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हिंदी को आठवीं अनुसूची से मुक्त कर राष्ट्रभाषा का दर्जा दें!

भाषा राष्ट्र और समाज की ऐतिहासिक धरोहर होती है। उसका संवर्धन और संवरक्षण एक अनिवार्य दायित्व है। भाषा, संस्कृति, सभ्यता, जीवन पद्धति, अस्मिता और खानपान  से पहचान होती है। स्वाधीनता के बाद से हम ऐसे बुनियादी तत्वों की अनदेखी करते रहे हैं। वाजपेयी सरकार में आडवाणी गृहमंत्री थे। तब राजनैतिक कारणों से मैथिली, संथाली, डोंगरी और बोडो को संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल कर लिया गया था। इनमें हिंदी क्षेत्र की  बोली भी थी।  बोलियों को शामिल करने के पीछे एक मंशा यह भी रहती है कि उसके साहित्यकारों को साहित्यकारों को साहित्य अकादमी के पुरस्कार मिलने में आसानी हो जाती है। नेशनल बुक ट्रस्ट पुस्तकें प्रकाशित कर देता है। हुआ यह कि मैथिली को शामिल करने से हिंदी को अपनी भाषा नहीं मानते हुए जनगणना में अपने को मैथिलीभाषी दर्ज करा दिया। वर्तमान में बोली के रूप में भोजपुरी, राजस्थानी और भोटी आदि  बोलियां देश की ३८ बोलियों के साथ सम्मानित रही है, है और रहेगी। विभिन्न क्षेत्रों में बोली और लिखी जाने वाली बोलियाँ हमारी ही धरती पर जन्मी और पनपी है, विकसित हुई है। ऐसे ही भारत की वसुंधरा पर अनेकों भाषाऐं पनपी हैं। जो संविधान की आठवीं अनुसूचि का अभिन्न अंग हैं। अष्टम अनुसूचि  का मुख्य उद्देश्य हिंदी में शब्दावली ग्रहण करने से है। ताकि हिंदी निरंतर पुष्ठ होती रहे। इस संबंध में सीताराम महापात्र की अध्यक्षता में बनाई गई समिति ने अपनी रपट में स्पष्ट रूप से कहा था कि अब किसी अन्य भाषा को अष्टम अनुसूचि में शामिल करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। अष्टम अनुसूचि में जितनी बोलियों को सरकार  शामिल करना चाहे कर लें , किंतु  साथ ही साथ हिंदी को इस सूचि से बाहर कर के राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया जाए। संविधान में देश की कोई राष्ट्र भाषा और सम्पर्क भाषा ही नहीं है। हिंदी राष्ट्र भाषा के लिए संविधान बनाए जाते समय ही अधिकारियों थी। अब सत्तर साल के बाद बिना विलंब उसे राष्ट्रभाषा का सम्मान मिलना ही चाहिए  

     भारत राष्ट्र के हित में यही है कि हर भारतवासी अपनी बोलियों को बोलियों के रूप में विकसित करें, भाषाओं को भाषाओं के रूप में रहने दें। बोलियाँ और भाषाऐं प्राचीन हैं। दुनिया में उनकी अपनी पहचान और उपयोगिता है। उनका हित इसी में है कि उनका अस्तित्व बना रहे। ये सभी निरंतर विकसित होती रहे। हमारी केन्द्र सरकार को भी चाहिए कि वह बोलियों को बोलियों के रूप में और भाषाओं को भाषाओं के रूप में मान दें, सम्मान दें और विकसित होने का हर संभव अवसर दें। 

भारत सरकार के प्राक्कथन दिनांक १८ जनवरी, १९६८ को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित राजभाषा संकल्प में व्यक्त किया गया है:-  “केंद्र सरकार के कार्यालयों और सार्वजनिक क्षेत्रों द्वारा राजभाषा हिंदी के प्रचार और प्रयोग के लिए हिंदी बोले जाने और लिखे जाने के लिए ‘क’ क्षेत्र है। इस क्षेत्र में शामिल राज्य है: बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा प्रदेश, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड राज्य और अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तथा संघ राज्य क्षेत्र है” ये सभी हिंदी भाषी हैं। इनका कामकाज हिंदी भाषा में होता है। इनकी आबादी स्थानीय बोलियों का उपयोग भी करती है। गृह मंत्रालय भारत सरकार के राजभाषा विभाग के २०१५-१६ के अनुसार संघ का राजकीय कार्य हिंदी में करने के लिए यह कहा गया है:”सरकारी कामकाज में हिंदी के प्रगामी प्रयोग के क्षेत्र में प्रगति हुई है, किंतु अब भी लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सके हैं। ( देश को स्वाधीन हुए सत्तर साल हो गए हैं तब भी) …किंतु अभी भी बहुत सा काम अंग्रेज़ी में हो रहा है।”

  हाँ सत्य यह है कि हिंदी भारत की राजभाषा है, पर चलती अंग्रेज़ी की है। जिसे संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल नहीं किया गया है। फिर भी सरकार के मूल दस्तावेज़ अंग्रेज़ी में जारी होते हैं। उन्हें प्रमाणिक होने की मान्यता प्राप्त है। उनके साथ में हिंदी अनुवाद संलग्न रहता है। हिंदी दस्तावेज़ की मान्यता नहीं होने से उन्हें कोई नहीं पढ़ता है और न ही कोई उपयोगिता है। १४ सितंबर, १९४९ को हिंदी को राजभाषा घोषित कर दिया गया था। परंतु उसमें यह प्रावधान करवा दिया गया कि यह घोषणा पन्द्रह साल बाद होगी। तब हिंदी राजभाषा के रूप में सक्षम हो जायगी। हिंदी राजभाषा का स्थान ग्रहण कर लें, इस दिशा में सरकार ने कोई ठोस क़दम उठाए होते तो संविधान में व्यक्त भावना पूर्ण हो जाती। परंतु ऐसा हो नहीं सका। अत: १९६७ में कहा गया किहिंदी राजभाषा का स्थान ग्रहण करने योग्य नहीं है और फिर से प्रावधान कर दिया गया कि अंग्रेज़ी अनिश्चित  काल तक बनी रहेगी। इसके विपरित चीन जो भारत के साथ स्वाधीन हुआ था, उसके मुखिया माउत्से तुंग ने स्वाधीनता मिलने के तत्काल बाद घोषित कर दिया था चीन की प्रमुख भाषा मंदारिनी में चीन सरकार का सभी कामकाज होगा।

अगर भारत के स्वाधीन होते ही चीन के समान हिंदी को भारत की राजभाषा और राष्ट्रभाषा और सम्पर्क भाषा घोषित कर दिया जाता, तो उसके प्रयोग होने  का अवसर मिल जाता और वह बिना विवाद के अपना वास्तविक स्थान ग्रहण कर लेती। परंतु ऐसा नहीं हो सका। राजनैतिक स्वार्थ और अवसरवादिता ने हिंदी के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। दुनिया में हमारा भारत ही ऐसा लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसकी सत्तर साल बाद भी अपनी कोई राष्ट्रभाषा ही नहीं है। सवा सौ करोड़ देश के नागरिकों के राष्ट्र की अपनी कोई भाषा ही नहीं है। विश्व में कहने को हिंदी भारत की प्रमुख भाषा है परंतु सरकार के कामकाज और व्यवहार में हर तरफ़ हिंदी का नहीं अपितु विदेशी भाषा अंग्रेज़ी का अधिपत्य स्थापित है  सँस्कृत के साथ घोर असहनीय उपेक्षा हुई है  ग़नीमत है कि है कि ग़ैर हिंदी क्षेत्रों की भाषाऐं ऐसी दुर्दशा से मुक्त रही  हैं  विडम्बना यह भी है कि देश के उच्च और उच्चत्तम न्यायालय में हिंदी और राज्यों की भाषाओं में वाद चलाया ही नहीं जा सकता है। अपने देश में देश की भाषाओं का न्याय के दरवाज़े में प्रवेश ही निषिद्ध है। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद ३४८ में संशोधन करने के लिए राजनैतिक स्वार्थ और अवसरवादिता बाधक अब आडे नहीं आना चाहिए। हिंदी को उसका संवैधानिक स्थान देश में मिले इसके लिए अब संविधान में संशोधन करना होगा।  

    हिंदी सरकार के कामकाज की भाषा बन जायगी तो उसे शिक्षा, व्पापार, उद्योग, तकनीकी, ज्ञान-विज्ञान आदि  सभी क्षेत्रों में अपनाया जा सकेगा। हिंदी देश की एक ऐसी भाषा है, जो देश में हर तरफ़ बोली और समझी जाती है। वह देश को एक सूत्र में जोड़ने की भूमिका निर्वाह कर रही है।  अंग्रेज़ी भाषा जिस प्रकार से मुश्किल से तीन प्रतिश्त उच्च वर्ग से जुडे लोगों के स्वार्थ पूर्ति के कारण  देश के कामकाज की भाषा पिछले सत्तर साल से बनी हुई है, उसी नीति पर चल कर हिंदी को ख़त्म करने के लिए हिंदी प्रदेशों की बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल करने का राष्ट्रघाती अभियान उभारा गया है। दिसंबर में मुंबई के एक दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार के अनुसार दिल्ली भाजपा के नवनियुक्त अध्यक्ष मनोज तिवारी ने बताया कि सरकार ने भोजपुरी, राजस्थानी और भोटी को आठवीं अनुसूचि में संवैधानिक दर्जा देने का फ़ैसला कर लिया है।  संसद के अगले सत्र में सरकार लोगों को यह तोहफ़ा दे देगी। इस मामले में हैरत में डालने वाला गृहमंत्री राजनाथ सिंह का ११ नवंबर का लखनऊ की एक सभा का बयान है जिसमें उन्होंने कहा कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल किया जायगा।  उन्हे बयान देने से पहले सोचना था कि देश में ३८ बोलियाँ हैं जो अपने-अपने राज्य की भाषा की मान्यता के लिए आठवीं अनुसूचि में शामिल होने की क़तार पर है। ये ब्रज अवधी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी हरियाणवी, कुमायूनी, गढ़वाली, मगही, मालवी, निमाड़ी, अंगिका आदि बोलियाँ हैं, अपने राज्यों की अधिकृत भाषाऐं नहीं हैं। यदि इन बोलियों को आठवीं अनुसूचि में जगह दे दी गयी तो अगली जनगणना में लोग अपने राज्य की भाषाओं के बदले बोलियों को लिखावेंगे। तब हिंदी जो दुनिया की दुसरे क्रम पर रही है कुछ शामिल हो चुकी के बोलियों के कारण चौथे क्रम पर पहुंच चुकी है। उसको अपनाने वालों की संख्या किसी राज्य से भी कम हो जायगी और हिंदी को उसकी बोलियाँ  ही अपदस्थ कर देगी। 

भोजपुरी के समर्थकों के लिए कुछ उदाहरण विचारणीय है। जिनका संबंध बिहार से जुड़ा है। महात्मा गांधी की प्रार्थना पर नब्बे वर्ष पहले बिहार का युवक प्रताप नारायण वाजपेय हिंदी प्रचार के लिए तमिलनाडु के तिरुच्चिनापल्लि में तीन वर्ष रहा। वही उसका स्वर्गवास हो गया। हिंदी को सिखाने में उसने दिन-रात एक कर दिया। उसे जेल भी जाना पड़ था  यक्ष्मा का रोग क़ाबू से बाहर हो गया था। परंतु  उसका हिंदी सिखाने का बलिदान ऐतिहासिक हो गया। शव यात्रा में दस हज़ार से अधिक लोग उमड़ पड़े थे। डॉ. राजेंद्रप्रसाद जो संविधान सभा के अध्यक्ष थे तथा संविधान सभा की भाषा समिति की अध्यक्षता करते हुए हिंदी को भारत की राजभाषा हो इसके लिए ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया था। श्यामरुद्र पाठक जो बिहार का है। उस महान योद्धा ने दिल्ली आई आई टी में हिंदी में लिखी अपनी रिपोर्ट र्स्वीकार करने की लंबी लड़ाई लड़ कर सफलता अर्जित की। जिसके लिए सभी दलों के  सांसदों, बुद्धिजीवियो, शिक्षाविदो, समाचार पत्रों और साहित्यकारों ने सरकार पर दबाव बना कर अप्रतिम योगदान दिया था।  

 आज जब हिंदी को अपनी जड़ से ख़त्म करने का कुचक्र चल रहा है। ऐसे में  सभी बोलियों के समर्थकों को सोचना होगा कि हिंदी जायगी, तो बोलियों भी नहीं बच सकेगी। यह सभी को अनुभव हो चुका है कि हमारे विद्यार्थी प्रारंभ से अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ रहे हैं और हिंदी सहित अपनी-अपनी बोलियों से भी दूर हो चुके हैं। ये अंग्रेज़ी  के वातावरण में हैं। वे हमारे अंक ४९, ५४, ६६, ७८ नहीं समझते हैं। उनके लिए अंग्रेज़ी की विदेशी शिक्षा प्रणाली ही सब कुछ है। उनके लिए देश की संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान, धर्म बेमतलब हो गए हैं। हमें समझना होगा कि हमारी सांस्कृतिक एकता विदेशी भाषा और संस्कृति से मज़बूत नहीं हो सकती है। दुनिया में भारत को  पुन: ‘सोने की चिड़िया’ का गौरव मिले इसके लिए हमें भाषाई एकता क़ायम करना होगी। भाषाई एकता से ही भारत की सांस्कृतिक एकता का महत्त्व दुनिया जान सकेगी। हमारी वसुंधरा से उपजी हिंदी को देश के सभी महापुरुषों ने अपनाया है। चाहें वह महात्मा गांधी हो, सुभाषचंद्र बोस हो, सुब्रहमण्य भारती हो, स्वामी दयानंद सरस्वति हो, लोकमान्य तिलक हो, ऐसे न जाने कितने अहिन्दी भाषियों ने हिंदी को देश को जोड़ने वाली, एकता बनाए रखनेवाली, सर्वमान्य भाषा के रूप में अपनाया है और अपनाने का आव्हान किया है। 

भारत को अपना प्राचीन गौरव मिले इसके लिए भारतीय भाषाओं और सभी बोलियों के बिना हिंदी आगे नहीं बढ़ सकती है। कन्नड़ भाषी संत जैनाचार्य विद्यासागर  जन-जन को जगा रहे हैं, आव्हान कर रहे हैं कि देश अपना है, ध्वज अपना है, स्वाधीनता अपनी है, राष्ट्र गान अपना है, आकाश, जंगल, नदी, झरने, पर्वत, पशु-पक्षी अपने हैं, तो भारतमाता की अपनी भाषा हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने में हम पीछे क्यों हैं। भारत की जड़ को विदेशी भाषा उसकी संस्कृति, सभ्यता, सँस्कार और जीवन पद्धति नहीं सींच सकते हैं।  वे चाहते हैं ‘भारत’ को लौटाओ और ‘इण्डिया’ को हटाओ। उनका कहना है दुनिया की सभी भाषाओं के ज्ञान की खिड़कियाँ खुली रहे। अंग्रेज़ी भी अन्य विदेशी भाषाओं के साथ जो चाहे एच्छिक रूप से भाषा के रूप में सीखे। हिंदी सँयुक्त राष्ट्रसंघ में मान्य हो। हिंदी में पर्याप्त नोबल पुरस्कार मिले, ओलम्पिक में भारत को  जनसंख्या के अनुपात में चीन के समान पदक मिले। दुनिया में भारत का गौरव बढ़े यह हमारे हाथ में है। यह तब ही संभव होगा जब हम अपनी भाषाओं और बोलियों पर विवाद नहीं करेंगे। शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बनावेगे। शिक्षा प्रणाली भारतीयता पर आधारित करने के लिए बोलियों को नहीं राज्यों की आठवीं अनुसूचि की भाषाओं को अपनायेंगे। 

निर्मलकुमार पाटोदी, इंदौर

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