गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

एक बहरे-तवील में पेशकश:

कभी राहे-ख़म को मना लिया
कभी हब्से-दम को मना लिया
कभी इस कदम को मना लिया
कभी उस कदम को मना लिया

यूँ ग़ुज़र गयी मेरी ज़िन्दगी
लिये साथ मेरे नसीब को
कभी हमकदम को मना लिया
कभी अपने दम को मना लिया

हुआ यूँ भी तेरे फ़िराक में
जला दिल अगर तेरी याद में
कभी हमने ग़म को मना लिया
कभी ग़म ने हमको मना लिया

तेरी जुस्तजू के दयार में
मेरी काविशों का वो हाल है
कभी इक सितम को मना लिया
कभी इक करम को मना लिया

कहीं रंजिशें, कहीं साज़िशें,
कहीं शोखियाँ मेरी शान में
कभी चश्मे-ख़म को मना लिया
कभी अपने रम को मना लिया

कभी आइनों ने दिखा दिया
कभी वक्त ने भी बता दिया
कभी इस भरम को मना लिया
कभी उस वहम को मना लिया

मेरे ज़ख्म खुल के न रो सके
रहा ‘होश’ मुझको वक़ार का
कभी उस अलम को मना लिया
कभी चश्मे-नम को मना लिया।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !

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