इतिहास

शीर्ष वैदिक विद्वान डा. रघुवीर वेदालंकार और उनकी पुस्तक ‘ध्यान तथा उपासना

ओ३म्

डा. रघुवीर वेदालंकार जी की एक कृति ध्यान तथा उपासना’ है जिसका प्रकाशन सत्यधर्म प्रकाशन, रोहतक से सन् 1906 में हुआ था। हमने अप्रैल सन् 2007 में गुवाहटी की यात्रा की थी और वहां अपनी पुत्री के पास कुछ दिन रहे थे। उसी बीच रेलयात्रा और गुवाहटी प्रवास में हमने इस पुस्तक को पढ़ा था। यह पुस्तक हमें अपने विषय की एक महत्वपूर्ण एवं उपासना में मार्गदर्शन देने वाली अच्छी पुस्तक लगी थी। इसके बाद जब हम डा. रघुवीर जी से मिले थे तो हमें याद है कि हमने इसकी प्रशंसा की थी। स्वाध्यायशील जिन बन्धुओं ने इस पुस्तक का अध्ययन न किया हो, उनको हमारा परामर्श है कि उन्हें एक बार इस पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहिये। आज हम इस पुस्तक से ध्यान करने की विधि का एक संक्षिप्त उद्धरण प्रस्तुत कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि पाठकों को यह उद्धरण उपादेय लगेगा।

“उपासक जिसकी उपासना करने चला है, उसके स्वरूप का ध्यान उपासक को होना चाहिए। परमेश्वर के स्वरूप को पूर्ण रूप से तो हम नहीं जान सकते तथापि उसके कुछ गुणों को हृदयंगम करके ध्यान में  प्रवेश करें। यथा परमेश्वर सर्वरक्षक, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, दयालु, सर्वान्तर्यामी, आनन्दस्वरूप है। ये गुण केवल वाचिक रूप में ही स्मरण नहीं रहने चाहिएं, अपितु ध्यान में बैठकर इन गुणों का चिन्तन एवं अनुभव करना चाहिये। उस समय आपकी यह स्थिति हो कि आपको  लगे कि परमेश्वर मेरे ऊपरनीचे, अन्दरबाहर सर्वत्र विद्यमान है। मैं इस सर्वव्यापक आनन्दस्वरूप परमेश्वर की गोदी में उसी प्रकार बैठा हुआ हूं जैसे नदी में कोई तैराक लेटा या बैठा रहता है। नदी के मध्य लेटने पर निश्चित रूप से शीतलता की प्रतीति होगी। इसी प्रकार प्रभु की उपासना मे बैठ कर उापको ऐसा लगना चाहिए, ऐसा अनुभव होना चाहिए कि मैं आनन्द स्वरूप परमेश्वर के मध्य बैठा हूं तथा उसका आनन्द शनैःशनैः मेरे अन्दर समाहित होता जा रहा है। यह स्थिति एक ही दिन में उत्पन्न नहीं होगी। इसमें समय लगेगा। अतः धैर्य पूर्वक साधना का क्रम जारी रखिए। कुछ काल पश्चात् यह अनुभूति आपको होने लगेगी।”

वैदिक विद्वान डा. रघुवीर वेदालंकार जी का जन्म जिला मुजफरनगर, उत्तर प्रदेश में सन् 1945 में हुआ था। आपकी शिक्षा गुरुकुल झज्जर एवं गुरुकुल कांड़ी विश्वविद्यालय में हुई। आपने वेदालंकार, व्याकरणाचार्य, वेदाचार्य, एम.ए., पी.-एच.डी., काव्यतीर्थ (लब्धसुवर्णपदक) प्राप्त की हैं। आपने 30 वर्षों से अधिक अवधि तक अध्यापन किया। आप रामजस कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के उपाचर्य रहे। आपने दिल्ली में वेद मन्दिर, रोहिणी की स्थापना भी की तथा प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, दिल्ली के संस्थापक अध्यक्ष हैं। सन् 2006 तक आप 14 पुस्तकों का लेखन तथा 4 पुस्तकों का सम्पादन कर चुके थे। इसके बाद भी आपने कुछ पुस्तकों का लेखन एवं सम्पादन किया है। आपकी कुछ पुस्तकें वेदों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन (सम्पादन), उपनिषदों में योग विद्या (पुरस्कृत), काशिका का समालोचनात्मक अध्ययन (पुरस्कृत), काशिका हिन्दी व्याख्या (पुरस्कृत), क्या अथर्ववेद में जादू टोना है?, वैदिक दर्शन, वैदिक संस्कृति एवं आर्यसमाज, वैदिक चिन्तन (सम्पादित), मन की अद्भुत शक्तियां एवं स्वरूप, वेदों में क्या है?, अथर्ववेद में क्या है? तथा पातंजल योगदर्शन का अध्ययन आदि हैं। इस वर्ष आपकी एक पुस्तक दीर्घजीवन तथा आयुवृद्धि’ (एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण) का प्रकाशन आचार्य प्रणवानन्द विश्वनीड़ न्यास, देहरादून की ओर हुआ है। हमारे पास आपकी एक पुस्तक ज्ञान का प्रादुर्भाव भी है। आप उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी लखनऊ, आर्यसमाज बड़ा बाजार, पानीपत, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ तथा आर्यसमाज सरस्वती विवहार दिल्ली द्वारा भी आदृत हैं। वेदों के नामपद एवं आख्यान’ आपका डी.लिट्. उपाधि के लिए शोधग्रन्थ है। हमने आपके अनेक व्याख्यान सुने हैं। आप बहुत वैदिक विषयों पर सरल व सुबोध भाषा में सामयिक विषयों का समावेश कर प्रभावशाली व्याख्यान देते हैं। आर्यसमाज को भी आप झकझोरते रहते हैं। अभी कुछ दिन पूर्व ही हमने परोपकारिणी सभा अजमेर द्वारा 4 नवम्बर, 2016 को सम्पन्न राष्ट्र रक्षा सम्मेलन’ में आपका ओजस्वी व्याख्यान प्रसारित किया है।

आप आर्यसमाज के शीर्षस्थ विद्वान है। हम आर्यसमाज के सभी अधिकारी महानुभाव व विद्वानों से निवेदन करेंगे कि जहां जहां आपके प्रवचन हों उसकी मोबाइल व कैमरों की सहायता से वीडियों चलचित्र बनाकर उसे यूट्यूब आदि के माध्यम से प्रसारित करें। उनके सभी वीडियों चलचित्रों का संग्रह आर्यसमाज के लिए भविष्य में उपयोगी हो सकता है। लेख को विराम देते हुए हम डा. रघुवीर वेदालंकार जी के स्वस्थ एवं सुदीर्घ जीवन की ईश्वर से कामना करते हैं। आ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य