धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेदों की रक्षा और आर्यसमाज

ओ३म्

वेदर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ और वैदिक ज्ञान से वेदों का पुनरुद्धार किया था। वह सारे संसार को आर्य व वेदानुयायी बनाना चाहते थे परन्तु संसार के लोग उनकी जनहितकारी व लोक कल्याण की भावना को समझ नहीं पाये और उनसे असहयोग करते रहे। ऐसे ही लोगों ने षडयन्त्र रचे और महर्षि दयानन्द का जीवन विष देकर समाप्त कर दिया। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज के तीसरे नियम में वेदों को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक घोषित किया है और कहा है कि वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब आर्यों, वेद और ऋषि दयानन्द के अनुयायियों का परम धर्म है। आज आर्यसमाज द्वारा वेदों के प्रचार प्रसार की क्या स्थिति है? हमें लगता है कि आज आर्यसमाज पहले की अपेक्षा सक्रिय कम निष्क्रिय अधिक हुआ है। स्वामी अमर स्वामी जी ने एक बार कहा था कि पहले के आर्यसमाज के मन्दिर कच्चे होते थे परन्तु आर्यसमाजी बड़े पक्के होते थे। अब आर्यसमाज के भवन तो पक्के बन गये हैं परन्तु आर्यसमाजी कच्चे हो गये हैं। इस बात में हमें काफी सीमा तक सत्य दिखाई देता है। आज आर्यसमाज के परिवारों के बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं। रात दिन पढ़ाई करनी होती है। शिक्षा पूरी करने के बाद अधिकांश लोग सरकारी व अपने अपने व्यवसाय में लग जाते हैं और पश्चिमी विचारों, आचार विचार, रहन सहन व जीवन पद्धति को अपना लेते हैं व अपना रहे हैं। माता-पिता का उन पर वश नहीं होता। वह सब अपनी मर्जी के मालिक होते हैं। इससे लगता है कि वह व उनकी भावी पीढ़ियां पश्चिमी विचारों की पोषक ही बनेंगी और आर्यसमाज के सन्ध्या, यज्ञ आदि पंचमहायज्ञों से ही वह दूर नहीं जायेंगी अपितु सत्यार्थप्रकाश और वेद से भी दूर हो जायेगीं।

दूसरी ओर हमारे गुरुकुल हैं। गुरुकुलों में भी हम देखते हैं कि लोग किन्हीं कारणों से गुरुकुल में पढ़ते हैं और फिर डिग्रियां लेकर महाविद्यालयों में अध्यापन आदि विषयक सरकारी व अच्छे वेतन की नौकरी की तलाश करते हैं। नौकरी व इच्छित रोजगार मिल जाने पर वह अपने व्यवसाय व गृहस्थ जीवन में लिप्त हो जाते हैं। आर्यसमाज का काम उनसे नहीं हो पाता। यहां यह बता दें कि आर्यसमाज में डा. धर्मवीर जी, डा. रघुवीर जी, डा. सोमदेव शास्त्री, डा. महेश विद्यालंकार आदि गुरुकुलों के ही स्नातक थे। आपने शिक्षा जगत में अच्छा कार्य किया और साथ ही आर्यसमाज को भी पर्याप्त समय व सेवायें दी जिन पर प्रत्येक आर्यसमाजी को गर्व है। गुरुकुल के जिन स्नातकों को अच्छा रोजगार नहीं मिलता वह कुछ लोग आर्यसमाजों में पुरोहित बन जाते हैं। विद्वान पुरोहितों का भी आर्यसमाज के अधिकारी कई प्रकार से शोषण करते हैं। वेतन उन्हें नाम मात्र ही मिलता है। उनकी आवश्यकतायें अधिक होती हैं। अतः वह भी पूरे मन से आर्यसमाज का प्रचार नहीं कर पाते। हमें यदा कदा दक्षिणा को लेकर कुछ पुरोहितों की शिकायतें भी सुनने को मिलती हैं। एक पुरोहित जी ने एक बार हमारे मित्र के पुत्र का विवाह संस्कार कराया। उन्होंने उन्हें अपनी इच्छानुसार दक्षिणा दी। पुरोहित जी हमसे पूछने लगे कि बैण्ड, आरकेस्ट्रा और अन्य अन्य को क्या दक्षिणा दी गई। क्या उन्होंने विवाह कराया? हमें उनसे कम दक्षिणा क्यों दी गई? उसके बाद वह वर के पिता के पास गये और उन्हें कुछ कहा। हमने देखा कि वर के पिता ने अपना बटुआ खोला और कुछ दक्षिणा और लेकर पुरोहित जी विदा हो गये। हम यहां पुरोहित जी को दोष नहीं दे रहे हैं परन्तु अनेक स्थितियों में पुरोहितों को उचित दक्षिणा नहीं मिलती। इसके हमारे सामने अनेक उदाहरण हैं। होना तो यह चाहिये कि गुरुकुलों के सभी स्नातक युवक आर्यसमाज के प्रचारक बनते परन्तु ऐसा हो नहीं पा रहा है। आर्यसमाज के अधिकारी भी गुरुकुलों के स्नातकों की सेवायें लेने के लिए उत्सुक नहीं दिखाई देते। अतः स्नातकों को अपनी आजीविका व गृहस्थ जीवन के लिए उपाय तो करने ही होते हैं।

आजकल देश में आतंकवाद का खतरा भी निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। हम केवल अपने सैनिकों के बल पर ही अपने घर में सुख की श्वांस ले रहे हैं। हमारी स्थिति सुरक्षा हटी दुर्घटना घटी’ वाली है। भविष्य में क्या होगा, यह कोई नहीं जानता परन्तु जिस प्रकार से आतंकवादी हिंसा बढ़ रही और उनका जो उद्देश्य है उससे वैदिक धर्मी और वेद तो असुरक्षित होंगे ही। अभी धुलागढ़ व मालदा आदि में जो हुआ वह भी देखने व सुनने को मिला है। इतिहास में मीनाक्षीपुरम् और केरल के मोपला विद्रोह की घटनायें भी आर्यों को स्मरण हैं। यह सब हमारे लिए खतरे की घंटी हैं। पहले वेद विलुप्त हो गये थे तो महर्षि दयानन्द ने उनका पुनरुद्धार किया। ऋषि के अनुयायियों की पहली व उसके बाद की कुछ पीढ़ियों व विद्वानों ने वेदों को सुरक्षित करने का सफल प्रयास किया। आज तो वेदों की स्थिति यह है कि मन्त्र संहितायें तो प्राय: छपती ही नहीं है। वेद भाष्य जो प्रकाशित होते हैं वह भी पांच सौ या एक हजार की संख्या में प्रकाशित होते हैं और वह भी दशकों तक बिकते नहीं हैं। इससे अनुमान लगा सकते हैं कि कितना वेद प्रचार हो रहा है और वेद कितने सुरक्षित हैं। जहां तक पौराणिक सनातनी बन्धुओं की बात है उन्होंने वेदों का अध्ययन और यहां तक कि वेदों का नाम लेना भी छोड़ ही रखा है। वह रामचरित मानस, गीता या पुराणों तक ही सीमित हैं। आज जितने धर्मगुरु टीवी आदि पर दिखाई देते हैं, वह भी पुराणों की कथा करके ही अपना इष्ट सिद्ध करते हैं। अतः वेदों की रक्षा पर गम्भीर विचार की आवश्यकता है। क्या आज वेद सुरक्षित हैं और भविष्य में भी रहेंगे? यह विलुप्त नहीं होंगे, क्या ऐसा मान सकते हैं। हमें इसका उत्तर यही मिलता है कि शायद कोई चमत्कार हो जाये, कोई ऋषि दयानन्द के समान ऋषि आ जाये तो सुधार हो सकता है अन्यथा अब संसार तो नास्तिकता की ओर ही बढ़ रहा है। संसार में आस्तिकों की संख्या निरन्तर घटती ही जा रही है। आर्यसमाज में भी आज स्वाध्याय की प्रवृति काफी घटी है। सन्ध्या व हवन की ओर भी आर्यों का उतना ध्यान नहीं है जितना होना चाहिये। देश की बहुत कम आर्यसमाजों में दो समय का दैनिक यज्ञ होता होगा? अतः वेदों की रक्षा पर विद्वानों द्वारा विचार किया जाना आवश्यक एवं समीचीन प्रतीत होता है।

स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कांगड़ी में जो गुरुकुल खोला था वह भी अब पूर्णतः आर्यसमाज के नियंत्रण में न होकर एक सरकारी यूनिवर्सिटी बन गया है। अब वहां अन्य अन्य विषयों का अधिक अध्ययन होता है जिसका आर्यसमाज के प्रचार व प्रसार से कोई लेना देना नहीं है। वहां गुरुकुल से कितने स्नातक बनते हैं और उनमें से कोई आर्यसमाज का प्रचारक बनता है या नहीं, इसकी कोई जानकारी नहीं है। अनुमान यही है कि गुरुकुल कांगड़ी से आर्ष शिक्षा प्रणाली के स्नातक नहीं निकलते। यदि निकलते हों तो शायद् किसी को कोई ज्ञान नहीं है। ऐसी ही स्थिति कम व अधिक सभी गुरुकुलों की हो सकती है। हमने कैप्टेन देवरत्न आर्य जी के पिता आचार्य भद्रसेन जी के जीवन में पढ़ा है कि उन्होंने जानबूझकर शिक्षा की सरकारी डिग्रीयां इस लिए प्राप्त नहीं की थीं कि उनमें मन में सरकारी नौकरी का लालच न आ जाये जबकि वह अपनी योग्यता से वेदों पर अनुसंधान व शोध करने वालों को भी परामर्श देते थे। हमने अनुभव किया कि उनका जीवन भी अभावों की भट्टी में होकर गुजरा था। सौभाग्य से उन्हें देवरत्न आर्य जैसे योग्य व श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त हुए थे जिन्होंने अपने माता-पिता की सेवा के साथ अपने सभी भाई-बहिनों से अच्छे व मधुर सम्बन्ध बनाये और आर्यसमाज की भी उल्लेखनीय सेवा की। आज आर्यसमाज को ऐसे गुरुकुलों की आवश्यकता है जहां ब्रह्मचारियों को डिग्रियां न देकर वैदिक धर्म का प्रचारक बनाया जाये जैसा कि रोजड़ आदि गुरुकुलों में होता है। इसके लिए स्वामी सत्यपति जी सहित उनके शिष्य ज्ञानेश्वर जी व स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक जी आदि बधाई के पात्र हैं।

वेदेां की रक्षा कैसे की जा सकती है? इसका समुचित समाधान हमें मिल नहीं रहा है। हम आर्यसमाज के बड़े विद्वानों व संन्यासियों को इसका उत्तर तलाश करने की अपील करते हैं। वह अपने अनुभवों से आर्यजगत का मार्ग दर्शन करें, यह हमारी प्रार्थना है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य