उपन्यास अंश

नई चेतना भाग-५

अगले दिन सुबह अमर की नींद बड़ी देर से खुली। धुप चढ़ आया था । दीवार पर लगी घडी सुबह के नौ बजा रही थी । अमर अनमने ढंग से उठा । उसके चेहरे पर कोई स्फूर्ति कोई ताजगी नजर नहीं आ रही थी। बड़े सुस्त कदमों से चलता हुआ अमर बाथरूम में घुस गया ।  नित्यकर्म से फारिग हो नहाधोकर तैयार होते होते दस बज गए ।

अभी वह तैयार होकर घर से निकलता कि सुशीलादेवी उसके कमरे में आती हुयी बोलीं ” चल बेटा ! कुछ नाश्ता कर ले।” अमर माँ से  नजरें चुराते हुए बोला ” नहीं ! माँ आज भूख नहीं है । ” कहकर उत्तर की प्रतीक्षा किये बीना ही अमर तेजी से बाहर की तरफ निकल गया। सुशीलादेवी अपना मन मसोस कर उसे पुकारती रहीं लेकिन उसे नहीं सुनना था सो अनसुना करके अमर जा चुका था ।

फैक्ट्री पहुंचकर अमर अपने ऑफिस में ही कैद होकर रह गया । उसका सहायक कृष्णा परेशान था कि आखिर मजदूरों को क्या निर्देश दे । उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह जाकर अमर की शांति भंग करे। मजदुर भी अमर के बदले हुए स्वभाव को महसूस कर रहे थे । समझ रहे थे कि या तो अमर बाबु की तबियत ख़राब है या फिर कोई अन्य बात है।

धनिया आज काम पर नहीं आई थी । अमर इसलिए भी परेशान था । वह धनिया से मिलना चाहता था । उससे कुछ बात करना चाहता था लेकिन ऐन मौके पर धनिया नदारद थी। थोड़ी ही देर में फैक्ट्री का सायरन बज उठा ।

यह दोपहर के खाने की छुट्टी का संकेत था । एक एक कर मजदुर फैक्ट्री से बाहर निकल कर अपने अपने भोजन की तैयारी करने लगे ।
अमर भी निकल कर बाहर फैक्ट्री के पीछे स्थित उस छोटे से तालाब के किनारे जाकर बैठ गया । यहाँ बैठकर उसे एक अजीब सा सुकून मिल रहा था । इस तालाब से  धनिया की यादें जुडी हुई थी । यह तालाब ही गवाह था उसके और धनिया के बीच हुए मोहब्बत के इकरार का।
किसी चलचित्र की भांति धनिया से हुयी उसकी बातचीत उसके जहन में  घुम गयी ।  वह रोमांचित हो उठा । पल भर में उसकी उदासी गायब हो गयी थी । अब वह सिर्फ और सिर्फ धनिया के बारे में ही सोच रहा था। आखिर वह आज क्यों नहीं आई ? वह कहीं किसी मुसीबत में तो नहीं ? यह ख्याल आते ही उसके चहरे की रंगत उड़ गयी। वह बिना एक पल की भी देर किये तेजी से हरिजनों की बस्ती की और चल दिया ।

बस्ती फैक्ट्री से काफी नजदीक ही थी । दोपहर का वक्त था और हरिजनों की इस बस्ती में लगभग सभी कामकाजी लोग ही थे । क्या बड़े क्या बुढ़े ‘ क्या बच्चे क्या सयाने ‘ क्या महिला क्या पुरुष परिवार का हर सदस्य कमाऊ था लेकिन  अपनी बददिमागी और बुरी आदतों की वजह से यह लोग हमेशा ही परेशान रहते थे । यह बस्ती भी कुछ ऐसी ही थी। कुछ देर बाद सुनसान पड़ी बस्ती में अमर बाबू हरिजन की झोपड़ी के सामने खड़ा था।

झोपड़ी का दरवाजा शायद भिड़ा हुआ ही था जो कि अमर के हाथ लगाते ही खुल गया । अमर इधर उधर देखता हुआ दरवाजे से अन्दर घुस गया। अन्दर कोई नहीं है यह तो वह बाहर से ही समझ गया था लेकिन घर के अन्दर का दृश्य देखकर उसका माथा ठनका । घर पूरी तरह से साफ़ था कोई सामान नहीं था । ऐसा लग रहा था जैसे पुरे सामान के साथ ही किसीने झाड़ू मार के रखा हो ।

तुरंत ही घर के बाहर आकर उसने बस्ती में इधर उधर नजर दौडाई । कहीं कोई नजर नहीं आया । संयोगवश बस्ती के बाहर एक दस वर्षीय लड़का उसे एक छोटे बच्चे के साथ मैले कुचैले कपडे पहने खेलता हुआ नजर आया। अमर ने उसे पास बुलाया और धनिया के बारे में पूछा । पहले तो वह लड़का शायद कुछ समझ नहीं पाया फिर अचानक जोर से चिल्ला उठा “अरे वो बाबू काका !”

अमर ने हाँ में सर हिलाते हुए बोला ” हाँ हाँ वही बाबू काका ! कहाँ गए हैं मालूम है ? ”

” हाँ ! कल रात अँधेरे में वो बड़े मालिक आये थे । बाबू  काका काफी डरे हुए लग रहे थे । बड़े मालिक ने उन्हें सुबह अँधेरे में ही गाँव छोड़ कर चले जाने का हुक्म दिया था। लगता है बाबू काका बड़े मालिक के डर से कहीं छिप गए हैं। कहाँ हैं मुझे नहीं मालुम। ” सब एक ही सांस में बताकर वह लड़का चुप हो गया ।

अब अमर सब कुछ समझ चुका था ।  ‘ बाबूजी ने उसे डांटने के बाद यहाँ आकर धनिया और उसके बापू को धमकी देकर गाँव छोड़ने पर मजबूर कर दिया। अब दोनों पता नहीं कहाँ गए होंगे । सब मेरी वजह से ही हुआ है । मेरी ही वजह से धनिया और उसके बापू को गाँव छोड़कर जाना पड़ा है । जाने कहाँ होंगे दोनों । जाने क्या बित रही होगी दोनों पर । ‘

तेज तेज कदमों से चलता अमर फैक्ट्री पहुँच चूका था । अपने ऑफिस में पहुंचकर आरामदायक कुर्सी पर गिर कर निढाल सा पड़ा रहा । उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे ? कुछ देर तक यूँ ही पड़े रहा । उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी  । दिल बेचैन था । उन बेगुनाहों को मिली सजा से वह आक्रोशित हो चुका था । मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। जल्दी जल्दी कृष्णा को कुछ समझाकर अमर अपनी बाइक उठाकर घर की तरफ चल दिया ।

लाला धनीराम घर के बाहर बरामदे में ही दिख गए । ऐसा लग रहा था जैसे अभी अभी कहीं से आ रहे हों। अमर उनके पैरों से लीपट गया। “बाबूजी ! कहाँ भेज दिया है आपने मेरी धनिया को ? कहाँ है धनिया ? बाबूजी ! ” कहते हुए सिसक पड़ा था अमर ।

वहीँ खड़े लालाजी ने अमर को उठाने की भी कोशिश नहीं की । बोले ” दोनों बाप बेटी को उनकी औकात बता कर उन्हें सही जगह भेज दिया है । दोनों के सपने उनकी औकात से बहुत बड़े हो गए थे । बेटी इतने बड़े घर की बहु बनने के सपने संजो रही थी तो वहीँ बाप उसे बढ़ावा देकर हमारा रिश्तेदार बनने की कोशिश कर रहा था। अरे ! सभी जानते हैं कि पैर की जूती को पैर में ही रखा जाता है। और फिर लाला धनीराम को तो हर काम बखूबी करने आता है ऐसा लोग कहते हैं।”

“ये आपने क्या किया बाबूजी ? इसमें धनिया और उसके बापू की कोई गलती नहीं थी । उसके बापू को तो यह भी नहीं पता रहा होगा कि मैं धनिया को चाहता हूँ। ” तड़प उठा था अमर लाला के दोनों पैर पकड़ कर “बाबूजी ! आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूँगा लेकिन मेरे गुनाहों की सजा उन निर्दोषों को मत दीजिये । ”

“निर्दोष होंगे वो तुम्हारी नजर में । मेरी नजर में तो सारे बवाल की जड़ धनिया ही है सो हमने वही किया जो बुजुर्गों ने कहा है । वह सुने हो ना ? न रहे बांस न बजे बांसुरी । और बेटा तनिक कान खोल कर सुन लो ! बड़ी मेहनत से हमने यह मान सम्मान धन जायदाद बनाया है । इसलिए नहीं कि कोई नालायक बेटा एक झटके में सब मिटटी में मिला दे । मखमल में टाट का पैबंद शोभा नहीं देता । समझे ? “लाला ने हिकारत भरी नज़रों से अमर की तरफ देखते हुए दहाडा ।

अमर एक झटके से उठ खड़ा हुआ । नजरें झुकाए तेज कदमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ गया । थोड़ी ही देर में वह वापस अपने कमरे से बाहर आया और लालाजी से बोला ” बाबूजी ! आपने सही कहा है । मैं नालायक हूँ । मुझसे ये आपका मान सम्मान और रीती रिवाजों का बोझ न ढोया जायेगा । सो मुझे माफ़ करिए और आशीर्वाद दीजिये कि मैं कुछ अच्छा कर सकूँ।” कहकर अमर बाहर की तरफ बढ़ा ।

शोर सुनकर सुशीलादेवी भी बाहर आ गयी थीं । उन्हें देखकर अमर ठिठका और फिर आगे बढ़ कर माँ के पैर छूकर बोला ” माँ ! मुझे आशीर्वाद दो कि मैं पिताजी के गुनाहों का प्रायश्चित कर सकूँ। और हाँ ! मैंने कुछ भी नहीं लिया है सिर्फ तन पर के कपड़ों के साथ ही जा रहा हूँ । अगर अपने मकसद में कामयाब रहा तो आपको मुंह दिखाऊंगा वर्ना नहीं।”

अमर झटके से मुड़ा और तेज कदमों से बाहर की तरफ चल पड़ा । उसके कानों को सुशीलादेवी की चीखें भी सुनाई नहीं पड़ रही थी । वह जल्द से जल्द वहाँ से निकल जाना चाहता था । जाते जाते  लाला की गंभीर गरजती हुयी सी आवाज उसके कानों में पड़ी जो शायद उसकी माँ को ही समझा रहे थे “उसे जाने दो अमर की माँ ! जब वक्त के थपेड़े उसे बेकाबू नाव की तरह झुला झुलाएंगे तब इसके सर से न्याय अन्याय और इश्क का भूत उतर जायेगा और तेरा बेटा तुझे मिल जायेगा।”

पैदल ही जा रहे अमर के कानों में बड़ी देर तक अपने बाबूजी की यह आवाज गूंजती रही लेकिन उसके कदम रुके नहीं। वह बढ़ते रहे एक अनजानी मंजील की ओर जिसका पता खुद अमर को भी नहीं था ।

(क्रमशः)

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।