संस्मरण

मेरी कहानी 195

जिस हालात में भी मैं था, मैंने रहना कबूल कर लिया था। वक्त दौड़ा जा रहा था और मैं अपनी एक्सरसाइज़ के जोर से एक जगह खड़ा हो गया था। डाक्टर ने बताया था कि यह ब्रेन सैल डीजैनरेशन है और जैसे जैसे ब्रेन सैल डैड होते जाएंगे मेरा शरीर बिलकुल टूट कर हमेशा के लिए बैड का मोहताज़ हो जाएगा। अब यह मेरी ज़िद कह लूँ या कोशिश, मैं इस को हरगिज़ होने नहीं देना चाहता था। मैं ने भी अब सोच लिया था कि बैड में हमेशा के लिए पड़ जाने से एक्सरसाइज़ करना बहुत आसान है। वैसे भी मेरे पास तो वक्त ही वक्त था। अब जब मैं यह लिख रहा हूँ तो सोचता हूँ कि मैं हूँ तो डिसेबल ही लेकिन उन दिनों से मेरे शरीर की ताकत बहुत बहुत बढ़ी है। जब मैंने एक्सरसाइज़ शुरू की थी तो टांगों को ऊपर उठा ही नहीं सकता था लेकिन आज लेटकर हर एक टांग को पचास दफा ऊपर निचे कर सकता हूँ। ऐसी बहुत सी ऐसी ऐक्सर्साइज़ज़ हैं, जो मेरी अपनी इज़ाद की हुई हैं और हर एक आसन की पचास मूवमेंट करता हूँ। आधा घँटा तो पहले बैड पर ही बहुत सी मूवमैंट करता हूँ। फिर शौच आदि से निपट कर एक कप्प चाय का लेता हूँ और साथ ही शुरू हो जाती है अन्य मूवमैन्टस, जो एक घँटा जारी रहती हैं, जिस में कुर्सी पर बैठ कर उठना बैठना, झुकना और ऊपर उठना, नैक मूवमैंटस, अनुलोम विलोम, कपालभाति, भस्त्रिका, सिंह आसन और कुछ अन्य जीभ की एक्ससाइज़ज़ जो मुझे स्पीच थैरेपी के दौरान बताई गई थीं। फिर ब्रेकफास्ट ले के कोई किताब या अखबार ऊंची ऊंची पढ़ने की कोशिश करता हूँ, गाना गाने की कोशिश भी करता हूँ ताकि कुछ कुछ बोलता रहूँ। ज़्यादा तो बोल नहीं सकता लेकिन घर वालों को तो कुछ कुछ समझा ही देता हूँ। मेरी एक्सरसाइज़ यहां ही ख़तम नहीं होती, शाम के खाने के बाद अपने थ्री वीलर फ्रेम के सहारे आधा घँटा कमरे में ही इधर उधर घूमता हूँ। पहले पहले दो तीन दफा घूमता रहता था और सीडीआं भी पंदरां बीस दफा चढ़ लेता था लेकिन अब सिर्फ एक दफा आधा घँटा ही चलता हूँ, और बार बार सीड़ीआं चढ़ना बंद कर दिया है, जिसका कारण आगे लिखूंगा।
मेरी सिहत की वजह से इंडिया जाना मेरे लिए असंभव हो गया था। बहुत से ऐसे काम थे जिन को हम समेटना चाहते थे। ज़िन्दगी में बहुत दफा हम समझदारी से काम ले के कोई ऐसा काम कर लेते हैं, जिनका फायदा उस समय होता है, जब अचानक मेरी तरह शरीर की घड़ी स्लो हो जाती है। हम कोई अमीर तो नहीं हैं लेकिन जो भी अब तक हमारी सेविंग है, वोह कुलवंत और मेरे नाम जौएंट ही रही हैं, जिसका फायदा हमें जब मैं कभी अकेला भी जाता था तो बैंक में कोई तकलीफ नहीं होती थी और अब क्योंकि मैं तो इंडिया जा नहीं सकता था और आगे के लिए कोई आशा नहीं थी, बच्चे इंडिया जाना नहीं चाहते, सो हमने विचार किया कि कुलवंत इंडिया जाए और अकाउंट बन्द करा दे, नहीं तो सब कुछ बेकार हो जाएगा। एक बात से तो हम बच ही गए थे कि हम गोवा में फ़्लैट लेने के इच्छक थे लेकिन बाद में हम ने इग्नोर कर दिया था। अगर ले लेते तो यह भी एक सरदर्दी बन जाती। 2009 में हम ने मशवरा किया कि कुलवंत इंडिया जा आये और यह भी कि कुलवंत के साथ संदीप जसविंदर और बच्चे भी जाएँ और इंडिया घूम आएं। फैसला मार्च 2010 में जाने का हुआ क्योंकि अप्रैल में ईस्टर की छुटियाँ थीं। बच्चों ने काम पर अपनी छुटियां बुक करवा लीं। इस के बाद सीटें और हैल्थ इंशोरेंस का बंदोबस्त कर लिया गया। मेरी देख भाल के लिए बेटियों ने दो दो हफ्ते की छुटियाँ ले लीं।
संदीप ने एअरपोर्ट को अपनी गाड़ी में ही जाना था और गाड़ी एअरपोर्ट पर ही पार्क कर देनी थी, इस से इंडिया से आते वक्त भी कोई तकलीफ होने का अंदेशा नहीं था। पोतों के लिए भी यह एक ऐडवैंचर ही थी क्योंकि वोह पहली दफा जा रहे थे। संदीप तो दो दफा पहले भी जा चुक्का था और जसविंदर भी एक दफा जब वोह 14 साल की थी, इंडिया हो आई थी। नियत दिन सभी बर्मिंघम एअरपोर्ट से इंडिया की तरफ उड़ने लगे। आज की रात मैं घर में अकेला ही था क्योंकि छोटी बेटी ने दूसरे दिन आना था। वैसे कुलवंत ने गियानों बहन के छोटे बेटे बलबंत को बता दिया था कि अगर मुझे कोई जरूरत हो तो वोह आ जाए और वोह शाम को मेरे पास सोने को ही कह रहा था लेकिन मैंने उसको कोई फ़िक्र की बात नहीं है, कह कर वापस भेज दिया था। सुबह पांच बजे से मैं इंडिया दिली एअरपोर्ट पर से बच्चों के टेलीफोन की इंतज़ार कर रहा था। जब छै बज गए तो मैंने ही छोटे भाई निर्मल को उस के मोबाइल पर फोन किया। जिस वक्त मैंने टेलीफोन किया, वोह सभी गाड़ी में बैठे एअरपोर्ट से निकल कर घर की तरफ जा रहे थे, सब लोग बातें करते हुए ट्रैवल करते जा रहे थे। कुलवंत से सब कुछ पुछा, तसल्ली हो गई और मैं फिर से सो गया।
हर रोज़ मैं टेलीफोन कर लेता था, और उस दिन कहाँ गए, क्या किया, बात हो जाती और मैं भी निश्चिन्त हो जाता। एक दिन कुलवंत बच्चों को ले कर दीपो बहन को मिलने चले गई । जब मैंने दीपो के घर टेलीफोन किया तो सभी ऊंची ऊंची हंस रहे थे, लगता था बहुत मज़े में थे। जब संदीप मेरे साथ इंडिया आया था तो उस वक्त वोह 9 साल का था और दीपो मासी से उस का मिलन एक दफा ही हुआ था। दीपो बहन बहुत गरीब है, घर बहुत छोटा और साधारण है, इसलिए मेरे दिल में कुछ कुछ संदेह था कि शायद बच्चे वहां रहना पसंद ना करें लेकिन मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी हुई कि सभ से ज़्यादा सभी बच्चों ने दीपो मासी के घर मज़े किये। संदीप बेशक ज़्यादा बोलता नहीं है लेकिन बाद में कुलवंत ने मुझे बताया कि संदीप ने दीपो के साथ बहुत मस्ती की और हंस कर दीपो को कहता, ” दीपो मासी ! तू बोलती बहुत है और मुझे बोलने का चांस नहीं देती ” और दीपो बहुत खुश होती। दीपो ने इन सबके लिए तरह तरह के खाने बनाये हुए थे और जब बच्चे वापस आये थे तो वोह कह रहे थे कि सभ से ज़्यादा खाने का मज़ा दीपो मासी के घर ही आया। इन बातों से मेरे मन को भी संतोष होता था कि बच्चे इंडिया गए हैं और उन्हें किसी किसम की परेशानी नहीं थी।

एक बात की ख़ुशी मुझे और भी हुई कि हर दूसरे तीसरे दिन संदीप बस में जसविंदर और बच्चों को लेकर कभी फगवाड़े और कभी जालंधर ले जाता और उन को तरह तरह की स्ट्रीट फ़ूड खिलाता। बेछक राणीपुर से ही टैक्सी मिल जाती थी, फिर भी वोह बस पकड़ कर ही चले जाते और घुमते रहते। एक दिन वोह अमृतसर चले गये, फिर वोह सभी दिल्ली चले गए। दिल्ली तिलक नगर में कुलवंत की सबसे बड़ी बहन अपने परिवार के साथ रहती थी ( अब वोह कुछ साल हुए भगवान् को पियारी हो गई है ) , टेलीफोन मैं हर रोज़ करता था, जिससे मुझे हर रोज़ की जानकारी मिल जाती थी। दिल्ली में संदीप और ख़ासकर दोनों पोतों ने बहुत मस्ती की। कुलवंत की बहन के पोते हमारे पोतों के साथ बहुत खेलते और उनको इंग्लिश बोलते देख पड़ोस के बच्चे भी आ जाते और हमारे पोतों को पंजाबी सिखाते। कुलवंत की बहन का एक बेटा दिल्ली पुलिस में काम करता है और वोह संदीप को बहुत घुमाता। यहां सभी को उस ने दिल्ली की बहुत जगह दिखाईं। कुछ दिन दिल्ली में गुज़ार के सभी पंजाब चले आये और बड़ी गाड़ी बुक करा के और दीपो को भी साथ ले के सभी आगरा देखने चले गए। संदीप ने ताज महल बहुत पसंद किया।

ताज महल देख कर जब यह सभ वापस घर आये तो एक अजीब बात हो गई। दस अप्रैल को आइसलैंड में वोल्केनो ( जुआला मुखी ) इरपट्ट हो गया। आइसलैंड में जुआलामुखी अक्सर फटते ही रहते हैं लेकिन यह इतना भयानक था कि इसका धुआं राख के साथ आसमान में फैलने लगा जो बढ़ता ही जा रहा था। लावा उबल उबलकर पानी की तरह बह रहा था और जो कुछ भी रास्ते में आता सुआहा किये जा रहा था। हरे भरे बृक्ष जल कर राख हो रहे थे। इस राख से घर सड़कें सब दब्बे जा रहे थे। लाल लाल लावा नदियों की तरह दूर दूर पानी की तरह जा रहा था। 24 घंटे यह ख़बरें टैली पर आ रही थीं। राख वाला धूंआं मीलों तक ऊपर आसमान की तरफ जा रहा था। यूँ तो आइसलैंड में जुआला मुखी बिस्फोटिक होते ही रहते हैं लेकिन यह बहुत बड़ा था जिस से नॉर्दर्न यूरप के तेरह चौदह देश प्रभावत हो गए । एअर ट्रैफिक डिस्रप्शन सब से बुरी बात हुई, जिसकी वजह से एरोप्लेन चलने बंद कर दिए गए क्योंकि यह धूंआं इंजिन में फंस कर हादसा हो सकता था । एयरपोर्टों पर यात्रियों का जो हाल हुआ, वोह रीफ्यूजी कैम्पों से कम नहीं था। ईस्टर की छुटियां होने के कारण बहुत लोग दूसरे देशों में छुटियां बिताने के लिए गए हुए थे और उन्होंने हॉलिडे से वापस आ के अपने अपने काम पे वापस भी जाना था, पैसे भी उनके पास ख़तम हो रहे थे, एयरपोर्टों पर इतने लोगों के लिए विवस्था नहीं थी, होटलों के बड़े बड़े बिल चुकाना भी असंभव हो रहा था, बहुत लोग जो अपनी दवाइओं पर निर्भर थे, उनके पास दवाइआं ख़तम हो रही थीं। एयरपोर्टों पर जहाज़, बस्सों के अड्डों की तरह जमा हो गए थे। जो भी जहाज़ आता, आगे ना जाता, वहीँ पार्क कर दिया जाता । बहुत लोग ट्रेनें पकड़ पकड़ कर, एक दूसरे देशों में से हो कर जाने लगे। इंग्लैंड को आने वाले यात्री कई देशों से होते हुए बैल्जियम और फ्रांस की कैले बंदरगाह से फैरी ले कर इंग्लैंड आने लगे।

यह देख कर मैंने कुलवंत को फोन किया कि जितनी जल्दी हो सके वोह वापस आ जाएँ क्योंकि अभी इंडिया से कुछ उड़ाने किसी और रुट से आ रही थीं। इंडिया में लोग यह बातें जानते ही नहीं थे और ख़बरें भी मुख़्तसर होती थीं। यह बातें जब संदीप वापस आया तो उसने बताईं। कुलवंत को मैं रोज़ बताता था लेकिन वोह इस को इतनी सीरीयसली नहीं ले रही थी। वोह समझती थी कि कोई छोटी सी बात होगी और क्योंकि मैं जल्दी घबरा जाता हूँ, इस लिए वोह अपनी शॉपिंग में ही मगन थी। उस वक्त कम्पयूटर अभी इतने नहीं थे। संदीप को गाँव में किसी के घर जाने का अवसर मिला जिस के घर में कम्पयूटर था। घर वालों की इजाजत से संदीप ने कम्पयूटर पे बीबीसी ख़बरें देखीं तो डर गया और घर आके संदीप और जसविंदर टैक्सी ले कर जालंधर चले गए और एअरलाइन्स के दफ्तर में चले गए और उन से सीट बुक कर देने को कहने लगे। अब इंडियन लोगों का तो यह वक्त होता है पैसा बनाने का। वोह तंग करने लगे कि अभी तो चार हफ्ते तक कोई सीट थी ही नहीं। फिर बोले कि वोह एक सीट दे सकते हैं। अपसैट हो कर वोह शाम को घर आ गए। मैं रोज़ संदीप को बताता कि यूरप में लोग एयरपोर्टों पर फंसे हुए हैं, अगर ट्रैवल एजेंट को पैसे भी देने पड़ें तो दे दें। दूसरे दिन संदीप और जसविंदर फिर जालंधर चले गए और क्लर्क से बातें करने लगे। जब बहुत देर तक यह बैठे रहे और वोह महाशय बोले ही नहीं तो जसविंदर उन के साथ इंग्लिश में तेज तेज बातें करने लगी और उसने धमकी दी कि वोह हैड ऑफिस में उसकी रिपोर्ट करेगी। यह बात सुन कर वोह शख्स घबरा गया और वादा किया कि वोह जल्दी सीटों का बंदोबस्त करेगा। गुस्से में ही जसविंदर और संदीप वहां से उठकर आ गए। अभी यह घर पहुंचे ही थे कि उसी वक्त एजेंट का टेलीफोन आ गया कि सुबह दस बजे की फ्लाइट में उन सभ की सीट पक्की हो गई थी और कहा कि सभी सीधे एअरपोर्ट पर पहुँच जाएँ।

यह सुनकर एक तरफ तो सभ खुश हो गए लेकिन दुसरी तरफ भाग दौड़ शुरू हो गई। बहुत से धोये हुए कपडे थे, इन्होंने वोह घर में ही छोड़ दिए। हफरादफरी में पैकिंग शुरू कर दी। यह भी अच्छा था कि छोटा भाई निर्मल घर में ही था और गाड़ी भी अपनी ही थी। देर रात तक पैकिंग होती रही और सो गए। सुबह चार बजे उठ कर चाय के कप्प पीकर पांच बजे इन्होंने गाँव छोड़ दिया। जब यह अमृतसर एअरपोर्ट पर पहुंचे तो यह लोग हैरान हो गए कि इस जहाज़ में जाने वाले इतने यात्री है ही नहीं थे। जालंधर वाला एजेंट खामखाह पैसे बटोरने के लिए इनको तंग कर रहा था। दरअसल बात यह थी कि बहुत लोगों को आइसलैंड की घटना के बारे में पता ही नहीं था। जब यह यहां आये तो टीवी देखकर दंग रह गए कि बहुत अच्छा हो गया कि वक्त पर पहुँच गए नहीं तो पता नहीं कितने दिन और ठैहरना पड़ता। हमारे टाऊन के एजेंट का दूसरे दिन टेलीफोन आ गया कि यह लोग कैसे जल्दी आ गए और अमृतसर एयपोर्ट पर हालात कैसे थे। बहु ने सब कुछ बताया कि एरोप्लेन तो आधा खाली था। कहते हैं, अंत भला सो भला, इनके आने के कुछ दिन बाद लोग इतने दुखी हुए कि कई लोग दुसरी एअऱलाइंज़ में ज़्यादा पैसे खर्च के इंग्लैंड पहुंचे। जब लोगों को आइसलैंड के बारे में पता चला तो सब लोग पैनिक में आ गए थे। कलवंत हंसने लगी कि मेरा इतना शोर मचाना फायदेमंद साबत हुआ।

चलता. . . . . . . .