कविता

पत्थर

यह कैसी रीत है जग की
कैसी है विडम्बना
पूजते है हम जगह जगह
पत्थर की मूर्तियॉ
चढाते है मेवा मिष्ठान
लगाते है भोग छप्पन प्रकार
नहलाते है दूध से
और यह हम भूल जाते है कि
जिसमे बसते है साक्षात देव
उन्हे ही भूखा रखते है
कितने बच्चे तरसते है दूध के लिये
कितने बूजुर्ग भूखे सो जाते है
और हम यू ही पत्थर पर
मेवा मिष्ठान चढा कर
अपने को धन्य समझते है
क्यो हम  नही समझते
क्यो नही इन बच्चो के लिये करते
क्यो नही बूजुर्गो का सहारा बनते
क्यो नही बेसहारा मॉ का मदद करते
जिसमे बसते है देव
उन्ही को हम क्यो ठुकराते है
ये पत्थर की पूजा कर
क्यो अपने को धन्य समझते हैं|
निवेदिता चतुर्वेदी ‘निव्या’

निवेदिता चतुर्वेदी

बी.एसी. शौक ---- लेखन पता --चेनारी ,सासाराम ,रोहतास ,बिहार , ८२११०४