संस्मरण

मेरी कहानी 193

दो दिन घर रह कर मैं फिर हस्पताल आ गिया। मेरा ब्लड लेने रोज़ ही कोई ना कोई नर्स आ जाती और कुछ शीशियां भर कर ले जाती। एक दिन सुबह दो डाक्टर और उन के साथ दो तीन ट्रेनी डाक्टर आये। डाक्टर ने मुझ से वोह ही करने को कहा जो बैनमर ने कहा था, यानी मेरे हाथ की ऊँगली से नाक को स्पर्श करने को कहा, फिर उस ने मुझे कहा कि मैं डाक्टर की ऊँगली की ओर देखूं। डाक्टर अपने हाथ की ऊँगली को पहले नीचे, फिर धीरे धीरे ऊपर की ओर ले गया। मैं उस की ऊँगली की डायरैक्शन के मुताबिक देखता रहा, फिर उस ने पीठ पर छोटा सा धक्का दिया लेकिन मैं गिरा नहीं, फिर उस ने मुझे वार्ड में कुछ कदम चलने को बोला, मैं चलता रहा और फिर मैंने डाक्टर को बताया कि बेछक मैं चल रहा हूँ लेकिन मैं संभल कर चलता हूँ क्योंकि मुझे खदशा है कि मैं गिर जाऊँगा । कुछ और टैस्ट करके डाक्टर दूसरे मरीजों को देखने लगे और मैं कुर्सी पर बैठ कर किताब पड़ने लगा। वार्ड का इतना अच्छा वातावरण होने के बावजूद वक्त काटना मुश्किल परतीत होता था। हर सुबह कभी नर्स आ कर बीपी चैक करती, कभी कोई नर्स दवायों वाली ट्रॉली ले कर आ जाती और सभी मरीजों को उन की दवाइआं दे कर उन के ग्लास पानी से भर देती और दुआई लेने को बोलती। सुबह पहले ब्रेकफास्ट आ जाता, फिर चाय वाली आती, फिर मैन्यू कार्ड वाली आ जाती, दुपहर को लांच आ जाता, चार बजे फिर चाय आ जाती, कभी कभी कोई सैंडविच वाली आ जाती, सात से आठ विजटिंग टाइम आ जाता, मरीजों के रिश्तेदार जाने के बाद ही रात का खाना आ जाता। नौ दस बजे फिर चाय आ जाती, सारा दिन ब्लड चैक करने के लिए कोई आती रहती, दस बजे वार्डों की बत्तियां ऑफ कर दी जातीं लेकिन सारी रात नर्सें वार्ड में आती जाती रहतीं। बहुत दफा किसी मरीज़ को तकलीफ होती तो वोह एमरजेंसी बटन दबा देता और नर्स उस को देखने लग जाती। इस तरह रात को भी नींद अच्छी तरह ना आती। फाइव स्टार वार्ड होने के बावजूद वक्त काटना आसान ना होता।
एक दिन सुबह ही एक गोरा जो होगा कोई पैंतीस चालीस का, बहुत सी छड़ियां ले कर वार्ड में आया और मुझे एक छड़ी पकड़ा कर टैस्ट करने लगा कि इस को पकड़ कर मैं कैसे महसूस कर रहा हूँ, कितनी ऊंचाई की मुझे जरुरत थी। ज़िन्दगी में पहली दफा छड़ी पकड़कर एक धक्का सा लगा क्योंकि हम लोग अक्सर छड़ी को अच्छा नहीं समझते बेशक बाद में यह बात ज़िन्दगी का हिस्सा ही हो जाती है। गोरा उस छड़ी को ऊपर नीचे ऐडजस्ट करके मुझ से पूछ रहा था कि कितनी ऊंची छड़ी से मैं कंफ़र्ट महसूस कर रहा हूँ। जब मैंने उस को बता दिया तो फिर वोह पूछने लगा कि मैं कौन सी छड़ी पसंद करता हूँ। मैंने एक छड़ी पसंद कर ली और उस को बता दिया और वोह चले गया। उसी दिन वोह फिर शाम को मेरी सिलैक्ट की हुई छड़ी को ले कर आया और मुझे इसको पकड़ कर चलने को कहा। मैंने वार्ड में छड़ी के साथ चलना सेफ महसूस किया बेशक मुझे हिचकचाहट भी महसूस हो रही थी। इस शख्स के चले जाने के बाद, छड़ी का सहारा ले कर मैं टॉयलेट की तरफ गया और मुझे यह छड़ी ठीक लगी बेशक इस को मैंने ज़्यादा इस्तेमाल नहीं की। मुझे याद आया इसी शाम को रात के बारह एक बजे मैं जाग ही रहा था कि मेरे पास की बैड पर पड़े गोरे के कराहने की आवाज़ आई। मैं उठ कर बैड के नज़दीक गया तो देखा, वोह इकठा हुए जा रहा था और अजीब अजीब हरकतें कर रहा था। मैंने उस को पुछा, ” you need help ?”, लेकिन वोह कुछ नहीं बोल रहा था। घबराकर मैंने अपनी एमरजैंसी बैल दबा दी। कुछ ही मिनटों में नर्स मेरी बैड के नज़दीक आ गई और मैंने उस गोरे की ओर इशारा कर दिया। नर्स ने गोरे की बैड के इर्द गिर्द पर्दा तान दिया और उसको कुछ किया, जो मैं देख नहीं सकता था। कुछ मिंट बाद गोरा कुछ शांत हो गया और नर्स चले गई।
दूसरे दिन मैंने गोरे से पुछा कि रात को किया हुआ था। गोरा मुश्किल से चालीस वर्ष का होगा और उस ने मुझे बताया कि वोह अपनी सिहत को लेकर बहुत धियान रखता था, हर चीज़ सोच समझ से खाता था, ना वोह शराब पीता था और ना ही मीट खाता था, यहाँ तक कि वोह फिश अंडा भी नहीं खाता था और हफ्ते में तीन दिन जिम्म जाता था। उस के दो बेटे थे, हैपी फैमिली थी लेकिन एक दिन अचानक उस को कुछ हो गया और वोह नीचे गिर गया और शरीर अकड़ने लगा, उस के मुंह से झाग जाने लगी और बोल नहीं हो रहा था। एमरजेंसी डाक्टर आधे घंटे में आ गया और आते ही इंजेशन दिया। कुछ देर बाद वोह ठीक हो गया। डाक्टर ने ऐम्बूलैंस बुला कर मुझे हस्पताल में एडमिट करा दिया। बहुत टैस्ट होने के बाद मुझे ऐपीलैप्सी बता दिया। और बातें भी उस ने बताईं जो मुझे याद नहीं। गोरे की बीवी और बच्चे हर रोज़ आते रहते थे लेकिन जब भी मैं उस की खूबसूरत युवा बीवी और बच्चों को देखता तो मुझे तरस सा आ जाता। जितनी देर विजटिंग टाइम होता वोह सब खुश दिखाई देते लेकिन मेरे मन में कुछ अजीब सा होता। पता नहीं क्यों, मैं बहुत भावुक विचार रखता हूँ। वार्ड में दूसरे मरीजों की ओर मैं देखता तो मुझे अपना दुःख बहुत कम लगता।
एक दिन नर्स मुझे बुला कर मुझे हस्पताल के एक डाक्टर के पास ले चली। मैंने गाउँन पहना हुआ था और छड़ी के सहारे चलता हुआ उस कमरे में पहुँच गया, यहां एक जर्मन डाक्टर बैठा था। नर्स चले गई और डॉक्टर ने मुझे एक बैंच पे लेटा दिया। एक मशीन पहियों से घसीट कर मेरे नज़दीक ले आया। उस ने बहुत सी तारें ऊपर से नीचे तक मेरे शरीर पर चिपका दीं। उस ने मुझे समझाया कि इन से वोह मेरी मसल पावर देखना चाहता था। मेरे शरीर के हर हिस्से में इलैक्ट्रिक करंट लगता और डाक्टर मुझे जोर लगाने को कहता। हर अंग को मुझे सुकोड़ना होता और मशीन पर ग्राफ बनता जाता। यह टैस्ट कोई आधा घंटे चले और मैं वापस अपने वार्ड में आ गया। मैं भूल ना जाऊं, यह हस्पताल दुनिआं के बेहतरीन हस्पतालों में गिना जाता है और यह वोह ही हस्पताल है, यहां पाकिस्तान की मलाला का इलाज हुआ था। हर शुक्रवार को मैं घर आ जाता था और सोमवार को फिर आ जाता था। इस दौरान पता नहीं कितने ब्लड टैस्ट हुए और आखर में एक दिन मेरा और टैस्ट होना था, जिस का नाम शायद रेडिएशन टैस्ट था। बेटा मुझे वील चेअर में बिठा कर हस्पताल के उस डिपार्टमेंट में ले आया, यहां यह टैस्ट होना था। पहले मुझे एक इंजेशन दिया गया, जिस के बारे में नर्स ने मुझे बता समझा दिया कि इस इंजेक्शन के साइड इफैक्ट किया थे। आधे घंटे बाद मुझे एक बड़े से कमरे में ले जाय गया, यहां दो डाक्टर थे। एक डाक्टर ने मेरे सर पर रबड़ की एक कैप फिक्स कर दी जैसे तैरने के दौरान लड़कियां पहनती हैं। फिर एक बैंच पर लेटा दिया गया, जिस के सर की ओर आर्च की शक्ल में मशीन थी। कुछ देर बाद मशीन चालु हो गई और मुझे लगा जैसे तेज़ी से इंजिन घूम रहा हो। कभी यह मशीन एक तरफ को टिल्ट हो जाती कभी दुसरी तरफ। आधा घंटा यह काम चलता रहा और वापस आ गया। यह टैस्ट आख़री था।
इस टैस्ट के बाद नए नए ब्लड टैस्ट होने के सिवा और कुछ नहीं हुआ और चार हफ्ते हस्पताल में रह कर मैं वापस घर आ गया। हस्पताल में यह भी एक तरह की हॉलिडे ही थी बेशक कुछ बोर भी हुआ था। हस्पताल से डिस्चार्ज होने से पहले हैड नर्स ने मुझे बता था कि अब कुछ और दूसरे टैस्ट मेरे टाऊन के हस्पताल नीऊ क्रॉस हस्पताल में होंगे, जिसके लिए मुझे लैटर आएगा। दो हफ्ते बाद ही यह लैटर मुझे आ गया और बहु मुझे हस्पताल ले आई। यह 2008 था और इन चार सालों में मेरी शारीरक शक्ति बहुत कम हो गई थी। बेशक छड़ी पकड़ कर मैं चल सकता था लेकिन एक वार्ड से दूसरे वार्ड तक जाना मुश्किल हो गया था, इस लिए बहू मुझे वील चेअर में बिठाकर ले जाती। आखर में एक वार्ड में मुझे बैड दे दी गई, जो कुछ घंटे आराम करने के लिए थी । फिर तकरीबन तीन चार बजे एक नर्स आई और मुझे हंस कर बोली, ” मिस्टर भमरा ! यह पेनफुल टैस्ट है, इस लिए तैयार हो जाओ “, यह टैस्ट ऐसा था कि मेरी हिप्प की हड्डी में सूई डाल कर फ्लूअड लेना था। जैसे जैसे यह सूई मेरी हड्डी में जा रही थी, मेरे इतनी दर्द हो रही थी कि बताना ही मुश्किल है। कोई दो मिंट लग्गे और नर्स बोली, ” ब्रेव बोये “, बहू भी हंस पडी और बोली, ” डैड इज़ वैरी स्ट्रॉन्ग “, इस के बाद नर्स ने बताया कि इस फ्लूअड को दो महीने लैबॉरट्री में रखा जाएगा, यह देखने के लिए कि गोवा में जो हुआ था, वहां कोई ऐसी वायरस तो कैच नहीं हुई। इस टैस्ट के बाद हम घर आ गए। क्वीन ऐलिजबैथ हस्पताल में जो भी हुए या अब इस हस्पताल में हुए, इस दौरान मैं अपने नियोरोलॉजिस्ट डाक्टर बैनमर से नहीं मिला। दरअसल बाद में मुझे पता चला कि यह सारे टैस्ट बैनमर की हिदायत के अनुसार ही हुए थे। कोई तीन महीने बाद मुझे निऊ क्रॉस हस्पताल से खत आया कि मुझे डाक्टर बैनमर से मिलना था।
बेटा मुझे हस्पताल ले गया। बैनमर के सामने मैं बैठा था। वोह बोलने लगा कि उस के पास सभी टैस्ट्स की रिपोर्ट आ गई थी और डाक्टरों के पैनल ने इस पर अपनी अपनी राय दी थी और सब का विचार था कि मुझे PLS की शिकायत है और इस को अक्सर वोह डीजैनरेशन नाम से पुकारते हैं, इस का अभी तक कोई इलाज नहीं बेशक इस पर रिसर्च जारी है और तीन साल में मैं बैड में पड़ जाऊँगा और वोह इस बात से निपटने के लिए जो उस वक्त मदद करेंगे, वोह वक्त के मुताबिक देखा जाएगा लेकिन मुझे हर तरह की सहूलत मुहैया की जायेगी। पांच मिंट में हम बाहर आ गए, मेरे सर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा कि यह किया हो गया। इतने साल तो मैंने कोई फ़िक्र नहीं किया था लेकिन अब यह सारी कहानी सुन कर तो जैसे मेरे होश ही उड़ गए। मैं बहुत उदास रहने लगा, मेरी आवाज़ दिनबदिन बदल रही थी और बोलने के लिए मेरा जोर लगता था और खाना खाते खाते मेरे गले में फंस जाता था और सांस लेना मुश्किल हो जाता, कुलवंत मेरी पीठ पीछे जोर जोर से हाथों से थपथपाती। खाना गले से नीचे उतरता तो चैन आता। जिंदगी क्या क्या हमें दिखा देती है, ख़ुशी ख़ुशी जीवन काट रहे थे, हमें कोई फिकर नहीं था और आज अचानक इस सब पर विराम लग गिया था। दुखद बात यह भी थी कि इस का कोई इलाज नहीं था। बैन्मर ने मुझे एक खत दे दिया था जो मैंने अपने डाक्टर को देना था। हस्पताल से बाहर आते ही मैंने इसे खोल लिया था, बेछक यह मुझे खोलना चाहिए नहीं था क्योंकि यह कॉन्फिडेंशल होता है। इस में सब कुछ लिखा था और साथ में यह भी लिखा था कि ऐसे पेशैंट को डिप्रेशन हो जाता है, इस लिए शुरू में डिप्रैशन की दस मिलीग्राम की गोली और धीरे धीरे 150 मिलीग्राम की गोली दी जा सकती है और 150 मिलीग्राम भी काम करना बंद कर दे तो फिर हस्पताल में वोह देखेंगे। बैनमर ने मुझे यह भी बताया था कि मुझे वैस्ट पार्क हस्पताल से खत आएगा और वोह मेरी स्पीच थैरेपी शुरू करेंगे ताकि मेरे मुंह और जीभ के मसल में शक्ति आ जाए। याद नहीं कितने बुरे बुरे खियाल मेरे दिमाग में आ रहे थे और जब मैं घर पहुंचा तो फुट फुट कर रोने लगा। मुझे मौत से कोई डर नहीं था, बस घुट घुट कर जीने से डर लग रहा था। आज यह भी मैं महसूस कर रहा हूँ कि जब शारीरक शक्ति नष्ट होने लगती है तो बुरे विचार मन को प्रभावत करने लगते हैं। इसी लिए तो बैनमर ने डिप्रेशन की गोलियां प्रैस्क्राइब की थीं क्योंकि उस को पता था कि ऐसे रोगियों को यह समस्या होती ही है।
कुलवंत बहुत मज़बूत विचारों की है, उस की तुलना में मैं बहुत भावुक और कमज़ोर मन का हूँ। वोह बार बार मुझे हौसला दे रही थी कि वोह सब मेरे पास हैं और मुझे कोई तकलीफ नहीं होने देंगे। ज़्यादा से ज़्यादा तकलीफ होगी तो वोह मेरी बैड नीचे ले आएंगे। रोना शायद इस लिए भी मुझे आ रहा था कि इस रोग में रोगी इमोशनल होने लगता है। रोने लगे तो रोना रुकता नहीं, हंसी आ जाए तो हंसी रूकती नहीं, अचानक कोई खटाक हो तो शरीर एक दम त्र्भक उठता है और हाथ से पकड़ी चीज़ गिर जाती है, शरीर बहुत सैंसटिव हो जाता है। हस्पताल से मुझे छड़ी मिल गई थी लेकिन इस को पकड़ने की हिमत मुझ में नहीं थी और मैं इस के सहारे के बगैर ही चलना चाहता था। इस लिए मैं धीरे धीरे रोज़ कमरे में छड़ी के बगैर चलने की प्रैक्टिस करता। इतनी कोशिश करने के बावजूद टांगों में ताकत नहीं आती थी। बैनमर ने उधाहरण दे कर मुझे समझाया था कि जैसे घर में बिजली का एक डिस्ट्रिबियूशन बॉक्स होता है और उस में से जितनी तारें, प्लग्ग और लाइटों को आती हैं, उन से पलग्ग और लाइटें अपना अपना काम करती हैं लेकिन अगर इसी डिस्ट्रिबियूशन बॉक्स में बिजली का करंट कमज़ोर हो जाए तो सभी बल्व धीमे हो जाते हैं, इसी तरह ही अगर दिमाग के सैल कमज़ोर होने लगें तो उस का करंट शरीर के अंगों पर भी कमज़ोर पढ़ जाता है, जिस से शारीरक शक्ति भंग होने लगती है। इसी लिए तो मेरी शारीरक कमज़ोरी के साथ साथ मेरे बोलने की शक्ति भी कमज़ोर हो रही थी और जो भी शब्द मैं बोलता, उस को बोलने के लिए मेरा जोर लगता। इस रोग में डिप्रेशन इस लिए भी होता है कि इंसान जो बोलना चाहता है वोह बोल नहीं सकता और फिर मन में गुस्सा आता है, किसी को कह सकता नहीं और अपने भीतर उबलता रहता है। हम अक्सर कह देते हैं कि नीचे की ओर देखना चाहिए, तब हमें कुछ राहत मिलती है लेकिन ऐसा हो पाता नहीं और यह बहुत मुश्किल है। कहते हैं कि जब कोई किसी के सर पर डंडा मारता है तो डंडा उठाने और सर पर लगने के दरमियान जो वक्त होता है, वोह बहुत कष्टदाई होता है, जब डंडा लग गया फिर तो लग गया। बस ऐसे ही बैनमर से मिलने के बाद जो शौक लगा था, बस अब तो लग ही गया था। अब ज़िन्दगी रो कर गुज़ार लूँ या हंस कर, ज़िन्दगी तो जीनी ही पढ़ेगी और ऐसे ही दिन बीतने लगे। चलता. . . . . . . . .