संस्मरण

मेरी कहानी 169

बर्मिंघम से लुक्सर कोई छै घंटे का सफर था। यह वक्त खाने पीने और मैगज़ीन अखबार पढ़ने में ऐसे बीता कि पता ही नहीं चला, कब हम इजिप्ट लुक्सर एअरपोर्ट पर पहुँच गए लेकिन जब पहुंचे तो शाम का वक्त था। एअरपोर्ट पर पहुँचते ही मन खुश हो गया क्योंकि हमारे सर पर पगड़ीआं देख कर जो भी इजिप्शियन हमारे आगे आता, कहता इंडियन ? अमिताभचन ? दलीप कुमार ?, जिधर से भी कोई आता, देख कर ही खुश हो कर मिलता। वीज़ा हम ने एअरपोर्ट पर ही लेना था जिस की फीस दस पाउंड थी जो इजिप्शियन सौ पाउंड बनते थे। सब गोरे दस दस पाउंड दे कर वीज़े की स्टैम्प लगवा रहे थे। जब मैं और जसवंत आये तो खिड़की पर क्लर्क पहले तो खुश हो कर मिला और फिर जब हम ने दस दस पाउंड उस को दिए तो वोह बोला, ” हैलो इंडियन ब्रदर ! वैलकम टू अवर कंट्री “, और फिर उस ने जसवंत और मुझ को पचास पचास इजिप्शियन पाउंड हमें वापस कर दिए। जब हम कुछ हैरान हुए तो वोह समझ कर बोला,” इंडियंज़ आर अवर ब्रदर्ज़। मेरे पास कैमकॉर्डर था, जब मैंने डिक्लेअर करना चाहा तो एक और इजिप्शियन जो एअरपोर्ट अफसर ही होगा, उस ने मेरे पासपोर्ट पर इजिप्शियन भाषा में कुछ लिख दिया और no problem brother कह कर मुझे मुस्कराया। जब हम बाहर आये तो मैंने जसवंत को कहा, ” हमारे पासपोर्ट तो ब्रिटिश हैं, फिर यह सब कैसे जानते होंगे कि हम इंडियन हैं “, जसवंत बोला, ” इस से जाहर होता है कि इंडिया और इजिप्ट के सम्बन्ध बहुत अच्छे हैं “, फिर मेरे ज़हन में एक पुरानी बात आ गई, जब शिरी जवाहर लाल नेहरू प्रेज़िडेंट नासर से मिले थे और तब एक आम बात होती थी कि नेहरू ने ही नासर को सुएज नहर का कौमिकरण करने का मशवरा दिया था। जब नासर ने नहर सुएज को nationlize किया था अंग्रेजों ने लड़ाई छेड़ दी थी लेकिन बाद में यह लड़ाई बन्द हो गई थी, जिस के बारे में मुझे कुछ पता नहीं। इस के बाद इजिप्ट भारत का दोस्त ही समझ जाता रहा है।
एअरपोर्ट से बाहर निकले तो आगे थॉमसन हॉलिडे वालों का रीप्रीज़ेन्टेटिव खड़ा था, जिस के हाथ में एक रेजिस्टर था और हमें कोच की तरफ इछारा कर रहा था जो हमारी क्रूज़ बोट को जानी थी। इजिप्शियन कुली हमारे सूटकेस, कोच में रखने लगे। जब कोच भर गई तो उस ने सारे यात्रियों की लिस्ट चैक की और कोच ड्राइवर को चलने के लिए बोल दिया। हमारे इर्द गिर्द इजिप्शियन लोग घूम रहे थे जिन्होंने गले से लेकर घुटनों तक एक लंबी कमीज पहनी हुई थी जिस को इज्प्शिन गैलाबाया बोलते हैं और उन के सरों पर दो अढ़ाई गज़ की पगड़ी थी, जिस को वोह अपने सरों पर ऐसे बाँध लेते हैं, जैसे इंडिया में सरों पर छोटा सा साफा बाँधते हैं। स्त्रियां भी इसी तरह की ड्रैस जो गैलाबाया जैसी ही होती है, पहनें हुए थीं लेकिन अभी तक हम ने किसी को बुरका पहने हुए नहीं देखा था, सब औरतों के मुंह नंगे थे। कोच चल पड़ी और हम इर्द गिर्द खजूरों के ऊंचे ऊंचे पेड़ देख रहे थे जो सड़कों के दोनों तरफ कहीं कहीं दीख रहे थे। सड़कें बहुत अछि थीं और इन के दोनों तरफ बड़े बड़े होटल दिखाई दे रहे थे। कहीं कहीं टाँगे दिखाई दे रहे थे जो बघी जैसे लगते थे और इंडिया के टांगों से कहीं बेहतर थे और घोड़े ख़ास कर बहुत तगड़े थे । लुक्सर शहर बहुत सुन्दर दिखाई दे रहा था। ज़्यादा वक्त नहीं लगा, जब हम दरियाए नील के नज़दीक आ गए। दरियाए नील सड़क से काफी नीचे था। किनारे पर पक्की सीडीआं थीं। अपने सूटकेस लिए हम नीचे आने लगे। नीचे पहुँच कर देखा हमारी क्रूज़ बोट हमारे सामने थी। एक एक करके सभी बड़े से दरवाज़े में से इस बोट में दाखल होने लगे। यह बोट बाहर से ही बोट लगती थी लेकिन जब हम इस में दाखल हुए तो लगा जैसे हम बहुत बड़े होटल में आ गए हों। हमारे सामने ही गोल काउंटर था जिस पर एक युवा इजिप्शियन चिटी कमीज और बौ टाई में खड़ा था। एक एक करके सभी उस को पासपोर्ट और टिकटें देने लगे और वोह नंबर लगे हुए बॉक्सों में रख कर चाबी दिए जाता और एक इजिप्शियन उन को उनके रूम की तरफ ले जाता। इसी तरह हम ने भी अपनी चाबी ली और एक लड़के के साथ अपने कमरे के नज़दीक आ गए। उस लड़के ने रूम के दरवाज़े का ताला खोल कर हमें सारा रूम दिखा दिया और चाबी हमें पकड़ा दी। रूम कोई इतना बड़ा नहीं था लेकिन हम दोनों के लिए काफी था। एक तरफ खिड़की थी जिस में एक ही शीशा था। इस कमरे में शावर रूम और साथ ही टॉयलेट रूम था। टेबल पर एक टेलीफोन रखा हुआ था। दो सिंगल बैड पडी थीं, जिन पर सुन्दर बैड शीट्स और तकिये थे। पास ही कपड़ों के लिए छोटी सी वार्ड रोब थी। छोटा सा फ्रिज था जिस में पानी, कुछ सॉफ्ट ड्रिंक की बोतलें रखी थीं और एक तरफ प्लास्टिक के कप रखे हुए थे। कहने की बात नहीं, यह कमरा हमारे लिए काफी था।
अपने कपडे हम ने सैट किये, कुछ मिंट बैड पर लेटे लेटे बातें करने लगे। जसवंत बोला,” अब बाहर चलते हैं “, हम ने कमरे का ताला लगाया और बाहर हाल में आ गए। सामने बार थी, जिस के आगे काउंटर था, जिस के पीछे भिन भिन प्रकार की बीअर और वाइन की बोतलें बड़े सलीके से सजाई हुई थीं। एक इजिप्शियन लड़का स्मार्ट ड्रैस पहने हुए काउंटर के पीछे खड़ा था। जिस को भी किसी ड्रिंक की जरुरत होती, वोह खुद ही उस लड़के से ले आता। अगर किसी को टेबल पर ही जरुरत होती तो एक और लड़का वहां ही उस को ड्रिंक दे आता और साथ ही उन का रूम नंबर और नाम लिख के ले जाता। इन पैसों का हिसाब किताब उस दिन करना था, जिस दिन इस क्रूज़ रैस्टोरैंट से चले जाना था। कुछ लोग टेबलों के इर्द गिर्द बैठे बातें कर रहे थे और उन के सामने बीर के ग्लास पड़े थे। कुछ दूरी पर एक डांस फ्लोर बनी हुई थी, एक तरफ बड़े बड़े स्पीकर और माइक्रोफोन स्टैंड रखे हुए थे। यह छोटा सा हाल बहुत बढ़िया लग रहा था। सौ दो सौ लोगों के लिए यह काफी लग रहा था। जब मैं और जसवंत बाहर जाने लगे तो दरवाज़े पर एक आदमी खड़ा था, उस ने हम को पास दे दिए जो वापस आने पर उस को सौंप देने थे। 9 बजे खाना सर्व करना था, इस लिए हम को जल्दी वापस आना भी था। बहुत गोरे पहले ही बाहर जा चुक्के थे। बाहर आ कर हम पक्की सीड़ीआं चढ़ने लगे। कोई पंदरां बीस स्टैप ही थे। ऊपर आये तो नज़ारा बहुत बड़ीआ लगा। एक तो रात का समय, दूसरे लाइटें और तीसरे सफाई, नज़ारा बहुत सुन्दर लग रहा था। फुटपाथ होगा कोई पंदरां फ़ीट चौड़ा और पास ही सड़क थी, जिस पर कोई कोई कार और कभी कभी कोई तांगा जा रहा था। आगे गए तो इस फुटपाथ के कुछ नीचे दुकाने थीं जिन पर पहुँचने के लिए एक रैंप जैसा फुटपाथ बना हुआ था, ज़्यादा तर यह दुकाने छोटी छोटी बीअर बार या मीट मछली की ही थीं और लोग बैठे इन खानों का लुत्फ ले रहे थे। वक्त हमारे पास ज़्यादा नहीं था क्योंकि हम ने सपर भी लेना था, इस लिए हम जल्दी वापस आ गए और अपनी क्रूज़ बोट comodore में वापस आ गए। लोग डाइनिंग हाल में जा रहे थे, हम भी लाइन में लग गए। टेबलों पर नाम लिखे हुए थे। एक टेबल पर एक गोरी बुढ़िया और उस की बेटी जो होगी कोई चालीस वर्ष की, बैठीं थीं। उन के सामने ही हमारी सीटें थीं। हैलो हैलो हुई लेकिन कोई ख़ास बात नहीं हुई।
सभी वेटर युवा और स्मार्टली ड्रैस्ड थे और हर कोई बौ नैकटाई में था। कुछ ही मिनटों में उन्होंने हर एक के आगे सूप के बाउल रख दिए। सर्विस इतनी क़ुइक थी कि जिस का भी सूप ख़तम होता, उसी वक्त एक लड़का आता और खाली सूप बाउल और स्पून उठा कर ले जाता। इस के बाद जल्दी ही मेन कोर्स आ जाता। यूं ही मेन कोर्स की प्लेट खाली होती, उसी वक्त कोई उठा कर ले जाता। जब सब लोग खा लेते तो स्वीट का बाउल आ जाता। सब लोग बातें करने लगते और नैपकिन से हाथ साफ़ करके जब मर्ज़ी उठ जाते। पहले दिन उस बुढ़िया और उस की बेटी से हमारी कोई खास बात नहीं हुई। अब हर रोज़ दिन में तीन दफा खाने के वक्त यही टेबल हम चारों के लिए था। लोग उठ उठ कर हाल में जाने लगे थे। गोरे लोग अक्सर खाने के बाद ड्रिंक करते हैं, चाहे एक ड्रिंक लें या ज़्यादा लेकिन हम इंडियन पाकिस्तानी खाने से पहले ड्रिंक लेते हैं। मैं और जसवंत कोई ज़्यादा पीने के आदी तो नहीं थे, फिर भी हम खाने के बाद ड्रिंक बिलकुल नहीं लेते थे। कुछ वेटर लड़के हाथ में नॉट बुक लिए घूम रहे होते थे और जो भी किसी को जरुरत होती, वोह लिख कर ले जाता और ला कर उस के आगे रख देता। हम ने दो काफी के कप्प आर्डर कर दिए। कुछ मिनटों में उस ने काफी के बड़े बड़े कप हमारे आगे रख दिए और हम बातें करने लगे। बहुत देर रात तक हम बैठे बातें करते रहे और आखर में हम अपने कमरे में आ कर सो गए। हाल में थॉमसन हॉलिडे वालों का एक ब्लैक बोर्ड रखा हुआ था, जिस पर दूसरे दिन का पूरा प्रोग्राम लिखा हुआ होता था। सुबह आठ बजे ब्रेकफास्ट होता था और 9 बजे कोच में बैठ कर कोई न कोई मौनूमैंट देखने जाना होता था, दुपहर को वापस बोट में आ कर लंच होता था, इस के बाद फिर कहीं ना कहीं ले जाते थे। तकरीबन चार बजे चाय का वक्त होता था, वापस आ कर हम ऊपर के डैक पर आ जाते, जिस पर एक बड़ा हाल जैसा कमरा था और इस के सामने खुले में धुप का मज़ा लेने के लिए बड़ी बड़ी कुर्सियां रखी होती थीं जो स्विमिंग पूल के इर्द गिर्द होती थीं। मौसम ऐसा था कि ना ज़्यादा गर्मी और ना ही ठंड। इस वक्त चाय के पैसे देने होते थे। चाय के साथ बिस्किट या केक होते थे। जो भी कोई आर्डर देता, वेटर वोह सब लिख कर ले जाता। कुछ लोग स्विमिंग पूल में नहाने भी लगते लेकिन स्विमिंग पूल ना ज़्यादा बड़ा था और ना ही छोटा लेकिन बहुत अच्छा था। चाय के वक्त कोई बाहर घूमने निकल जाता था और कुछ गोरे बार में बैठ जाते थे।
मैं और जसवंत हर रोज़ चाय के बाद घूमने निकल जाते थे। बाहर घूमने का भी बहुत मज़ा होता था, सिर्फ एक ही बात अछि नहीं थी । जैसे इंडिया में कुछ न कुछ बेचने वाले पीछे पढ़ जाते हैं, इसी तरह यहां भी लड़के लड़कियां, कई तो बहुत ही छोटे छोटे कुछ बेचने के लिए पीछे पढ़ जाते थे। उन को जितना मर्ज़ी इनकार करो, वोह आधा आधा किलोमीटर तक साथ साथ चलते रहते थे। कई लोग तंग आ कर कुछ ना कुछ खरीद लेते थे। ज़्यादा तर यह लोग छोटे छोटे इजिप्शियन फैरो उन की रानियां और इजिप्शियन मम्मीज़ के बुत्त बेचते थे या पपायर्स के ऊपर पुराने बादशाहों की पेंटिंग्ज होती थी। यह पपायर्स पुराने ज़माने में पेपर होता था जो दरिया नील के किनारों पर उगे हुए ऊंचे ऊंचे सरकंडे जैसे घास से बनता था। इस का किया नाम था, मुझे याद नहीं। इस के इलावा कश्तियों वाले लोग भी बहुत पीछे पढ़ जाते थे और आते ही बोलते, you want फ्लूका ?, कश्ती को इज्पिट में फ्लूका बोलते हैं। यह कश्तियाँ कोई बड़ी, कोई छोटी दरिया नील में सैर करने के लिए थीं। यह कश्तियाँ चप्पू से चलाते थे। यह कश्तियाँ दस दस मील दूर जाती थीं। नील का पानी बहुत शांत होता था और इन कश्तियों में सैर करना भी मज़ेदार होता था। एक बात हम बहुत दिलचस्पी से देखा करते थे। जब शाम के वक्त हम फुटपाथ पर घूमने जाया करते थे तो कहीं दूर से हज़ारों की तादाद में चिड़ियों जैसे परिंदे बृक्षों के ऊपर आ कर चूं चूं करते शोर मचाते, बृक्ष की शाखों पर बैठ जाते और फिर एक दम सब चुप हो जाते जैसे किसी ने चुप रहने का ऑर्डर दिया हो। इस के बाद बृक्ष से कोईं आवाज़ नहीं आती थे। यह नज़ारा हम हर रोज़ शाम को देखते थे। यह हमें सूझा ही नहीं कि किसी इजिप्शियन से पूछें कि इन पक्षियों का किया नाम था और इन के अचानक चुप हो जाने का किया राज़ था। चलता. . . . . . . .