धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

तरह-तरह के पशु, पक्षियों और जन्तुओं को मारकर खाने में संकोच न करने के कारण मनुष्य क्रूर और निर्मम प्राणी: डा. सत्यप्रकाश

ओ३म्

 

ईश्वर ने मनुष्य को शाकाहारी प्राणी बनाया है। यह मनुष्य की आकृति, उसके दांतो व आंतों की बनावट व ऋषि-मुनियों के ग्रन्थ आदि के आधार पर भी स्पष्ट होता है। ईश्वरीय ज्ञान वेद और समस्त वैदिक साहित्य शुद्ध व पवित्र भोजन के रूप में अन्न, फल, फूल, मेवे, कन्द व मूल सहित गोदुग्ध आदि को ही मनुष्य के भोजन के रूप में स्वीकार करते हैं। पता नहीं इतिहास में कब कहां पहली बार किन परिस्थितियों में मनुष्य ने प्रथमवार मांस का सेवन किया होगा? उत्तरोत्तर यह बढ़ता गया और बढ़ता ही जा रहा है जिसमें अज्ञानता व मनुष्य के पास आवश्यकता से अधिक धन व सम्पदा का होना भी एक मुख्य कारण है। पहले कुछ धनाड्य लोग ही मांसाहार करते थे अब उनकी देखा देखी नवधनाड्य भी मांसाहार में प्रवृत्त होते जा रहे हैं। डा. सत्य प्रकाश जी, डी.एस.सी (रसायन शास्त्र) आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वान थे। उनका मांसाहार विषयक एक प्रेरणादायक संस्मरण हम मासिक पत्रिका वैदिक पथ के जून 2016 अंक गो रक्षाराष्ट्र रक्षा’ विशेषांक से प्रस्तुत रहे हैं।

 

“संयुक्त राज्य अमरीका में एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय हावर्ड यूनिवर्सिटी है। सन् 1970 ई. की बात है। वहां मैं चीन देश के एक प्रोफेसर के कमरे में बातें कर रहा था। किसी प्रसंग से बात चली और मुझसे उसने पूछा कि क्या आप शाकाहारी हैं? उत्तर में मेरे मुंह से वाक्य निकला– Yes, I am first hand vegetariat, and most of you are second hand vegetarians. मैं पहले दर्जें का शाकाहारी हूं और आप लोग दूसरे दर्जे के शाकाहारी हैं।” उसे मेरे उत्तर पर आश्चर्य हुआ और वह पूछने लगा–यह कैसे? मैंने कहा कि मैं अपना आहार अन्न-शाक-फल-फूल-कन्द-मूल से प्राप्त करता हूं और आप अपना आहार उन पशुओं के मांस से प्राप्त करते हैं, जो स्वयं शाकाहारी हैं–जो घास-भूसा-अन्न आदि मेरी तरह ही खाते हैं।

 

पहले दर्जे का शाकाहारी दूसरे दर्जे के शाकाहारी से सदा उत्तम होता है। यदि गाय-घोड़़ा-बकरी-भेड़ जैसे पशु अपने शरीर को शाकाहार से तैयार कर सकते हैं, तो क्या हम लोग उसी शाकाहार से अपना शरीर नहीं बना सकते? शायद ही कोई आदमी होगा, जो मांसाहारी प्राणियों का मांस खाता हो।

 

यह सदा याद रखना चाहिए कि सीधे ही शाकाहारी होना आर्थिक दृष्टि से कहीं अधिक सस्ता और किफायती है। द्वितीय श्रेणी का शाकाहारी होना बड़ा महंगा पड़ता है। संसार की खाद्य समस्या का समाधान शाकाहार ही है, न कि मांसाहार। धरती माता की उपज से ही हमें अपना भोजन लेना है और हमारे परिवार के उन पशुओं को भी जिनका मांस हम खाना चाहते हैं।

 

वेद के अनुसार मनुष्य के परिवार के प्रिय अंग चार पशु हैं–अश्व, गौ, अज (बकरा) और अवि (भेड़)। वेद में मनुष्य, घोड़ा, गाय, बकरे और भेड़ के संयुक्त परिवार का नाम पंचग्राम्य पशवः’ रक्खा गया है। (इसको इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मनुष्य के परिवार में पांच सदस्य होते हैं मनुष्यजन, घोड़ा, गाय, बकरी और भेड़़।) एक ही परिवार के सदस्यों को मारकर खाना सभ्यता और संस्कृति के विरुद्ध है।

 

मैंने अफ्रीका और अमरीका में बड़े-बड़े जंगल देखे हैं। जंगलों के मुख्य निवासी शाकाहारी पशु हैं-हाथी, भैंसे, हिरण, वृषभ, बन्दर आदि। आमिष या मांस खाने वाले वे पशु हैं जिन्हें क्रव्याद कहते हैं। जंगलों में ये इसलिए पैदा किए गए हैं, कि वे जंगल की सफाई किया करें। इन्हें जंगल का मेहतर या भंगी (Scavenger) कहा जाता है। कोई भी पशु मरा कि ये क्रव्याद पशु मरे हुए या अधमरे को मार और खाकर जंगल को साफ रखते हैं। सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, कौए, चील, गिद्ध इसी प्रकार के पशु या जन्तु हैं।

 

याद रखना चाहिए कि घोर विपदा या अकाल (दुर्भिक्ष) पड़ने पर हाथी, हिरन, बन्दर आदि शाकाहारी पशु मर जाना पसन्द करेंगे, किन्तु भूख से तड़पते होने पर भी चुहिया या चिड़िया मारकर नहीं खायेंगे। मनुष्य ही ऐसा कू्रर और निर्मम प्राणी है, जो स्वभाव से शाकाहारी होने पर भी तरह-तरह के पशु, पक्षियों और जन्तुओं को मारकर खाने में संकोच नहीं करता।” डा. स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी का यह पूरा उद्धरण उनकी पुस्तक अध्यात्म और आस्तिकता’ के अन्र्तगत प्रकाशित निबन्ध मनुष्य और विवेक’ से लिया गया है।

 

यह पंक्तियां लिखने का आशय यह है कि गो व अन्य मनुष्य परिवार के सदस्यों के मांस का आहार करने व इस कार्य में किसी भी प्रकार से संलग्न बन्धु एक बार डा. सत्यप्रकाश जी की उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़कर विचार करें कि उनका व्यवहार कहां तक सत्य व प्रकृति एवं पर्यावरण के हित में है तथा उचित है? यह भी अवगत करा दें कि हमने यह पंक्तियां मासिक पत्रिका वैदिक-पथ, हिण्डोन सिटी के जून, 2016 विशेषांक से ली हैं जिसके लेखक आर्यजगत् के यशस्वी विद्वान डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री, अमेठी है। पूरी पुस्तक ही पढ़ने योग्य है। इस लेख को पुस्तक रूप में आर्य साहित्य के प्रकाशक श्री घूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, ब्यानिया पाडा, हिण्डोन सिटी-322230’ ने पृथक से भी प्रकाशित किया है जिसका मूल्य मात्र 20 रुपये है। पुस्तक प्राप्ति हेतु प्रकाशक से उनके फोन नं. 09414034072 या 09887452959 पर भी सम्पर्क किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज का एक यह नियम भी बनाया है जिसमें कहा है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। यही मनुष्यता है। एक स्थान पर उन्होंने मनुष्य के कर्तव्य का उल्लेख करते हुए कहा है कि असत्य को छोड़ना व छुड़वाना और सत्य को मानना व मनवाना मुझे अभीष्ट है। हम आशा करते हैं कि शाकाहारी व अन्य सभी पाठक स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी के विचारों से लाभान्वित होंगे। इति शम्।

 

मनमोहन कुमार आर्य