ज़िन्दगी …वहीँ तुम मिलोगी
ज़िन्दगी…
अब तक तुमने
जितने भी रेखाचित्र बनाये
सूखी भुरभुरी इस रेत पर
मिटने नही दिए मैंने उनके नामोनिशान…
जिस दिन भी चाहो
पलटकर देख लेना
बन्द मुट्ठी को तुम खुले आसमान….
कितनी भी फिसलन भरी
रही फिर, तासीर तुम्हारी
सहेज कर ही रखा तुम्हें
जिस दिन भी चाहो
पलटकर देख लेना
किसी दरिया के छिछलाये
नम से किनारों को
वहीँ तुम मिलोगी
ठीक बिलकुल वैसी ही
जैसी उस एक दिन
यहाँ छोड़कर गयी थी खुद को
एक दिन सवेरे सवेरे…..
प्रियंवदा