वो सब्ज़बाग़ दिखा कर के बाग़ लूट गया,
ये रौशनी के बहाने चिराग़ लूट गया।
किसी के जिस्म को लूटा दरिंदगी ने यहाँ,
किसी के रूप को वहशत का दाग़ लूट गया।
कई तरीकों से ज़ारी है लूटपाट यहाँ,
कोई ज़मीर तो कोई दिमाग़ लूट गया।
मिली निगाह जो साक़ी से, तौबा टूट गयी,
कोई शराब तो कोई अयाग़ लूट गया।
निबह का ज़र्फ गया, लज़्ज़ते-खलिश भी गयी,
हमें तो तेरे सितम का फराग़ लूट गया।
समेट पाये न अब तक भी अपने ‘होश’ को हम,
वो दे के अपनी वफ़ा का सुराग़, लूट गया।
अयाग़ – प्याला ; फ़राग़ – अनुपस्थिति
सुराग़ – चिन्ह, पहचान

परिचय - मनोज पाण्डेय 'होश'
फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।
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