमल) सिंधु, परुष्णी (रावी), शुतुद्री (सतलज), वितस्ता (झेलम), सरस्वती, यमुना तथा गंगा। उक्त संपूर्ण नदियों के आसपास और इसके विस्तार क्षेत्र तक आर्य रहते थे।
११.मोहनजोदारो और हरप्पा सभ्यता—

          १९२३ में मोहनजोदारो में जिस सभ्यता का पता चला है, उसका समय ३,२०० या ३,३०० वर्ष ईशा पूर्व निश्चित किया गया है। आज से ५,००० वर्ष पूर्व जब भारत के पश्चिमोत्तर-प्रदेश में एक ऐसी सभ्यता थी, जिसमें लोहा गलाना, ईंट के मकान बनवाना, नहर ख़ुदवाना, संगमरमर का काम करना, कला, शिल्प-ज्ञान और शीशे का प्रयोग प्रचलित था, उस समय भारत के अन्य भागों में भी ऐसी सभ्यता रही होगी | उस समय भारत में लिपि प्रचलित थी। परन्तु एक बात जो जो स्पष्ट नहीं है कि यह सभ्यता आर्यों की नहीं, प्रत्युत अनार्यों जैसी है।

इस सिद्धान्त का आधार यह है कि यहाँ आविष्कृत पदार्थों में ऐसे चित्र और लिंग तथा समाधियां हैं जो आर्यों की कला से नहीं मेल खातीं। ये मेसोपोटेमिया, मिश्र और क्रेट के तत्कालीन सम्बन्ध के द्योतक बताये जाते हैं। अतएव यह बैबिलोनिया के लिंग का अनुकरण है, न कि शैवों के शिवलिंग का। इसके सिवा उस समय की अग्निपूजा की विधि आर्यों की अग्निपूजा की विधि से मिलती-जुलती नहीं है। आंशिक समाधि की तुलना–जिसमें शव को लोग मचान पर रख छोड़ते और अस्थि के अवशिष्ट रह जाने पर उसे किसी मिट्टी के बर्तन में रखकर गाड़ देते थे–आधुनिक छोटानागपुर के मुण्डों में प्रचलित आंशिक समाधि से कीगयी  है। यहाँ पर प्राप्त खोपड़ियां भी मद्रास के द्रविड़ों की शक्ल की पायी जाती हैं। महाभारत के विराट पर्व में पाण्डवों ने अपने अस्त्रों को, आंशिक समाधि के अनुकरण पर, कपड़े से छिपाकर रख छोड़ा था। महाभारत के समय भी जंगली जातियों का होना वर्णित है। इससे विदित होता है कि पाण्डव लोगों के समय में जंगली जातियों में ऐसा रिवाज रहा होगा। वैदिक साहित्य में इसका वर्णन या संकेत न मिलना कोई आश्चर्य नहीं। महाभारत का काल हिन्दू-प्रणाली के अनुसार ३,००० से ५००० वर्ष ईपू समझा जाता है।

वस्तुतः हरप्पा, मोहन्जोदारो आदि सभ्यताएं वैदिक सभ्यता पूर्व की प्रारंभिक जन-जाति सभ्यताएं हैं जो दक्षिण भारत की द्रविड़ सभ्यता थी शिव के नेतृत्व में दक्षिण से उत्तर की ओर प्रसारित हुई जहां सिन्धु घाटी क्षेत्र में आनेपर उत्तर तिब्बत से आने वाले इंद्र-विष्णु के नेतृत्व वाले उन्नत मानवों के साथ समन्वित होकर पश्च हरप्पा या सरस्वती सभ्यता एवं वैदिक सभ्यता हुई | अतः इन प्राचीन नगरों में उसी सभ्यता के चिन्ह मिलते हैं| जिनकी बहुत सी मूल बातें आज भी समस्त भारत में अपनाई जाती हैं|

१२.उत्तरवैदिक काल–

सभ्यता का मुख्य क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का मैदान हो गया था। इस काल में राज्यों का विस्तार होता गया और कई जन व वंश विलुप्त हो गए। भरत, त्रित्सु और तुर्वस जैसे जन राजनीतिक हलकों से ग़ायब हो गए जबकि पुरू पहले से अधिक शक्तिशाली हो गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ नए राज्यों का विकास हो गया था, जैसे – काशी, कोसल, विदेह, मगध और अंग।

इस काल मे कौसाम्बी नगर मे॓ पहली बार पक्की ईटो का प्रयोग किया गया। इस काल मे वर्ण व्यवसाय के बजाय जन्म के आधार पर निर्धारित होने लगे।

भारत में त्रेता युग के समय रामायण काल तक दो तरह के लोग हो गए। एक वे जो सुरों को मानते थे और दूसरे वे जो असुरों को मानते थे। अर्थात एक वे जो ऋग्वेद को मानते थे और दूसरे वे जो अथर्ववेद को मानते थे। वस्तुतः रामायण काल तक असुरों व अन्य देवेतर जातियों के समर्थ व्यक्तियों, वीर, योद्धा, एवं महान व्यक्तित्वों व देवों के सहायकों, मित्रों, भक्त आदि को अर्ध-देव व देव श्रेणी में सम्मिलित किये जाने का सम्मान मिलना प्रारम्भ होचुका था | उदाहरण स्वरुप वैदिक वृषाकपि जो इंद्र का मित्र है ( जिसे कुछ लोग परवर्ती काल में हनुमान के रूप में देव कोटि ग्रहण करना मानते हैं |

—–महाभारत  एवं अन्य प्रचलित दूसरी कथाओं के वर्णन में असुरों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। साधारण विश्वास में वे मानव से श्रेष्ठ गुणों वाले विद्याधरों की कोटि में आते हैं।

पुराणों में आये उल्लेखों से स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण के उदय से पूर्व कंस ने  यादव गणतंत्र के प्रमुख अपने पिता और मथुरा के राजा उग्रसेन को बंदी बनाकर निरंकुश एकतंत्र की स्थापना करके अपने को सम्राट घोषित किया था। उसने यादव व आभीरों को दबाने के लिए इस क्षेत्र में असुरों को भारी मात्रा में ससम्मान बसाया था, जो प्रजा का अनेक प्रकार से उत्पीड़न करते थे। श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल में ही आभीर युवकों को संगठित करके इनसे टक्कर ली थी। ब्रज के विभिन्न भागों में इन असुरों को जागीरें देकर कंस ने सम्मानित किया। मथुरा के समीप दहिता क्षेत्र में दंतवक्र की छावनी थी, पूतना खेंचरी में, अरिष्ठासुर अरोठ में तथा व्योमासुर कामवन में बसे हुए थे। परंतु कंस वध के फलस्वरूप यह असुर समूह या तो मार दिया गया या फिर ये इस क्षेत्र से भाग गये।

१३.    महाभारत के पश्चात् के इतिहास का दिग्दर्शन गर्गाचार्य ने अपनी गर्ग-संहिता में किया है। जिसमें जनमेजय से लेकर ईशा से दो शताब्दी पूर्व तक के इतिहास का दिग्दर्शन है। गर्ग-संहिता में जनमेजय और ब्राह्मणों के बीच वैमनस्य का जिक्र किया है तथा विदित होता है कि महाभारत के बाद धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म का केन्द्र तक्षशिला से हटकर मगध के पाटलिपुत्र में आ गया।

        महाभारत के बाद अवश्य ही ब्राह्मण धर्म यानी वैदिक धर्म के विरुद्ध आन्दोलन उठने का संकेत पाया जाता है। हिन्दू प्रणाली के अनुसार महाभारत का समय ३,००० वर्ष ईपू के लगभग माना जाता है | बुद्धदेव और महावीर-जैन का उदय ईशा से पूर्व सातवीं शताब्दी के मध्य में हुआ। अर्थात इस धार्मिक क्रान्ति के सफल होने में २,४०० वर्ष का समय बहुत नहीं है।

वैदिक काल से ही हमारे धार्मिक विचार में परिवर्तन होते आये हैं जो हिन्दू दर्शन का  क्रमिक विकास ही है।  वैदिक काल के अनेकेश्वरवाद से (जिसमें एकेश्वरवाद के बीज उपस्थित  थे ) उपनिषत्काल के एकेश्वरवाद तक —एकेश्वरवाद के बाद  ब्रह्मवाद, जिससे वेदान्त की उत्पत्ति हुई। जिसमें संसार माया का जाल और ब्रह्म ही एक सत्य समझा जाता है। इस ब्रह्मवाद और मायावाद की धूम के बाद…. पुरुष और प्रकृति-वाद का आन्दोलन जाग्रत् हो जाता है। ब्रह्म पुरुष और माया प्रकृति बन जाती है।  इस विचार विकास में पर्याप्त समय लगा होगा जो वास्तव में त्रेता के अंतिम कालखंड से ही महर्षि जाबालि के जगन्सत्यं ब्रह्म मिथ्या के सूत्र में प्रारम्भ होचुका था । सूत्रकाल तक आते आते में कपिल का सांख्य-सूत्र  मिलता है कपिल अपने विचार के कारण नास्तिक समझे गये। और सांख्यधर्म एक विशिष्ट दर्शन के रूप में प्रकट हुआ, जो बौद्ध धर्म से लगभग ५-६ सौ वर्ष पूर्व समझा जाता है। सांख्य के आधिभौतिक धर्म के सिद्धांत ही  बौद्धों या जैनों के धर्म ( नास्तिक दर्शन) का मूल हैं। लगभग ४०० वर्षों तक नास्तिकता का विकास होता गया। इन्हीं वर्षों में चार्वाक आदि का भी प्रादुर्भाव हुआ।

अथर्व-काल के बाद हमें तन्त्र-धर्म का भी सूत्रपात होते देख पड़ता है। धीरे-धीरे यह तन्त्रवाद ज़ोर पकड़ता गया और वैदिक धर्म का रूप विकृत होता गया। यही तन्त्रवाद सम्भवतः शाक्त-धर्म का मूल-कारण रहा।  इस प्रकार गौतम बुद्ध के समय तक वैदिक धर्म व यज्ञादि का रूप विकृत होता गया एवं साधारण जनमानस में हिंसा का प्रचार होता गया जिसके प्रतिकार स्वरुप जैन व बौद्ध धर्म अस्तित्व में आये |

महाभारत के बाद जैन व बौद्धकालीन इतिहास —-

परीक्षित के पुत्र जनमेजय के समय से ही ब्राह्मणों के विरुद्ध दुर्भाव फैलने लगे और यही कारण है कि तक्षशिला छोड़कर ब्राह्मणधर्मावलम्बी आर्य मगध की ओर आ गये। गर्गाचार्य स्वयं ब्राह्मणधर्म का अनुयायी होने के कारण अवश्य ही बौद्ध या उसके पूर्व के इतिहास जैन धर्म आदि नास्तिक यज्ञव वैदिक धर्म विरोधी स्वरों पर मौन हैं | संस्कृत साहित्य ही इस विषय में बिल्कुल चुप है। वह अवश्य ही परस्पर विद्रोह और अशान्ति का समय रहा होगा।  सता केंद्र तक्षशिला से मगध के बीच बार बार बदलता रहा |

       तक्षशिला-इन्द्रप्रस्थ धुरी — जन्मेजय के बाद कुरु वंश का अंतिम हस्तिनापुर का राजा निचक्षु था हस्तिनापुर नरेश निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहा दिए जाने पर अपनी राजधानी वत्स देश की कौशांबी नगरी को बनाया। बुद्ध के समय(483 ईसा पूर्व) में कौशांबी का राजा उदयन के बाद क्षेमक अंतिम राजा थे –à उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ५७ ईपू ..तत्पश्चात पृथ्वीराज चौहान अंतिम हिन्दू सम्राट –…. यशपाल को हराकर …मोहम्मद गौरी …

    मगध धुरी के बृहद्रथ जरासंध (महाभारत काल) — रिपुंजय —प्रद्योत (२१३२ ई पू मंत्री)-à हर्यक वंश  बिम्बिसार- को ५४५ पुत्र अजातशत्रु …४९३ ई. नागवंश नागदशक—-नन्दीवर्धन के सामन्त शिशुनाग वंश ४१२ ई पू ….३४४ ई. पू.—महापद्म नन्द –नन्द वंश —धनानंद—–>३२२ईपू –चन्द्रगुप्त मौर्य —अशोक– पुष्यमित्र शुंग ने 105 ई. पू. –  १८० ई. बेक्त्रिया के विदेशी शासक दिमित्रियास –मिलिंद….सातवाहन—–कुशाण –…..गुप्त वंश २८० ई. से. ५५० ई …हर्षवर्धन ६०६ ई. कन्नौज …

इसी काल में ( लगभग २००० ईपू ) सरस्वती नदी के लुप्त होने एवं जल-प्लावन से क्षेत्र का अधिकाँश भाग विनाश को प्राप्त हुआ,( शायद द्वारिका आदि इसी काल में समुद्र में समा गयीं, कच्छ आदि मरूभूमि का निर्माण हुआ ) तमाम ऋषियों –मुनियों के हिमालय पर चले जाने के कारण वैदिक सभ्यता व संस्कृति के पतन  होने पर ब्राह्मण भी भ्रष्ट होने लगे, विद्या लुप्त होने लगी, चहुँ ओर अज्ञान का अन्धकार छाने लगा |

         यही सिकंदर के आक्रमण का काल है ( १००० ईपू – जिसे योरोपीय विद्वान् ४०० ईपू मानते हैं) | उस समय सीमान्त के तक्षक वंशीय  नाग शासक वेसीलियस या टेक्सीलियस ने सिकंदर का स्वागत किया था जिसका पुत्र आम्भी सिकंदर का मित्र बना जिसने पोरस पर चढ़ाई के लिए सिकंदर को उकसाया था |

यद्यपि भारतीय शक्ति एवं विभिन्न परिस्थितियों वश सिकंदर को पंजाब से ही लौट जाना पडा परन्तु इस आक्रमण के साथ ही भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमान्त के विदेशी शासकों, यवन, हूण, म्लेक्ष, आदि को भारत की आतंरिक दशा व अशक्त-स्थिति का ज्ञान होगया एवं आक्रमणों का सिलसिला प्रारम्भ होगया, जो मौर्य व गुप्त वंश के सशक्त शासकों (५-६ वीं शताब्दी ईपू) के प्रतिरोध के कारण कुछ सदियों तक पुनः रुका रहा परन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा जैन धर्म (ईसा से ५९९ वर्ष पहले )एवं अशोक के बौद्धधर्म (563 ईसा पूर्व) अपनाने से, अशोक के आदर्शवाद और धार्मिक भावना ने मौर्य सैन्य-व्यवस्था और अनुशासन को प्रभावित किया जो मौर्य साम्राज्य के पतन मेँ सहायक सिद्ध होने के साथ साथ भारतीय-समाज में वैदिक धर्म व ज्ञान के पतन की भूमिका सिद्ध हुआ | तत्पश्चात अंतिम सुदृढ़ शासकों, गुप्त वंश के पतन के बाद विभिन्न विदेशी आक्रमणकारियों ग्रीक, पार्थियन के आने व उनके शासन का सिलसिला चलने लगा जिन्हें  हर्ष, विक्रमादित्य, भोज, पृथ्वीराज चौहान तक शासक किसी भी तरह  अपने व्यक्तिगत शौर्य से देश में व्याप्त होने से रोकते रहे | पृथ्वीराज चौहान की हार से मोहमद.गौरी के साथ मुस्लिम आक्रान्ताओं के भारत विजय का सिलसिला प्रारंभ हुआ |  विश्वगुरु भारत से उचित जीवन दिशा-निर्देश न प्राप्त होने के कारण, विश्व समाज में मुस्लिम—मुग़ल— जिसके उपरांत ईसाई धर्म व ब्रिटिश साम्राज्य का युग प्रारम्भ हुआ|

562235_415387095168528_377007099006528_1152843_1271595221_n 11537691_922147431182635_3488265710151802292_n index   अंततः भारत से ब्रिटिश साम्राज्य के अंत के कारण ही विश्व समाज आज के युग में स्वतंत्रता की श्वांश ले सकने के योग्य हुआ है| आज विश्व समाज भारत की ओर पुनः आशा से देख रहा है, भारतीय सनातन, वैदिक व्यवस्था ही पुनः भारत को अपनी विश्वगुरु स्थान पर ले आने हेतु एवं समस्त विश्व का पुनः नेतृत्व करने योग्य बनाने में सक्षम है|
 

डॉ. श्याम गुप्त

नाम-- डा श्याम गुप्त जन्म---१० नवम्बर, १९४४ ई. पिता—स्व.श्री जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता, माता—स्व.श्रीमती रामभेजीदेवी, पत्नी—सुषमा गुप्ता,एम्ए (हि.) जन्म स्थान—मिढाकुर, जि. आगरा, उ.प्र. . भारत शिक्षा—एम.बी.,बी.एस., एम.एस.(शल्य) व्यवसाय- डा एस बी गुप्ता एम् बी बी एस, एम् एस ( शल्य) , चिकित्सक (शल्य)-उ.रे.चिकित्सालय, लखनऊ से वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक पद से सेवा निवृत । साहित्यिक गतिविधियां-विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से संबद्ध, काव्य की सभी विधाओं—गीत, अगीत, गद्य निबंध, कथा, आलेख , समीक्षा आदि में लेखन। इन्टर्नेट पत्रिकाओं में लेखन प्रकाशित कृतियाँ -- १. काव्य दूत, २. काव्य निर्झरिणी ३. काव्य मुक्तामृत (काव्य सन्ग्रह) ४. सृष्टि –अगीत विधा महाकाव्य ५.प्रेम काव्य-गीति विधा महाकाव्य ६. शूर्पणखा महाकाव्य, ७. इन्द्रधनुष उपन्यास..८. अगीत साहित्य दर्पण..अगीत कविता का छंद विधान ..९.ब्रज बांसुरी ..ब्रज भाषा में विभिन्न काव्य विधाओं की रचनाओं का संग्रह ... शीघ्र प्रकाश्य- तुम तुम और तुम (गीत-सन्ग्रह), व गज़ल सन्ग्रह, कथा संग्रह । मेरे ब्लोग्स( इन्टर्नेट-चिट्ठे)—श्याम स्मृति (http://shyamthot.blogspot.com) , साहित्य श्याम (http://saahityshyam.blogspot.com) , अगीतायन, हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान, छिद्रान्वेषी एवं http://vijaanaati-vijaanaati-science सम्मान आदि—१.न.रा.का.स.,राजभाषा विभाग,(उ प्र) द्वारा राजभाषा सम्मान,(काव्यदूत व काव्य-निर्झरिणी हेतु). २.अभियान जबलपुर संस्था (म.प्र.) द्वारा हिन्दी भूषण सम्मान( महाकाव्य ‘सृष्टि’ हेतु ३.विन्ध्यवासिनी हिन्दी विकास संस्थान, नई दिल्ली द्वारा बावा दीप सिन्घ स्मृति सम्मान, ४. अ.भा.अगीत परिषद द्वारा अगीत-विधा महाकाव्य सम्मान(महाकाव्य सृष्टि हेतु) ५.’सृजन’’ संस्था लखनऊ द्वारा महाकवि सम्मान एवं सृजन-साधना वरिष्ठ कवि सम्मान. ६.शिक्षा साहित्य व कला विकास समिति,श्रावस्ती द्वारा श्री ब्रज बहादुर पांडे स्मृति सम्मान ७.अ.भा.साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान ( शूर्पणखा-काव्य-उपन्यास हेतु)८ .बिसारिया शिक्षा एवं सेवा समिति, लखनऊ द्वारा ‘अमृत-पुत्र पदक ९. कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति, बेंगालूरू द्वारा सारस्वत सम्मान(इन्द्रधनुष –उपन्यास हेतु) १०..विश्व हिन्दी साहित्य सेवा संस्थान,इलाहाबाद द्वारा ‘विहिसा-अलंकरण’-२०१२....आदि..

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