धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

एक ही ईश्वर संसार और सभी प्राणियों का जन्मदाता, रक्षक और पालक और वही सबका उपासनीय

ओ३म्

यह समस्त संसार या ब्रह्माण्ड किसने बनाया और कौन इस संसार और मनुष्यों सहित सभी प्राणियों का जन्मदाता, रक्षक और पोषक है? इस प्रश्न का उत्तर संसार के लोगों के पास या तो है नहीं और यदि है तो वह अपूर्ण होने से उसे जानकर भी अज्ञानता और स्वार्थपूर्ण आचरण करने से स्वयं की हानि ही कर रहे हैं। यह आवश्यक है कि जो मनुष्य इन प्रश्नों का उत्तर न जानता हो, वह इन्हें जाने और जो जानते हों वह इस उत्तर को जानकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह एक समझदार और बुद्धिमान प्राणी की तरह करें जैसा कि किसी विवेकवान् मनुष्य से अपेक्षा की जाती है। यह ऐसा ही है जैसे कोई मनुष्य स्वास्थ्य के नियमों को जानता हो, मानता भी हो कि स्वास्थ्य के लिए स्वास्थ्यवर्धक भोजन करना चाहिये, अहिंसा को भी मानता हो, नशीले पदार्थों की आलोचना करता हो और स्वयं ही अस्वास्थ्यप्रद भोजन करने के साथ मांसाहार और नशे के पदार्थो का सेवन व मदिरापान भी करता हो। बहुत से  लोग सिगरेट पीते हैं। इस पर चेतावनी छपी होती है कि इसका सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है, इससे कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी हो सकती है, परन्तु फिर भी विश्व में लाखों व करोड़ों शिक्षित कहे जाने वाले लोग इसका सेवन करते हैं। ऐसी ही स्थिति बहुत से मत-मतान्तरों को मानने वालों की है जो ईश्वर को सृष्टि और प्राणियों का कर्ता मानकर भी व्यवहार में ऐसा दिखाते हैं कि ईश्वर जैसे कहीं नहीं है, और अधिकांश पाप करने में संलग्न रहते हैं। सिगरेट, शराब, मांसाहार करने वाले मनुष्यों की ही तरह मत-मतान्तरों के लोगों के अवांछनीय कार्यों को करने के कारण उनका परिणाम भी इसी प्रकार का होना निश्चित है।

ईश्वर इस भौतिक जगत का रचयिता है। इसका कारण यह है कि संसार के सभी पदार्थ अणु व परमाणुओं से मिलकर बने हुए हैं। विज्ञान ने भी इसे सिद्ध किया है। अणु कुछ एक व कुछ अधिक परमाणुओं का समूह होते हैं और परमाणु इलेक्ट्रान, प्रोटान तथा न्यूट्रान से मिलकर बनते हैं। यह वैज्ञानिक भी नहीं जानते कि परमाणुओं में इन कणों की सुव्यवस्थित रचना किससे हुई? इसका उत्तर वेद से ही मिलता है जो कहते हैं कि ईश्वर ने सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म, अनादि, नित्य व जड़ प्रकृति को ईश्वर ने कारण से कार्यरूप किया। संसार के मत-मतान्तरों में भी सृष्टि की रचना वा उत्पत्ति का बुद्धिगम्य वर्णन प्राप्त नहीं होता। वैज्ञानिक भी जिसे जानते नहीं तो वेद व दर्शन आदि वैदिक साहित्य के एक समान तर्कसंगत वर्णन को ही सत्य स्वीकार करना पड़ता है व वह सत्य हैं भी। इसके विस्तार के लिए दर्शन सहित सत्यार्थप्रकाश के संबंधित स्थलों का अध्ययन किया जा सकता जहां  युक्ति व तर्क आदि प्रमाणों से ईश्वर को ही सृष्टि का रचयिता बताया गया है।

संसार में मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि अनेकानेक योनियां हैं। सृष्टि के आरम्भ में इनकी प्रथम उत्पत्ति किसके द्वारा हुई, इस विषय में विश्व के मत-मतान्तरों एवं विज्ञान आदि के ग्रन्थ या तो मौन हैं या उनमें विकासवाद आदि का सिद्धान्त वा वर्णन काल्पनिक थ्योरी है जो विश्वसनीय नहीं है। बहुत से वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार नहीं करते। इसका विस्तार से अध्ययन करने के स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी के ग्रन्थों को देखा जा सकता हैं जहां उन्होंने डारविन महोदय के विकासवाद के सिद्धान्त का प्रमाण पुरस्सर खण्डन किया है। अतः यह भी प्रमाणित होता है कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों सहित सभी प्राणियों की अमैथुनी उत्पत्ति भी ईश्वर ने ही अपनी सर्वशक्तिमत्ता से की थी और आज भी उसके बनायें नियमों के आधार पर ही प्राणियों का जन्म व मृत्यु हो रही है। बहुत से लोग इसका कारण व आधार मनुष्य व प्राणियों के माता-पिता को बता सकते हैं परन्तु यह उत्तर उचित नहीं है। माता-पिता को यह भी पता नहीं होता कि होने वाली सन्तान कन्या होगी या बालक, काला होगा या गोरा, बुद्धिमान होगा या मूर्ख, संस्कारित होगा या संस्कारहीन आदि आदि। यदि किसी उद्योग के उत्पादों पर दृष्टि डालें तो यह नहीं कह सकते कि मशीन ने वह उत्पाद बनायें हैं। मशीन तो वह कार्य करती है जिसके लिए उसे वैज्ञानिक व इंजीनियर बनाते हैं। यदि वैज्ञानिक वा इंजीनयर न हों तो न तो मशीन ही बनेगी न उनका कोई उत्पाद। यहां वैज्ञानिक वा इंजीनयर अनेक संख्या में होते हैं परन्तु संसार में मनुष्य व सन्तानों के परिप्रेक्ष्य में इनका जन्म वैज्ञानिकों की तरह एक सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक ईश्वर द्वारा स्थापित व्यवस्था और मशीनों (माता-पिता के शरीर, माता के उदर वा गर्भ) द्वारा होता है। प्राणियों के शरीर सृष्टिगत अन्न व वनस्पतियों आदि से बनते हैं जिनका सेवन प्राणियों के माता-पिता आदि करते हैं। अतः संसार के सभी प्राणियों का जन्म वा उत्पत्ति भी ईश्वर नाम की एक सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ, अनादि, अनन्त, अमर, नित्य, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सर्वशाक्तिमान सत्ता से ही होती है। इसका दूसरा कोई विकल्प है ही नहीं। यही तर्कसंगत एवं विश्वसनीय उत्तर है जो सत्य एवं यथार्थ है।

यह भी प्रश्न होता है कि सभी प्राणियों का रक्षक व पोषक कौन है? रक्षा के लिए ऐसी सत्ता का होना आवश्यक है जो बुद्धिमान वा ज्ञानी, शक्तिशाली, परोपकारी, सबकी सदैव मित्र, दुष्टों व शत्रुओं को दण्डित करने वाला हो। ऐसे सभी आवश्यक गुण ईश्वर में विद्यमान हैं। हमें अपनी रक्षा के लिए मुख्यतः भूमि, वायु, जल व अन्न चाहिये जो कि परमात्मा ने प्रचुर मात्रा में बनाकर अपनी सृष्टि में उपलब्ध करा रखें हैं। उसने हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां व पांच कर्मेन्द्रिया दी हुईं हैं। जिससे हम देखते, सुनते, सूंघते, चखते और स्पर्श का अनुभव करते हैं। इसके साथ ही हम हाथों से काम करते, पैरों से चलते, सन्तानोत्पत्ति करते व मल-मूत्र विसर्जन आदि कार्य करते हैं। यह व ऐसे अनेकानेक कार्य ईश्वर प्रदत्त शरीर एवं मनुष्यों को दिए ज्ञान व बुद्धि आदि की शक्तियों व यन्त्रों से ही सम्पन्न होते हैं। वायु, जल व अन्न तथा सृष्टि के अनेक पदार्थ जिससे हमारे आवास, वस्त्र सहित आवश्यकता की सभी वस्तुयें प्राप्त होती हैं, वह भी ईश्वर द्वारा प्रदान की हुईं हैं। अतः ईश्वर ही हमारा रक्षक व पोषक अर्थात् पालनकर्ता सिद्ध होता है। ईश्वर के अतिरिक्त हमारे माता-पिता, आचार्य, बन्धु-संबंधी-इष्ट-मित्र आदि भी ईश्वर द्वारा उनमें उत्पन्न भावों के अनुसार हमारी कुछ कुछ रक्षा व पोषण करते हैं परन्तु इन सब कार्यों का सम्पन्न होना उन्हें ईश्वर प्रदत्त साधनों व कारणों से ही सम्भव होता है। अतः यह निश्चित है कि ईश्वर ही हमारा व संसार के सभी प्राणियों का रक्षक व पोषक है। इस प्रसंग को और बढ़ाया जा सकता है परन्तु उन सबका एक ही निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर ही सबका रक्षक व पोषक है। हम आशा करते हैं कि सभी बुद्धिमान मनुष्य इन तथ्यों को स्वीकार करेंगे।

इन सब ईश्वरीय कृपाओं को जानकर हमें अपना कर्तव्य निर्धारित करना है। हम अपनी सन्तानों व समाज के जिन लोगों पर कृपा करते हैं उनसे क्या अपेक्षा करते हैं? यह कि वह हमारे प्रति सदा श्रद्धा, प्रेम व कृतज्ञता का भाव रखें। हमारे कार्य व उन पर हमारी कृपा की भावनाओें के अनुरुप वह हमारी यथार्थ स्तुति व उपासना करें। यह स्तुति ही कृतज्ञता व ईश्वर की कृपा के अनुरुप उसका धन्यवाद प्रदर्शित करना होता है जिसे स्तुति-प्रार्थना-उपासना रूपी योगसाधना अथवा सन्ध्या व यज्ञ के रूपों में किया जाता है। यदि सभी मनुष्य ऐसा करते हैं तो वह ईश्वर के और निकट हो जाते हैं और उसकी ओर से पूर्वाधिक कृपाओं के पात्र बनते हैं। यदि हम ईश्वर की उपेक्षा व अवहेलना करते हैं, जैसा कि आजकल सर्वत्र हो रहा है, सब अपने अपने मत बनाकर स्वेच्छाचारपूर्वक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करते हैं और आपस में लड़ते व भिड़ते भी रहते हैं, तो इससे ईश्वर प्रसन्न न होकर वह ऐसे कार्य करने वाले लोगों के प्रति कुपित होकर उन्हें दण्डित ही करेगा। हम चाहें कितना ही प्रसन्न हो लें कि हम अपने मत को मान रहें हैं और हमारा जीवन सफल व उत्तम हैं परन्तु हमें यह देखना है कि क्या ईश्वर को यह पसन्द है भी या नहीं? हमारा वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन जो कि यथार्थ ज्ञान है, सूचित करता है कि ईश्वर मत-मतान्तरों को पसन्द न कर उसके द्वारा मनुष्यों को दिये गये वैदिक ज्ञान को ही पसन्द करता है और चाहता है कि सभी मनुष्य मत-मतान्तर छोड़कर उसी का पालन कर संसार में सुख व समृद्धि की अभिवृद्धि करें। जो ऐसा करते हैं वह ईश्वर की कृपा के पात्र होकर औरों से अधिक सुख अनुभव करते हैं और जो इसके विपरीत आचरण करते हैं वह मानसिक दृष्टि से अशान्त व शारीरिक रोगों से क्रान्त रहते हैं। असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृत गमय।‘ ही सत्यधर्म के निर्धारण में सहायक होता है।

लेख को विराम देने से पूर्व हम यही कहेंगे कि एक सर्वव्यापक ईश्वर ही सब संसार का रचियता, संसार सहित सभी प्राणियों का जन्मदाता, रक्षक और पालनकर्ता है तथा वही संसार के सभी मनुष्यों का एक समान विधि से स्तुति, प्रार्थना व उपासना किये जाने का पात्र है। ईश्वर की प्रार्थना व उपासना की पद्धति ईश्वरीय ज्ञान वेद व उसके अनुकूल ऋषियों के ज्ञान के आधार पर ही निर्धारित की जा सकती है अन्यथा नहीं। इति शम्।

मनमोहन कुमार आर्य