लघुकथा

लघुकथा – वाह रे अपनत्व

झिनकू भैया दौड़-दौड़ के किसी को पानी पिला रहे हैं तो किसी को चाय और नमकीन का प्लेट पकड़ा रहें है। किसी को सीधे-सीधे दोपहर के खाने पर ही हाल- हवाल बतला रहे हैं। सुबह से शाम जब भी किसी का झोला उठ जाता तो उसको बस पकड़ा रहें होते हैं। कभी सामान से भरी अटैंची उठाए रेल के डिब्बे से धीरे उतरना चाची, मामी, बूआ या दीदी को पकड़े हुए स्टेशन से अंदर- बाहर हो रहें होते हैं। न रात की नींद न दिन का चैन, बाबू जी की बीमारी एक बाजू रही, खुदे बीमार जैसे हो गए हैं। बढ़ी हुई दाढ़ी और उतरी हुई सूरत लिए सभी के आंसू पोछ रहे हैं। आज दस दिन हो गए निर्मला भौजी ने घर का मुंह नहीं देखा, बाबू जी की सेवा में हॉस्पिटल की विस्तर पर बैठे- बैठे आँख भरमा लेती है। ज्योही कमर सीधी करने के लिए करवट बदलती हैं……अरे बहु, तनिक पानी पिला दो, और वह फिर बैठ जाती हैं। घर पर बच्चे नौकरानी मौसी के साथ आये हुए मेहमानों की आव-भगत में लगे हुए हैं न कोई स्कूल न को कोई ऑफिस।पूरा घर मानों बीमार हो गया है, हाँ मेहमान खूब जलसा कर रहे हैं, कोई शहर घूम के आ जाता है तो कोई मंदिर में भगवान का धन्यवाद कर आता है कि इसी बहाने इस शहर और आप का दर्शन हो गया।

बड़की बूआ ने तो हद ही कर दी, ‘अरे झिनकू बेटा, बुरा न मानों तो एक बात कहूँ, अब आ ही गई हूँ तो साईंबाबा के दर्शन कर आती हूँ रास्ते में मनौती मान ली हूँ कि भैया सही सलामत मिले तो बाबा के दर्शन जरूर करुँगी। ऐसा कर कल का दो टिकट ले लेना मैं और तेरी छोटकी बूआ मानता पूरी करके परसों आ जायेंगे फिर दो दिन की थकान उतार कर गाँव के लिए निकलेंगे, घर एकदम खाली छोड़कर आई हूँ न जाने चौवा- चांगर कैसे होंगे, बड़ी चिंता सता रही है। ये तो भाई की बात थी नहीं तो जंजाल से मुक्ति कहाँ मिलती है। अब भैया की बीमारी तो उमर के हिसाब से जल्दी सुधरने वाली है नहीं, कितने दिन तुम्हारे ऊपर भार बनकर रहूंगी, भूलना मत बेटा कल का टिकट जरूर लेते आना, और स्टेशन जा ही रहे हो तो गाँव जाने का टिकट भी ले ही लेना। अरे वो चंपा (नौकरानी) जरा बढियां सी चाय तो पिला दे, सर फटा जा रहा है, न जाने शहर में लोग कैसे छोटे से मकान में रह जाते हैं न हवा न धूप, राम राम……उईईईईई माँ !’ कहते हुए बेड पर पसर जाती हैं।

ख़ुशी के मौके अतिथि देवो भव, पर बीमारी के मौके पर देखने, खबर पूछने वालों का यह रूप किस एंटीबायोटिक्स का इंतजार कर रहा है। जो भी हो किसी परेशान की परेशानी में मदद रूप अच्छा लगता है और सांत्वना देता है. भार तो भार होता है जिसे कहकर नहीं उतारा जा सकता, दृष्टिकोण में चाहना होनी चाहिए दिखावे में नहीं……..

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ