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‘आईना-दर-आईना’ गजल-संग्रह का वि‍मोचन व परि‍संवाद

जन संस्कृति मंच की ओर से हिन्दी के चर्चित कवि डी एम मिश्र ;सुल्तानपुरद्ध के नये गजल संग्रह ‘आईना-दर-आईना’ का विमोचन 15 सितम्बर 2016 को लखनऊ के जयशंकर प्रसाद सभागार, कैसरबाग में किया गया। कार्यक्रम का आरम्भ लोक गायिका व गजलकार डा. मालविका हरिओम के डी एम मिश्र की गजलों के सस्वर पाठ से हुआ। उन्होंने पहली गजल ‘मुहब्बत टूटकर करता हूं मगर अंधा नहीं बनता, खुदा से भी अपना प्यार इकतरफा नहीं करता।’ इसके बाद दूसरी गजल ‘कभी लौ का इधर जाना कभी लौ का उधर जाना, दीये का खेल है तूफान से अक्सर गुजर जाना’ सुनाकर खूब तालियां बटोरीं। उन्होंने कहा कि श्री मिश्र की गजलें अदम गोंडवी की परंपरा को आगे ले जाती हुई दिखती हैं। उनकी रचनाएं प्रगतिशीलता का परिचायक हैं।news-2a-dm-mishra

इस अवसर पर डीएम मिश्र ने भी अपनी गजलों का पाठ किया। उन्होंने पहली गजल में कहा, ‘नम मिट्टी पत्थर हो जाए ऐसा कभी न हो, मेरा गांव शहर हो जाए ऐसा कभी न हो।’ इसी तरह अगली रचना में कहा, ‘गांव का उत्थान देखकर आया हूं, मुखिया की दालान देखकर आया हूं।’ उन्होंने अपने लेखन का जिक्र करते हुए कहा कि उन्होंने काव्य लेखन खासतौर से छंदमुक्त कविता से शुरू किया। बाजारवाद के हमले और समाज में मची हलचल को अभिव्यक्त करने तथा लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के क्रम में छंद और लय की तरफ गया। गीतों की रचना की, गजलें लिखीं। लोगों ने सराहा, उससे ऊर्जा मिली।

विमोचन और परिसंवाद कार्यक्रम प्रसिद्ध कथाकार संजीव की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। संजीव ने डा. मिश्र में वह चिनगारी देखी, वह ताप देखा, जो किसी भी कवि को उसकी परंपरा से अलग चमक देकर महत्वपूर्ण बना देता है। उन्होंने कई उदाहरणों के साथ डा. मिश्र को जनता का कवि बताया। उनका मानना था कि आप कविता जनता के लिए ही करते हैं और अगर जनता उसे मान्यता प्रदान करती है तो आपकी रचना सार्थक है। उसके लिए जो संक्षिप्ति, जो त्वरा, जो स्पार्क्स जरूरी है, वे डा. मिश्र की गजलों में दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने कविता की गेयता की वकालत की और उनकी वापसी के प्रति आशा जताई।इस संग्रह की गजलों का चयन, इस संग्रह का शीर्षक निश्चय और इसका ब्लर्ब स्वयं संजीव ने लिखा है। उन्होंने आगे कहा कि कि डी एम मिश्र गजल की उस बड़ी दुनिया के गजलकार हैं जो उर्दू व हिन्दी की साझी संस्कृति से बनी है। मौजूदा दौर ऐसा है जब हर अच्छी चीज को गंदला किया जा रहा है। डी एम मिश्र की गजलों के आईने में इसे देखा जा सकता है। इसके अहसास को महसूस किया जा सकता है। इनकी गजलों में जो रवानगी और उदात्तता है, वह इन्हें बड़े शायरों से जोड़ती है। इनकी नजर इस हत्यारे समय पर है। उनके अन्दर परिवर्तन की चाह और मानवद्रोही हालात के प्रति आक्रोश है। वे कहीं से निराश नहीं हैं। वे जूझते हैं और कहते हैं ‘लंबी है ये सियाहरात जानता हूं मैं/उम्मीद की किरन मगर तलाशता हूं मैं।’ कवि डी एम मिश्र जहां अपनी शायरी में इस उम्मीद को जिलाए रखते हैं, वहीं अपने लिए और बेहतर की उम्मीद को भी बनाए रखते हैं।news-2-dm-mishra

संजीव के अध्यक्षीय वक्तव्य के पूर्व विशिष्ट अतिथि साहित्यिक पत्रिका ‘युगतेवर’ के संपादक और साहित्यकार कमल नयन पांडेय ने डा. मिश्र को एक साधक कवि बताया। उन्होंने कहा कि मैं उन्हें सिद्ध कवि नहीं कहता, क्योंकि वे स्वयं शब्द को साधना तक ले जाने की बात करते हैं। श्री पांडेय ने कहा कि कविता दूर और देर तक तभी टिक सकती है, जब उसमें श्रवणशीलता हो। उसे याद किया जा सके। गजल को सीमित दायरे में रखना भी ठीक नहीं है। गजल का दायरा निरंतर बढ़ता जा रहा है। उन्होंने गजल के सफर पर रोशनी डालते हुए कहा कि गजल जब अरबी से फारसी तक पहुंची तो उसे एक चेहरा मिला। यही गजल जब उर्दू के पास आई तो खूब फली-फूली। गजल जब हिन्दी के पास आती है तो जनता की सांस-सांस से जुड़ती है। गजल बाहरी और आंतरिक दोनों चीजों को बदल देती है। गजल कविता के शीर्ष पर है।

वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने कहा कि श्री मिश्र की रचनाओं में मार्मिकता और संवेदनशीलता बहुत दिखी। उनकी इन लाइनों को ही देखिये, ‘जवानी थी कमाता था तो देता था तुम्हें बेटा, बुढ़ापा आ गया तो मांगता हूं क्या करूं बेटा।’ एक दिन उनकी लिखी लाइनें चुनाव के दौरान युवक को बोलते हुए सुना तो लगा कि कुछ तो बात है। ये लाइनें थीं, ‘जब तक दारू नोट नहीं, तब तक कोई वोट नहीं।’ शिवमूर्ति ने उनकी पांच शेर वाली एक रचना से दो लाइनें निकालीं और कहा कि इन दो पंक्तियों से भी पूरी बात कही जा सकती है तो ज्यादा लंबा खींचने की जरूरत नहीं। कवि एवं गायक डा. हरिओम ने कहा कि गजलें पढ़ने के बाद लगा कि श्री मिश्र यथार्थ के करीब हैं। सरकारी योजनाओं की तह तक जाने की कोशिश की है। उन्होंने आभासी यथार्थ को बहुत बहादुरी से पेश किया है। यह कोशिश करें कि यथार्थ की परतों में भी उतरें।

वरिष्ठ पत्रकार एवं कवि सुभाष राय ने कहा कि अच्छी कविता के लिए संगीत का होना जरूरी है। संगीत के जरिए बहुत आसानी से लोगों तक पहुंच सकते हैं। संग्रह को पढ़ने के बाद लगा कि श्री मिश्र आइना लेकर चलते हैं, जो खुद भी देखते हैं और दूसरों को भी दिखाते हैं। इस मायने में शीर्षक बहुत महत्वपूर्ण है। चेहरा बदलने का भाव भी नजर आता है। वह राजनीतिक विद्रूपताओं पर लगातार हमले करते नजर आ रहे हैं। मशहूर शायर ओमप्रकाश नदीम ने ‘हवा के साथ उड़ने का…’ और अंधेरा जब मुकद्दर बनके…’ जैसी रचनाओं का जिक्र करते हुए कहा कि इनमें उम्मीद की किरन नजर आती है। आशावादी दृष्टिकोण दिखता है। श्री मिश्र की फिक्र का अहम हिस्सा जनपक्षधरता है। वह हिन्दुस्तानी जबान का भरपूर इस्तेमाल करते हैं। भाषा के मुहावरों की गलतियां कुछ जगहों पर जरूर हैं, फिर भी उनकी गजलें खुद ही बोलती हैं।

संचालन कर रहे जन संस्कृति मंच के प्रदेश अध्यक्ष एवं कवि कौशल किशोर ने बताया कि डी एम मिश्र की कविता की पहली किताब 27 साल पहले ‘आदमी की मुहर’ आई थी। अब नौवां गजल संग्रह सामने आया है। इसमें उनकी 109 गजलें शामिल हैं। डी एम मिश्र हिन्दी गजलों की उस परम्परा से जुड़ते हैं जो दुष्यन्त कुमार, अदम गोण्डवी, शलभ श्रीराम सिंह से आगे बढ़ी। इनकी कविताएं प्रेम, करूणा के साथ प्रतिरोध और अन्याय के प्रतिकार को स्वर देती है तथा व्यवस्था की विद्रूपता को उदघाटित करती है। यह ऐसा आईना निर्मित करती है जिसमें आवेग व त्वरा है जिसमें हम अपने को देख सकते हैं, अपने समय और बदलते दौर को देख सकते हैं। हमारा लोकतंत्र किस तरह लूटतंत्र में तब्दील हो गया है, आम आदमी तबाह बर्बाद किया जा रहा है इस सच्चाई को सामने लाती है। मौजूदा सियासत के प्रति इनकी गजलों में गहरे नफरत का भाव है, वहीं आम जन व उसके श्रम-सौंदर्य के प्रति अथाह प्यार है। इनकी गजलों में इस सौंदर्य का भाव देखते ही बनता है जब वे कहते हैं ‘ बोझ धान का लेकर वो जब हौले-हौले चलती है/धान की बाली, कान की बाली दोनों संग-संग बजती है’।

इस अवसर पर गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, दयाशंकर पांडेय, नसीम साकेती, सुधाकर अदीब, ज्ञानप्रकाश चौबे, राकेश, विजय राय, राम किशोर, नाइश हसन, संध्या सिंह, श्याम अंकुरम, केके वत्स, तरुण निशांत, कल्पना, आदियोग, लालजीत अहीर, एसके पंजम, प्रज्ञा पांडेय, अजीत प्रियदर्शी, महेश चंद्र देवा, सुशील सीतापुरी बी. पी. शुक्ल आदि उपस्थित रहे।

प्रस्तुति – वि‍मल कि‍शोर

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