कविता

आज अमावस की रात

करो न इंतज़ार ,आज अमावस की रात,
अपने चाँद का……
आज वह नही उतरेगा,ले संग अपने चाँदनी को फलक में ।
रोका जो है,उसने अपनी चाँदनी को,
है बड़ी शिकायतें उसे अपनी इस
हमसाये से।
नही चाहता वह कि बिखेरे ,अपनी मोती सी मखमली चादर,
आज,जमीं पर सहर आने तक ।

जब ,चाँदनी भी जिद कर बैठी कि
आज भी ,निसारेगी अपना नूर ,जमीं
के वाशिंदों पर।
तो,चाँद भी ढिठाई पर उतर आया…..
छिपा लिया,चाँदनी को,अपनी सर्द
आगोश में,
देकर ताप अपने पाक,अजीम इश्क़ का ।

अज़ल से ही बन “चंदा मामा” नन्हों का अजीज है यह,
स्याह रातों में सपनों को जुगनू दिखाता है,
आशिकों की नब्ज़ से गुजरता,नज़म
बनता है यह ।
सूनी ,घुटती रातो में ,फ़वाद सा धड़कता है यह।

बिना शर्त बख्शते अपनी बेपनाह मुहब्बत हम पर,यह पाक़ीज़ा जोड़ा,
आज कुछ उम्मीद लगा बैठे है, हम
अलमस्त वाशिंदों से ।
दें ,इन्हें इक हसीं मौका ……
छोड़े इन्हें तन्हा,इस पाक रात में ….
एक दूजे के आगोश में …..
ताकि मनाए ये अपनी,
“मासिक, एकल -रात्रि,मधुमास” ।

क्यों न हम , चिराग से रोशन करें
इस ज़मी, आसमाँ को,
दें , चाँद को,इक हसीन ,सितारों भरी
रात, इन जलते कंदीलों की।
आज ,हम भी इसका कुछ कर्ज अदा करते हैं,
थोड़ा आदमी बनने की पुरजोर
कोशिश करते हैं ।

— मंजुला बिष्ट

मंजुला बिष्ट

बीए, बीएड होम मेकर, उदयपुर, राजस्थान