लघुकथा

डर

अमर एक चौबीस वर्षीय युवक था । गांव के ही दबंग के खिलाफ एक मुकदमे में गवाही देने की वजह से गाँव में रहना अब उसके लिए खतरे से ख़ाली नहीं था । डर के मारे अमर पास के ही शहर में अपनी पहचान छिपाकर रहने लगा । उसने सोचा था यहाँ  आकर कोई छोटा मोटा काम धंदा या नौकरी कर लेगा लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी । कड़कड़ाती ठंड उसकी मुसीबत में और इजाफा कर रही थी ।
दाढ़ी और सर के बाल बेतरतीब बेतहाशा बढे हुए थे । वह काफी कमजोर सा नजर आ रहा था । आज लगातार दसवां दिन था जब उसने कुछ नहीं खाया था । अपनी भरपुर कोशिश के बावजूद वह न कुछ कर पाया था और न ही भीख मांग सका था ।
एक दिन लोगों ने फूटपाथ पर पड़े अमर के निर्जीव शरीर को देखा । घेरकर खड़े लोगों में से किसीने पुलिस को सूचित किया  ” ……..हां ! जी ! वहीँ गाँधी उद्यान के पास वाले फुटपाथ पर एक लावारिस लाश पड़ी है ………”

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।