कविता

ज़िन्दगी …वहीँ तुम मिलोगी

ज़िन्दगी…
अब तक तुमने
जितने भी रेखाचित्र बनाये
सूखी भुरभुरी इस रेत पर
मिटने नही दिए मैंने उनके नामोनिशान…
जिस दिन भी चाहो
पलटकर देख लेना
बन्द मुट्ठी को तुम खुले आसमान….
कितनी भी फिसलन भरी
रही फिर, तासीर तुम्हारी
सहेज कर ही रखा तुम्हें
जिस दिन भी चाहो
पलटकर देख लेना
किसी दरिया के छिछलाये
नम से किनारों को
वहीँ तुम मिलोगी
ठीक बिलकुल वैसी ही
जैसी उस एक दिन
यहाँ छोड़कर गयी थी खुद को
एक दिन सवेरे सवेरे…..
प्रियंवदा

प्रियंवदा अवस्थी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से साहित्य विषय में स्नातक, सामान्य गृहणी, निवास किदवई नगर कानपुर उत्तर प्रदेश ,पठन तथा लेखन में युवाकाल से ही रूचि , कई समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित , श्रृंगार रस रुचिकर विधा ,तुकांत अतुकांत काव्य, गीत ग़ज़ल लेख कहानी लिखना शौक है। जीवन दर्शन तथा प्रकृति प्रिय विषय । स्वयं का काव्य संग्रह रत्नाकर प्रकाशन बेदौली इलाहाबाद से 2014 में प्रकाशित ।