उपन्यास अंश

नई चेतना भाग –२५

अमर बड़ी देर तक सिसकता रहा । काफी सोच विचार के बाद भी किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहा था । बाबू भी ऊपर से तो सख्त दिखने का प्रयास कर रहा था , लेकिन अन्दर ही अन्दर उसकी आत्मा रो रही थी । वह अपने आपको अमर और धनिया की खुशियों पर डाका डालनेवाला गुनहगार समझ रहा था ।

कितना मजबूर पा रहा था वह खुद को ! वह मजबूर था लालाजी को दिए वचन की खातिर ! उसे पूरा यकीन था धनिया की तरफ से नाउम्मीद होते ही अमर वापस अपने घर लौट जायेगा । कुछ दिन धनिया को याद करेगा और फिर अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जायेगा ।

लालाजी को दिए वचन की लाज भी रह जाएगी और अमर की जिंदगी भी संवर जाएगी । समाज में लालाजी की मान मर्यादा पर भी कोई आंच नहीं आएगी । बस एक कठोर फैसले से ही यह सब सम्भव था और बाबू इसीलिए अपने इस कठोर फैसले पर अडिग था ।

अपने आपको वह और मजबूत पा रहा था धनिया का साथ पाकर । अपने फैसले के समर्थन में धनिया को खड़े पाकर वह खुश था ।

चेहरे पर वही बेरुखी लिए बाबू ने आँखो में नमी लिए हुए अमर की तरफ देखा । उसका जी तो चाह रहा था कि आगे बढ़ कर उससे कह दे ‘ जाईये मालिक ! आपकी धनिया आपका इंतजार कर रही है । ‘ लेकिन फिर उसको लालाजी को दिया हुआ वचन याद आ गया । प्रकट में अमर से बोला ” छोटे मालिक ! धनिया अब पूरे होशोहवाश में है और उसने इस जिंदगी से समझौता करने का मन बना लिया है । मैं नहीं चाहता कि आपको देखकर धनिया अपना फैसला बदल दे । इसलिए आपका अब यहाँ रहना ठीक नहीं है । ”

” ठीक है काका ! अगर आप यही चाहते हैं और धनिया भी यही चाहती है तो मैं आपकी मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करूँगा । बस आप यह बता दीजिये धनिया अब कैसी है ? चल फिर रही है ? “अमर ने जानना चाहा था ।

” हाँ ! छोटे मालिक ! धनिया अब बिल्कुल ठीक है । अभी चलते हुए तो नहीं देखा लेकिन शायद उसे अब चलने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए । लेकिन आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ? ” बताते हुए बाबू ने एक सवाल और दाग दिया था ।

” काका ! मैं चाहता हूँ कि मैं दूर से ही सही धनिया की सिर्फ एक झलक देख लूँ । उसकी वही तस्वीर दिल में बसाकर  मैं उसी वक्त यहाँ से आपकी और धनिया की जिंदगी से हमेशा हमेशा के लिए चला जाऊंगा । एक इच्छा तो मरते हुए कैदी की भी पूरी की जाती है । क्या आप मेरे लिए इतना नहीं करेंगे बाबू काका ?
मैं आपसे वादा करता हूँ काका धनिया को देख लेने के बाद मैं तुरंत ही यहाँ से चला जाऊंगा । फिर पीछे मुड़ कर भी नहीं देखूंगा । और हाँ ! एक बात और । धनिया की शादी सरजू से मत करियेगा । नारायण काका ने उसके बारे में मुझे सब सही सही बता दिया है । और फिर जब मैं यहाँ नहीं रहूँगा तो फिर धनिया के शादी की जल्दी भी क्या है ? कोई अच्छा सा लड़का देख कर उसकी शादी करा देना । याद रखना काका ! सरजू धनिया के लायक नहीं है । ” कहते हुए अमर की आवाज भी भर्रा गयी थी ।

” ठीक है छोटे मालिक ! मैं पूरी कोशिश करूँगा । अच्छा अब मैं वार्ड में जा रहा हूँ । आप बाहर दालान में ही छिपे रहना । थोड़ी देर बाहर टहलने के बहाने मैं धनिया को दालान तक लाने की कोशिश करूँगा । ” बाबू ने अमर को भरोसा दिलाया ।

अमर ने आंसू पोंछते हुए उसे बताया ” आपकी बड़ी मेहरबानी होगी काका !  ”

” ठीक है छोटे मालिक ! मैं चलता हूँ । आप थोड़ी देर बाद दालान में आ जाना । ” कहकर बाबू अस्पताल में उस सामान्य कक्ष की तरफ बढ़ गया था जिसमें धनिया थी ।

सरजू का अभी तक कोई पता नहीं था । बाबू के जाते ही सिसकता हुआ अमर फफक कर रो पड़ा । वह रोकर अपना जी हल्का कर लेना चाहता था । अपना दिल मजबूत कर लेना चाहता था । अब उसे अंदाजा लग गया था कि मुकद्दर ने उसे धनिया से बहुत दूर कर दिया था । खुद से खुद को दिलासा देने के अलावा अब उसके पास दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था ।

आसमान में दिनभर भ्रमण करके सूर्य भी अस्ताचल के करीब पहुँच चुके थे । थोड़े ही समय में धरती पर अँधेरे का साम्राज्य पसर जानेवाला था । अमर महसूस कर रहा था जैसे यह अँधेरा जिंदगी भर के लिए उसकी जिंदगी में घिरने वाला हो ।

इस रात के बाद तो सुबह का होना बिलकुल तय है लेकिन क्या उसकी जिंदगी में फिर कभी उजाला हो पायेगा ? अब जो भी हो जिना तो पड़ेगा ही ।

इधर लालाजी की गाड़ी बड़ी तेजी से विलासपुर की तरफ सरपट भागी चली जा रही थी । रमेश बड़ी ही कुशलता से कार ड्राइव कर रहा था । एक के बाद एक गाड़ियों को कुशलता से ओवरटेक करते हुए तीव्र गति से साफ़ चिकनी सड़क का सीना रौंदती हुयी लालाजी की कार अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी ।

शाम का धुंधलका फ़ैल चुका था । बीरपुर से निकले हुए लगभग ढाई घंटे हो चुके थे । लालाजी ने आगे कहीं कोई अच्छी होटल देखकर रमेश को कार रोकने का निर्देश दिया ।

दरअसल लालाजी चाहते थे कि रमेश चाय वगैरह पीकर थोडा तरोताजा हो जाये ताकि उसे लगातार गाड़ी चलाने में परेशानी न हो और चुस्त बना रहे ।

विलासपुर अभी भी लगभग सौ किलोमीटर दूर था । हालाँकि अब उन्हें अनुमानित समय से पहले ही पहुँचने का अंदाजा हो चुका था । चाय पीकर ज्यादा समय न बिताते हुए दस मिनट में सब वहां से रवाना हो गए । कार फिर से विलासपुर की तरफ आंधी तुफान की गति से उडी चली जा रही थी ।

बाबू पहली मंजील पर स्थित सामान्य कक्ष में वापस आ चुका था । जब उसने कक्ष में प्रवेश किया धनिया के चेहरे को देखकर ही उसे अंदाजा हो गया था जैसे अभी अभी वह जी भर के रो चुकी हो ।

बाबू की आहट पाकर धनिया ने उसकी तरफ देखा । कहने की जरुरत नहीं कि अब उसने खुद को काफी संभाल लिया था । बाबू को देखकर धनिया को थोड़ी हैरत भी हुयी थी ।

धनिया अभी भी अपने बेड पर लेटी हुयी थी । एक घंटे में ही उसमें आश्चर्यजनक रूप से सुधार हुआ था । हाथ में सुई अभी भी लगी हुयी थी लेकिन उसमें लगायी जानेवाली सलाइन की सुई अभी नहीं लगी हुयी थी । अभी अभी सलाइन की एक बोतल ख़त्म हुयी थी । दूसरी बोतल शायद बाद में लगाने वाले थे क्योंकि धनिया के सिरहाने रखे टेबल पर बोतल और कुछ दवाइयां रखी हुयी दिख रही थीं ।

बाबू धनिया के बेड के बगल में स्थित स्टूल पर बैठ गया । धनिया भी बेड पर ही उठ कर बैठ गयी । धनिया के माथे पर स्नेह से हाथ फेरते हुए बाबू बोल पड़ा ” अब कैसी तबियत है बेटी ? ”

अपने मन के भावों को छिपाते हुए धनिया बोल पड़ी ” पहले से बहुत अच्छा लग रहा है । बापू ! यह अस्पताल भी बहुत अच्छा लग रहा है । यहाँ के कर्मचारी भी अच्छे हैं । देखो थोड़े समय में ही कितनी अच्छी महसूस कर रही हूँ ।”

अचानक जैसे धनिया को याद आया हो ” बापू ! सरजू नहीं दिख रहा है । क्या वो यहाँ पर नहीं आया है ? क्या वह मुझसे अभी भी नाराज है ? ”

” नहीं नहीं बेटा ! तू उसकी बिलकुल भी फ़िक्र मत कर । वह तुझसे बिलकुल भी नाराज नहीं है । चल तू यहाँ बैठे बैठे बोर हो गयी है । जरा बाहर बरामदे में चलकर थोड़ी चहलकदमी कर ले । अच्छा लगेगा । ” बाबू ने उसे समझाया था ।

” ठीक है बापू ! ” कहकर धनिया ने अपनी सहमति व्यक्त की थी और उठने की कोशिश करने लगी ।

 

 

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।